पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(Shamku - Shtheevana)

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

 

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Shamku -  Shankushiraa  ( words like Shakata/chariot, Shakuna/omens, Shakuni, Shakuntalaa, Shakti/power, Shakra, Shankara, Shanku, Shankukarna etc. )

Shankha - Shataakshi (Shankha, Shankhachooda, Shachi, Shanda, Shatadhanvaa, Shatarudriya etc.)

Shataananda - Shami (Shataananda, Shataaneeka, Shatru / enemy, Shatrughna, Shani / Saturn, Shantanu, Shabara, Shabari, Shama, Shami etc.)

Shameeka - Shareera ( Shameeka, Shambara, Shambhu, Shayana / sleeping, Shara, Sharada / winter, Sharabha, Shareera / body etc.)

Sharkaraa - Shaaka   (Sharkaraa / sugar, Sharmishthaa, Sharyaati, Shalya, Shava, Shasha, Shaaka etc.)

Shaakataayana - Shaalagraama (Shaakambhari, Shaakalya, Shaandili, Shaandilya, Shaanti / peace, Shaaradaa, Shaardoola, Shaalagraama etc.)

Shaalaa - Shilaa  (Shaalaa, Shaaligraama, Shaalmali, Shaalva, Shikhandi, Shipraa, Shibi, Shilaa / rock etc)

Shilaada - Shiva  ( Shilpa, Shiva etc. )

Shivagana - Shuka (  Shivaraatri, Shivasharmaa, Shivaa, Shishupaala, Shishumaara, Shishya/desciple, Sheela, Shuka / parrot etc.)

Shukee - Shunahsakha  (  Shukra/venus, Shukla, Shuchi, Shuddhi, Shunah / dog, Shunahshepa etc.)

Shubha - Shrigaala ( Shubha / holy, Shumbha, Shuukara, Shoodra / Shuudra, Shuunya / Shoonya, Shoora, Shoorasena, Shuurpa, Shuurpanakhaa, Shuula, Shrigaala / jackal etc. )

Shrinkhali - Shmashaana ( Shringa / horn, Shringaar, Shringi, Shesha, Shaibyaa, Shaila / mountain, Shona, Shobhaa / beauty, Shaucha, Shmashaana etc. )

Shmashru - Shraanta  (Shyaamalaa, Shyena / hawk, Shraddhaa, Shravana, Shraaddha etc. )

Shraavana - Shrutaayudha  (Shraavana, Shree, Shreedaamaa, Shreedhara, Shreenivaasa, Shreemati, Shrutadeva etc.)

Shrutaartha - Shadaja (Shruti, Shwaana / dog, Shweta / white, Shwetadweepa etc.)

Shadaanana - Shtheevana (Shadaanana, Shadgarbha, Shashthi, Shodasha, Shodashi etc.)

 

 

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नवमी तिथि

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रामगया में श्राद्ध और सीताकुण्ड पर माता, पितामही को बालू के पिण्ड दिए जाते हैं।

दसवें दिन का कृत्य ( गया श्राद्ध पद्धति, ले. पं. श्रीरामकृष्ण शास्त्री, - गीताप्रेस, गोरखपुर)

आश्विन कृष्ण नवमी को प्रातः फल्गु स्नानादि कर्म करके रामकुण्ड पर श्राद्ध होता है तथा सीताकुण्ड पर माता, पितामही और प्रपितामही को बालू के पिण्ड दिये जाते हैं। सर्वप्रथम फल्गुतीर्थ के उस पार भरताश्रम जाकर रामेश्वर महादेव, राम-सीता आदि को निम्न मन्त्र से प्रणाम करे

राम राम महाबाहो देवानामभयङ्कर। त्वां नमस्येऽत्र देवेश मम नश्यतु पातकम्।

तदनन्तर रामपद में श्राद्ध करे। फिर नदीतट पर आकर निम्न  मन्त्रों को पढ़कर बालुकामय तीन पिण्ड अपसव्य दक्षिणामुख होकर प्रदान करे

सिकतायाः ददौ सीता पिण्डं सौभाग्यहेतवे। गयामागत्य रामेण तीर्थे दशाश्वमेधिके ॥ सिकतायाः ददौ सीता पिण्डं पितृविमुक्तये। गयामागत्य रामेण तीर्थे दशाश्वमेधिके ॥ सिकतायाः ददौ सीता पिण्डं मातृविमुक्तये। गयामागत्य रामेण तीर्थे दशाश्वमेधिके ॥ तदनन्तर सीताकुण्ड पर किये श्राद्ध की साङ्गतासिद्धि के लिये सव्य पूर्वाभिमुख होकर सौभाग्यपेटिका का दान करना चाहिये और ब्राह्मणपूजा करनी चाहिये।

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अष्टमी तिथि को जिन पांच पदों पर पिण्डदान किया गया था, उनके नाम हैं इन्द्रपद, कश्यपपद, अगस्त्य पद, क्रौञ्चपद व मतङ्गपद। डा. फतहसिंह के अनुसार कश्यप समाधि से व्युत्थान की स्थिति की ओर संकेत करता है। अष्टमी तिथि के जितने पद हैं, वह सभी संकेत करते हैं कि यह व्यक्तित्व के निचले स्तरों को समाधि से प्रभावित करने की प्रक्रिया है। नवमी तिथि को सीता का उल्लेख यह संकेत देता है कि अब फल्गु नदी, अपने कर्मफलों को व्यर्थ बनाने की, उन्हें भून डालने की साधना तक सीमित नहीं रहना है।

नवमी तिथि को सीताकुण्ड पर बालू के पिण्ड दिए जाते हैं। विष्णुपद फल्गु नदी के पश्चिमी तट पर स्थित है। विष्णुपद पर पिण्डों का निर्माण व्रीहि व यव चूर्ण द्वारा किया जाता है(शतपथ ब्राह्मण ५.५.५.९ के अनुसार तीन पिण्डों हेतु द्रव्य क्रमशः व्रीहि, यव तथा व्रीहि हैं ) सीताकुण्ड फल्गु नदी के पूर्वी तट पर स्थित है। पश्चिम दिशा वरुण की दिशा होती है जो सत्यानृत विवेक की दिशा है। वरुण का आधिपत्य जल पर कहा जाता है। पूर्व दिशा ज्ञान प्राप्ति की दिशा, सूर्योदय की दिशा कही जाती है। सीताकुण्ड पर बालुका के तीन पिण्डों का निर्माण किया जाता है । इसके पीछे कथा यह है कि वनवास के समय राम व लक्ष्मण कहीं गए हुए थे तो उनके पिता दशरथ ने प्रकट होकर सीता से पिण्ड की कामना की । सीता ने अपनी असमर्थता प्रकट की कि इस समय उसके पास पिण्ड निर्माण हेतु कोई भी वस्तु नहीं है, लेकिन दशरथ ने कहा कि बालुका से ही पिण्ड बनाकर वह अर्पित कर दे । सीता ने ऐसा ही किया और पिण्ड दशरथ के हाथों पर रख दिए। जब राम व लक्ष्मण लौट कर आए तो उनको पिण्ड दान का पता लगा । उन्हें विश्वास नहीं हुआ और पुष्टि के लिए उन्होंने फल्गु नदी, केतकी आदि से सत्य का पता लगाना चाहा । उन्होंने झूठ बोल दिया कि सीता ने पिण्डदान नहीं किया । सीता ने फल्गु को शाप दिया कि तुम्हारा जल अन्तर्मुखी हो जाए । इसी प्रकार केतकी पुष्प को भी शाप दिया कि तुम पूजा के अयोग्य हो जाओ । फिर वट वृक्ष से पूछने की बारी आई । उसने सत्य बता दिया । इस पर सीता ने वट वृक्ष को अक्षय वट बन कर कामना पूर्ति करने का वरदान दिया । इस आख्यान का निहितार्थ यह हो सकता है कि फल्गु नदी व केतकी पुष्प रूपी साधना के स्तरों पर यह संभव नहीं है कि बालू को भी पिण्ड का रूप दिया जा सके। फल्गु का अर्थ व्यर्थ लिया जाता है, अर्थात् अब हमारे पूर्व संचित कर्मफलों का उदय नहीं होगा, वैसे ही जैसे भुने हुए बीज अंकुरित नहीं होते। फल्गु बनना, फल्गु में स्नान करना साधना की पहली स्थिति है। फिर साधना में वह स्थिति लाना जहां बीज अंकुरित हो सकें, वह सीता स्थिति कहलाएगी । अतः फल्गु को पता नहीं है कि सीता ने पिण्ड  दिया है या नहीं । वैदिक साहित्य में हल द्वारा भूमि को जोतने से बनी रेखाओं को सीता कहा जाता है । इन सीताओं में उर्वरा शक्ति निहित रहती है जिससे इनमें बीज के वपन से वह अंकुरित हो जाता है । केतकी के संदर्भ में केतु ज्ञान की प्रथम अवस्था को कहा जाता है।

नवमी का श्राद्ध( जन्म तिथि के अनपेक्ष) सभी वृद्ध महिलाओं के लिए विहित है। साथ ही यह भी शर्त है कि वह महिला अपने जीवन काल में सधवा रही हों, विधवा नहीं। वृद्ध शब्द के द्वारा बहुत से सूक्ष्म अर्थों को व्यक्त कर दिया गया है। शतपथ ब्राह्मण ७.१.१.११ का कथन है कि यातयाम ( जो बेकार हो गई है ) अग्नि की भस्म है और अयातयाम( जो बेकार नहीं हुई है ) सिकता । स्थूल देह के स्तर पर विष्ठा को भस्म कहा जा सकता है। आन्त्रों में पडे अधपचे अन्न को सिकता कहा जा सकता है। और अधिक सूक्ष्म स्तर पर विचार करने पर, जिन कोशिकाओं के विभाजित होने की सामर्थ्य समाप्त हो गई है, उन्हें भस्म कहा जा सकता है। भस्म से पिण्ड निर्माण किया गया हो, ऐसा उल्लेख तो सामने नहीं आता, शिवलिंग अवश्य बनाया जा सकता है। यह कथन आधुनिक विज्ञान के कथन की ओर ध्यान दिलाता है जिसमें कहा गया है कि इस विश्व की ऊर्जा लगातार उस ओर बढ रही है जहां वह उपयोग के लायक नहीं रह जाती(तापगतिकी का दूसरा नियम)। भस्म उसी व्यर्थ ऊर्जा का रूप कही जा सकती है। शतपथ ब्राह्मण ३.५.१.३६ आदि का कथन है कि सिकता अग्नि की भस्म रूप है जिसमें अग्नि छिपी रहती है । सिकता अलंकार रूप भी है । शतपथ ब्राह्मण ७.३.१.३८ का कथन है कि  सिकता के शुक्ल व कृष्ण दो रूप हैं जो अहोरात्र के प्रतीक हैं ।

नवमी तिथि को पिण्डदान का आरम्भ रामपद से किया जाता है। राम के विषय में कहा गया है कि वह शब्दमात्र समूह के स्वामी हैं जबकि लक्ष्मण अर्थमात्र समूह के। शब्द आकाश के स्तर पर होता है। अतः जीवन में अनुभव को उतारना लक्ष्मण का कार्य कहा गया है। क्या दशमी तिथि का श्राद्ध अर्थ की ओर जाना है, यह विचारणीय है।

दशमी तिथि

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गयसिर और गयकूप के पास पिण्डदान

गयाशिर व गयाकूप वेदियों के चित्र

आक्रान्तं दैत्यजठरं धर्म्मेण विरजाद्रिणा।

नाभिकूपसमीपे तु देवी या विरजा स्थिता।

तत्र पिण्डादिकं कृत्वा त्रिःसप्तकुलमुद्धरेत्॥2.44.85

 

ग्यारहवें दिन का कृत्य ( गया श्राद्ध पद्धति, ले. पं. श्रीरामकृष्ण शास्त्री, - गीताप्रेस, गोरखपुर)

आश्विन कृष्ण दशमी को प्रातः फल्गु स्नानादि कृत्य सम्पन्न कर गयाशिर तीर्थ में जाकर तर्पणपूर्वक श्राद्ध करना चाहिये। उसके बाद गयाकूप में जाकर श्राद्ध करना चाहिये और संकटादेवी का दर्शन तथा पूजन करना चाहिये।

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दशमी तिथि को गयशीर्ष व गयकूप पर पिण्डदान के कथन की व्याख्या अभी संभव नहीं है, लेकिन सबसे पहले यह समझने का प्रयत्न करना होगा कि नवमी, दशमी व एकादशी तिथियों में क्या अन्तर है। पुराणों में दशमी तिथि को 10 दिशाओं, 10 प्राणों, 10 विश्वेदेवों, 10 अंगिरसों, 10 अवतारों आदि की पूजा का निर्देश है। कहा गया है कि पितर प्राणों का समूह बनते बनते वह अन्त में विश्वेदेव गण में समाहित हो जाते हैं। प्राणों की पहली स्थिति तो यह हो सकती है कि वह बिखरे पडे हैं, उनमें कोई तारतम्य नहीं है, उदाहरण के लिए गणित की संख्याएं। इन्हें गणित में रैखिक (स्केलर) कहा जाता है। इसके पश्चात् दैशिक (वैक्टर) संख्याओं का आरम्भ हो जाता है जिनके साथ दिशाएं जुड जाती हैं। इससे एक नए गणित का विकास आरम्भ हो जाता है। गणित में पता नहीं संख्याओं को दैशिक बनाने के लिए कितनी दिशाओं का कल्पन किया गया है, वैदिक साहित्य में दस दिशाओं की कल्पना की गई है। प्राणों को रैखिक से दैशिक बनाने के पश्चात् अनुमान है कि इस विश्व में जो घटनाएं आकस्मिक रूप से घटती दिखाई देती हैं, वैसा नहीं होगा। विश्वेदेव, अंगिरस आदि आदिष्ट प्राण हैं जिनके साथ दस दिशाएं जुडी हुई हैं। इन 10 आदिष्ट प्राणों से 11वें  प्राण का विकास करना होता है जो एकादश कहलाता है। विज्ञान की दृष्टि से उस ग्यारहवें प्राण के क्या गुण होंगे, इसकी कल्पना करना कठिन है। केवल पुराणों के कथनों के आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि दस प्राणों की गति तो तिर्यक् दिशा में होती है जबकि 11वें प्राण की ऊर्ध्व दिशा में। पुराणों में दशमी विद्धा एकादशी का सर्वथा वर्जन किया गया है। नारद पुराण के द्वितीय भाग के वर्णन के आधार पर दशमी को एक प्रकार से ब्रह्मा द्वारा सर्जित मोहिनी माया समझा जा सकता है जिसका स्पर्श माया से ऊपर की एकादशी स्थिति से नहीं होना चाहिए।

     दस दिशाओं में वर्गीकृत इन प्राणों को सौ, हजार भी कहा जा सकता था, लेकिन केवल दस कहा गया है। इसके पीछे तर्क यह दिया जा सकता है कि ऋग्वेद के लिए दस की, यजुर्वेद के लिए सौ की और सामवेद के लिए हजार की संख्या सुरक्षित रखी गई है। अतः प्रथम दृष्टि में यह समझा जा सकता है कि दशमी के दस प्राण ऋग्वेद के नियमों से बंधे हुए हैं। ऋग्वेद का नियम यह है कि यहां भूत और भविष्य ज्ञात हो जाता है। यजुर्वेद में जाने पर वर्तमान फलित हो जाता है, भूत भविष्य की ओर देखने की कोई आवश्यकता नहीं। जो कामना हुई, वह कल्पवृक्ष अभी पूरी कर देगा। 

     इंटरनेट पर एक वैबसाईट के द्वारा दशमी और एकादशी के अन्तर को और अधिक स्पष्ट करने का अवसर प्राप्त हुआ है। इस आधार पर दशमी को कर्मकाण्ड में बहिर्वेदी की स्थिति और एकादशी को अन्तर्वेदी की स्थिति कहा जा सकता है।

प्रयाग में पच्चकोशी परिक्रमा का क्रम और मार्ग

दसवें दिन--त्रिवेणी में जाकर ‍बहिर्वेदी की परिक्रमा कर उस जगह रात्रि में निवास करें।

ग्यारहवें दिन--अन्तर्वेदी की परिक्रमा कर उसी जगह रात्रि में निवास करें।

दशमी के गुणों को स्पष्ट करने के लिए डा. यशवन्त कोठारी का सांझी पर लेख हमें एक और अवसर प्रदान करता है। इस लेख के अनुसार दशमी तिथि को सांझी देवी के साथ पंखा रखा जाता है। द्वादशाह सोमयाग में तीसरे दिन के पृष्ठ नामक कृत्य में पंखा झला जाता है(अभ्राणि संप्लवन्त इति भक्त्युपासनम् । उपवाजयमाना वैरूपेण स्तुवीरन् । उपवाज्यमाना वा यजमानवाचनादनन्तरं वात आवात्विति तृचेन वातमनुमन्त्रयेत आर्षेय कल्प)। तृतीय दिन की संज्ञा वैरूप होती है, अर्थात् हमारी दृष्टि घटनाओं को देखने के लिए धुंधली, विरूपित होती है। इस स्थिति में कहा गया है कि जब पंखा झलने से वात चलेगी तो जैसे वर्षा से पहले वायु बहती है, बादल घिर कर आते हैं, बिजली चमकती है, वैसी ही स्थिति भक्ति की होनी चाहिए (केवल वायु का बहना पर्याप्त नहीं है)। वायु का पंखा तो हमारे श्वास के रूप में दिन रात चल रहा है। इस श्वास से बादल भी घिरने चाहिएं। यह उदान प्राण का रूप होगा।  इससे अगले चतुर्थ दिन की संज्ञा वैराज होती है जिसे भागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध में पृथु की कथा के माध्यम से समझा जा सकता है। इस दिन अग्नि का मन्थन करके उसे पहले से वर्तमान अग्नि में मिलाया जाता है जिसकी व्याख्या अतिथि शब्द की टिप्पणी में की जा चुकी है।।

एकादशी तिथि

http://www.jagran.com/spiritual/religion-part-of-the-huge-head-butt-gyasur-altar-located-prishta-10764181.html

मुण्डपृष्ठ, धौतपाद व आदिगया में खोवे या तिल-गुड से पिण्डदान।

आश्विन कृष्ण एकादशी सोमवार त्रिपाक्षिक गया श्राद्ध का 12वां दिवस है। उक्त तिथि को मुंडपृष्ठा वेदी से श्राद्ध प्रारंभ होता है। यह वेदी विष्णुपद मंदिर से दक्षिण करसीली पर्वत पर है। यह पर्वत गयासुर के विशाल सिर की क्षेत्र सीमा के अंतर्गत है। गयाधाम में उसका विशाल सिर एक कोश में फैला हुआ है। उसके विशाल सिर की दक्षिणी सीमा पर संकटा देवी एवं ब्रहम सरोवर है तथा उतरी सीमा पर से उत्तर मानस पिता महेश्वर तीर्थ है। पूर्वी सीमा पर नागकूट पर्वत (सीता कुंड) तथा पश्चिमी सीमा पर गृध्रेश्वर महादेव (गोदावरी) एवं अक्षयवट तीर्थ है। उक्त सभी वेदियां 360 वेदियों की गणना में हैं। पांच कोश के गया क्षेत्र का केन्द्र स्थल करसीली पर्वत है। यह गयाधाम का अति प्राचीन स्थल है। इसके उत्तर दिशा में ढाई कोश, दक्षिण दिशा में ढाई कोश, पूर्व दिशा में ढाई कोश तथा पश्चिम दिशा में ढाई कोश - पांच कोश में व्याप्त गया क्षेत्र है। पवित्र करसीली पर स्थित मुंडपृष्ठा देवी की बारह भुजाएं हैं। यह दर्शनीय वेदी है। यहां से दक्षिण पश्चिम दिशा में आदि गया वेदी है। यहां एक विशाल शिला है। श्राद्ध का पिंड यहां समर्पित किया जाता है। आदि गया वेदी से दक्षिण पश्चिम दिशा में धौतपद वेदी है। यहां उजला शिला पर श्राद्ध का पिंड समर्पित किया जाता है। पितरों की मुक्ति हेतु यहां चांदी दान किया जाता है। यहां से दक्षिण दरवाजा के पास सुखमना महादेव (सुषुम्ना महादेव) दर्शनीय वेदी है। सुषुम्ना महादेव इनका पौराणिक नाम है। -[आचार्य लालभूषण मिश्र]

आदिगया, धौतपाद व मुण्डपृष्ठा देवी के चित्र

गयानाभौ सुषुम्नायां पिण्डदः स्वर्नयेत्पितॄन्॥2.46.69

 

http://m.jagran.com/spiritual/mukhye-dharmik-sthal-the-most-ancient-rituals-at-the-site-11641327.html

ढाई कोस के परिमाण में अवस्थित गया तीर्थ को यहां से ही मापा जाता है। यहां आदि गदाधर तो सर्वप्रथम पादार्पण किया था। पुराना शिला पर आदि गदाधर की मूर्ति अंकित है। श्राद्धकर्ता इनका दर्शन-नमस्कार करते हैं। आदि गया में यह शिला गहराई में है। अत: इसको आदिगया का नाभिस्थल कहा जाता है। बारह भुज वाली मुंडपृष्ठा देवी वरदायिनी मुद्रा में हैं। इनका दर्शन-नमस्कार मोक्षदायक है। करसीली पर्वत पर ही श्वेतशिला है। यह पांडुशिला कहलाती है। यहां श्राद्ध के बाद चांदी दान किया जाता है। द्यौतपद वेदी के नाम से यह प्रसिद्ध है, यहां राजा युद्धिष्ठिर ने अपने पिता पांडु को पिंडदान करके मुक्ति दिलायी थी। पिता के आशीर्वाद से युद्धिष्ठिर सदेह स्वर्ग गए थे। करसीली पर्वत पर ही विष्णु पद मार्ग में कामख्या देवी दर्शनीय हैं।

बारहवें दिनका कृत्य ( गया श्राद्ध पद्धति, ले. पं. श्रीरामकृष्ण शास्त्री, - गीताप्रेस, गोरखपुर)

आश्विन कृष्ण एकादशी को मुण्डपृष्ठ, आदिगया और धौतपद पर पिण्डदानादि कृत्य होता है। प्रातः फल्गुस्नानादि कृत्य सम्पन्न करके मुण्डपृष्ठ जाकर संकल्पपूर्वक मुण्डपृष्ठ पर श्राद्ध करना चाहिये। तदनन्तर मुण्डपृष्ठा देवी का दर्शन करे और निम्न मन्त्र से उनकी प्रार्थना करे

मुण्डपृष्ठे नमस्तुभ्यं पितॄणां तारणाय च। साक्षीभूते जगद्धात्रि आत्मनो मुक्तिहेतवे। तदनन्तर आदिगया तीर्थ पर जाकर श्राद्ध करे और आदिगदाधर का पूजन कर प्रार्थना करे। इसके पश्चात् धौतपदतीर्थ में जाकर खोये या तिलगुड़ के पिण्ड से श्राद्ध करे और पुण्डरीकाक्ष का दर्शन कर निम्न मन्त्र से भगवान् पुण्डरीकाक्ष की प्रार्थना करे

नमस्ते पुण्डरीकाक्ष ऋणत्रयविमोचन । लक्ष्मीकान्त नमस्तुभ्यं नमस्ते पितृमोक्षद।

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      एकादशी तिथि का क्या स्वरूप है, क्या विशेषताएं हैं, यह अभी तक अस्पष्ट ही रहा है। वायु पुराण कह रहा है कि एकादशी तिथि को गयानाभि में जो सुषुम्ना है, वहां पिण्डदान करना है

गयानाभौ सुषुम्नायां पिण्डदः स्वर्नयेत्पितॄन्॥2.46.69

 

दूसरी ओर, दशमी तिथि के पिण्डदान के संदर्भ में कहा जा रहा है कि नाभिकूप के पास ही विरजा है जहां दशमी को पिण्डदान करना है

आक्रान्तं दैत्यजठरं धर्म्मेण विरजाद्रिणा।

नाभिकूपसमीपे तु देवी या विरजा स्थिता।

तत्र पिण्डादिकं कृत्वा त्रिःसप्तकुलमुद्धरेत्॥2.44.85

 

उपनिषदों के अनुसार शिश्न में इडा, पिङ्गला और सुषुम्ना यह तीन नाडियां आकर मिलती हैं। जो प्राण सुषुम्ना में प्रवेश कर जाएगा, वह मेरुदण्ड से यात्रा करके ब्रह्मरन्ध्र से बाहर निकलने में समर्थ हो जाएगा। पुराणों के अनुसार सुषुम्ना सूर्य की एक रश्मि का नाम है जो क्षीण हुए चन्द्रमा का पोषण करती है। द्वादशी तिथि के कृत्यों से भी एकादशी तिथि के गुणों पर प्रकाश पडता है। जिस विरजा देवी का उल्लेख दशमी तिथि के अन्तर्गत किया गया है, विरजा देवी की स्थिति तो एकादशी के अन्तर्गत होनी चाहिए। अन्तर वास्तविक है या आभासी, यह विचारणीय है। प्रयाग परिक्रमा के संदर्भ में कहा जा रहा है कि दसवें दिन बहिर्वेदी में सोए, ग्यारहवें दिन अन्तर्वेदी में।

प्रयाग में पच्चकोशी परिक्रमा का क्रम और मार्ग

दसवें दिन--त्रिवेणी में जाकर ‍बहिर्वेदी की परिक्रमा कर उस जगह रात्रि में निवास करें।

ग्यारहवें दिन--अन्तर्वेदी की परिक्रमा कर उसी जगह रात्रि में निवास करें।

इससे संकेत मिलता है कि एकादशी के दिन अन्तर्वेदी अर्थात् अन्तर्मुखी होने की स्थिति आ जाती है जबकि दशमी तक बहिर्वेदी रूप में बहिर्मुखी स्थिति बनी रहती है। यही कारण हो सकता कि दशमी व एकादशी तिथियों को इतना अ-स्पृश्य क्यों समझा जाता है। इन तिथियों के अनुसार ही अन्दर के प्राणों के गुण भी बदल जाते होंगे क्योंकि भागवत पुराण में कहा गया है

ऊष्माणमिन्द्रियाण्याहुः अन्तस्था बलमात्मनः।

अर्थात् जो ऊष्माण वर्ण श ष स हैं, उनसे इन्द्रियों का निर्माण होता है तथा जो अन्तस्थ वर्ण य, , , व हैं, उनसे आत्मा के बल का निर्माण होता है। यह उल्लेखनीय है कि कर्मकाण्ड में आहवनीय और गार्हपत्य अग्नियों के स्थानों के अतिरिक्त इनके बीच में एक अर्धचन्द्राकार अग्नि और होती है जिसे दक्षिणाग्नि कहा जाता है। यह आधी बहिर्वेदी में और आधी अन्तर्वेदी में होती है। इसे ब्रह्मा की अग्नि कहा गया है। यह अग्नि पुराणों के ब्रह्मा देवता की प्रकृति पर भी प्रकाश डालती है। एकादशी तिथि विष्णु से सम्बन्धित है, दशमी ब्रह्मा से। गया श्राद्ध के संदर्भ में पहले ही कहा जा चुका है कि ब्रह्मा का सम्बन्ध ओंकार की अ मात्रा से है जो शक्ति का आदान करती है। विष्णु का सम्बन्ध ओंकार की उ मात्रा से है जो शक्ति को धारण, संरक्षण करती है। आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से दशमी व एकादशी के प्राणों में अन्तर की किस प्रकार व्याख्या की जा सकती है, यह अन्वेषणीय है। दशमी के प्राणों की आदिष्ट (वैक्टर) प्राणों के रूप में व्याख्या का सुझाव पहले ही दिया जा चुका है।

     सांझी के संदर्भ से एकादशी के विषय में सहायता लेना संभव नहीं है क्योंकि वहां कहा गया है कि एकादशी से सांझी देवी का संपर्क किलाकोट से हो जाता है जिसका रंग रूप नित्य बदलता रहता है। पुराणों में दशमी के श्राद्ध फल के विषय में तो कहा गया है कि इससे कामनाओं की पूर्ति होती है, जबकि एकादशी श्राद्ध फल के विषय में कहा गया है कि इससे वेदों की प्राप्ति होती है।

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