पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Shamku - Shtheevana) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
|
|
Puraanic contexts of words like Shukra/venus, Shukla, Shuchi, Shuddhi, Shunah / dog, Shunahshepa etc. are given here. शुकी स्कन्द ४.१.४५.३७(६४ योगिनियों में से एक), द्र. वंश ताम्रा
शुक्तिमान् मत्स्य ११४.३२(शुक्तिमान् पर्वत से उद्भूत नदियां), वराह ८५(शुक्तिमान् पर्वत से उद्भूत नदियां), द्र. भूगोल shuktimaan
शुक्र गणेश २.३१.३७( बलि के संकल्प पात्र का छिद्र खोलने पर शुक्र के नेत्र का भङ्ग होना - तावद्धारां निरुध्यैव स्थितः शुक्रोऽन्यदेहतः । ददौ शलाकां तत्पात्रे भग्ननेत्रो बहिर्गतः ॥), २.६३.३७(शुक्र द्वारा देवान्तक व गणेश के युद्ध में असुरों का उज्जीवन, ईशिता सिद्धि द्वारा शुक्र के बन्धन का उपाय- शुक्रस्तत्र मृतान्दैत्यानुज्जीवयति विद्यया। ..ईशितायै ततः प्रोचुः सर्वे ते शुक्रचेष्टितम् ।), गरुड ३.२७.८(शुक्र के सुरापान दोष का उल्लेख - सुरापानाच्च शुक्रस्तु सुवर्णहरणाद्बलिः ॥), गर्ग ७.१३.२८(विभीषण द्वारा प्रद्युम्न से प्राप्त बाण के विषय में शुक्राचार्य से पृच्छा - पत्रं बाणात्समाकृष्य पठित्वाथ बिभीषणः ॥.. भगवन्कस्य बाणोऽयं भोजराजस्तु कः क्षितौ ॥), देवीभागवत ४.१०, ४.११(शिव से मन्त्र प्राप्ति हेतु शुक्र द्वारा कणधूमपान, विष्णु द्वारा काव्य माता का चक्र से वध), ८.४.२७(उशनाकाव्य की पत्नी ऊर्जस्वती से देवयानी कन्या के जन्म का उल्लेख - कन्यामूर्जस्वतीनाम्नीं ददावुशनसे विभुः ।आसीत्तस्यां देवयानी कन्या काव्यस्य विश्रुता ॥), नारद १.११.१७६(शुक्र द्वारा बलि के संकल्प कुम्भ में प्रवेश कर धारा को अवरुद्ध करने पर वामन द्वारा शुक्र के नेत्र का भञ्जन - काव्यं हस्तस्थदर्भाग्रं तच्छरे संन्यवेशयत् ।।दर्भाग्रेऽभून्महाशस्त्रं कोटिसूर्यसमप्रभम् ।।), पद्म १.१३.१९९(विष्णु द्वारा शुक्र - माता का वध, भृगु द्वारा पत्नी का पुन: सञ्जीवन, कणधूमसेवनरत शुक्र की जयन्ती द्वारा सेवा, जयन्ती के साथ अदृश्य रूप में रमण, बृहस्पति द्वारा दानवों की वञ्चना आदि), १.३४.१५(तस्मिन्यज्ञे भृगुर्होता वसिष्ठो मैत्र एव च॥), १.८१.२३(दैत्यान्रणे मृतांस्तत्र दैत्याचार्यो ह्यजीवयत्।.. काव्यं तं कुंतले धृत्वा दैत्यानां पुरतो बलात्।।), २.११८.३१(शुक्र द्वारा विहुंड असुर को कामोद के विषय में बताना - कामोदः पादपो नास्ति योषिदेवास्ति दानव ।।यदा सा हसते चैव प्रसंगेन प्रहर्षिता ।तद्धासाज्जज्ञिरे दैत्य सुगंधीनि वराण्यपि ।।), ६.१७.६९(काव्य द्वारा जालंधर की सेना का उज्जीवन - ततः काव्यं स सस्मार मनसा परमं गुरुम् ।स्मृतस्तेन त्वरन्प्राप्तः कविर्जालंधरं प्रति ।।), ब्रह्म १.७०.५१(गर्भ धारण के संदर्भ में शुक्र के सोमात्मक व आर्तव के पावकात्मक होने का उल्लेख), १.७०.५२(शुक्र के कफ वर्ग व शोणित के पित्तवर्ग में होने का उल्लेख - शुक्रं सोमात्मकं विद्यादार्तवं पावकात्मकम्।।.. कफवर्गे भवेच्छुक्रं पित्तवर्गे च शोणितम्।।), २.२५(शुक्र तीर्थ का माहात्म्य, गुरु अङ्गिरा का पक्षपात देखकर शुक्र द्वारा शिव को गुरु बनाना, मृत सञ्जीवनी विद्या की प्राप्ति), २.८२(तारा की चन्द्रमा से पुनःप्राप्ति में शुक्र द्वारा बृहस्पति की सहायता- पुनर्वै देवा अददुः पुनर्मनुष्या उत। राजानः सत्यं कृण्वाना ब्रह्मजायां पुनर्ददुः।।), ब्रह्मवैवर्त्त २.४.५४(शुक्र द्वारा भृगु से सरस्वती मन्त्र प्राप्ति का उल्लेख - श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा ।।.. भृगुर्ददौ च शुक्राय पुष्करे सूर्य्यपर्वणि ।।), २.५१.२९(शुक्र द्वारा सुयज्ञ नृप को स्त्री हत्या के पाप व प्रायश्चित्त का कथन), ४.८१(चन्द्रमा व तारा आख्यान में शुक्र द्वारा चन्द्रमा को शरण देना), ब्रह्माण्ड २.३.१.२०(अग्नि में शुक्र की आहुति से सप्तर्षियों की उत्पत्ति), २.३.७२.१६२(धूमपान व्रत के पश्चात् शुक्र द्वारा शिव से विद्या की प्राप्ति, शिव की स्तुति), २.३.७३(जयन्ती द्वारा शुक्र की सेवा, शुक्र की अनुपस्थिति में बृहस्पति का शुक्रवेश धारण करना), २.३.१.७५(भृगु व दिव्या - पुत्र, गौ - पति, उशना, कवि आदि नाम, त्वष्टा, वरूत्री आदि ४ पुत्र), ३.४.१२(शुक्र द्वारा भण्डासुर के अभिषेक का उल्लेख), ३.४.१२.४७(शुक्राचार्य द्वारा भण्डासुर को माया के प्रति सचेत करना), भविष्य १.३४.२३(महापद्म नाग का भार्गव ग्रह से तादात्म्य - पद्मं बृहस्पतिं विद्यान्महापद्मं च भार्गवम् ।), ३.४.१७.४८(शुक्र ग्रह : ध्रुव व जलदेवी – पुत्र - जलदेव्यास्ततो जातः शुक्रो नाम महाग्रहः ।।), ३.४.२५.३९(शुक्र की ब्रह्माण्ड के कर से उत्पत्ति, शुक्र से रुद्र सावर्णि मन्वन्तर की सृष्टि का उल्लेख - ब्रह्माण्डकरतो जातः शुक्रोहं तव किङ्करः ।निर्मितं रुद्रसावर्णं मया तुभ्यं नमो नमः । । ), ४.१२०.१(प्रतिशुक्र प्रशान्ति हेतु पूजा विधि - यात्रारंभे प्रयाणे च तथा शुक्रोदयेष्विह ।। शुक्रपूजा प्रकर्तव्या तां निशामय सारतः ।।), ४.१३७(शुक्र द्वारा दानवों को रक्षाबन्धविषयक उपदेश - रक्षाबंधप्रभावेन दानवेन्द्रो जितो महान् ।।), भागवत ५.१.३३(प्रियव्रत-कन्या ऊर्जस्वती के उशना की भार्या बनने का उल्लेख, देवयानी कन्या का जन्म), ७.५.१(शुक्र – पुत्रद्वय शण्डामर्क द्वारा प्रह्लाद को शिक्षा देने का कथन - षण्डामर्कौ सुतौ तस्य दैत्यराजगृहान्तिके ।।, ८.१५, मत्स्य ४७.८४(महादेव के आदेश से शुक्र द्वारा कुण्डधार यक्ष से धूमपान करना), ४७.१२७(धूमपान व्रत की पूर्णता पर शुक्र द्वारा शिव की स्तुति - नमोऽस्तु शितिकण्ठाय कनिष्ठाय सुवर्चसे। लेलिहानाय काव्याय वत्सरायान्धसः पते॥ ), ७३.१(शुक्र ग्रह की शान्ति विधि - नमस्ते सर्वलोकेश! नमस्ते भृगुनन्दन! कवे! सर्वार्थसिद्ध्यर्थं गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते।।), वामन ६२.४२(शुक्र द्वारा शिव से सञ्जीवनी विद्या की प्राप्ति - तवाराधनकामार्थं तप्यते हि महत्तपः। संजीवनीं शुभां विद्यां ज्ञातुमिच्छे त्रिलोचन।।), ६९(शिव द्वारा शुक्र को उदरस्थ करना, शुक्र द्वारा शिव की स्तुति, विश्व के दर्शन), वायु ३१.४, ६५.३५/२.४.३५(ब्रह्मा द्वारा शुक्र की आहुति से सप्तर्षियों आदि की उत्पत्ति का वर्णन), ६५.७४(भृगु व दिव्या - पुत्र, अङ्गी- पति, ४ पुत्रों के त्वष्टा, वरूत्री, शण्डामर्क नाम), ७२.८०, ९६.११३, ९७.९९(बृहस्पति से श्रेष्ठता प्राप्ति हेतु शुक्र द्वारा तप, विष्णु द्वारा शुक्र - माता का वध, जयन्ती द्वारा शुक्र की सेवा आदि), ९७.१६१(शिव से विद्या प्राप्ति पर शुक्र द्वारा शिव की स्तुति - नमोऽस्तु शितिकण्ठाय सुरापाय सुवर्चसे।रिरिहाणाय लोपाय वत्सराय जगत्पते ।।..), विष्णुधर्मोत्तर १.३८(शुक्र द्वारा साल्व असुर को परशुराम मानव से उत्पन्न भय से सचेत करना), ३.६९ ( भौमादि ग्रहों के रूप निर्माण का कथन-द्वौ करौ कथितौ तस्य निधिपुस्तकसंयुतौ ।।दशाश्वे च रथे कार्यो राजते भृगुनन्दन ।।), ३.१०४.४३ ( ग्रह आवाहन मन्त्रों का वर्णन-एहि शुक्र महाभाग षोडशार्चे वरप्रद।।प्रभुस्त्वं वरदो नित्यं वर्षावर्षस्य निग्रहे।। ), शिव २.२.३८, २.५.३०, २.५.४७(शुक्र द्वारा अंधक की सेना का उज्जीवन, शिव द्वारा शुक्र का निगरण आदि), ७.१.१७.३४(स्वायम्भुव मन्वन्तर के सप्तर्षियों में एक, वसिष्ठ व ऊर्जा – पुत्र), स्कन्द १.१.१४.२६(तपस्तप्तुं पुरा विप्रो भार्गवो मानसोत्तरम्॥ गतः शिष्यैः परिवृतस्तस्माद्युद्धं न वेद तत्॥), १.१.१९.७(वामन के संदर्भ में अवज्ञा के कारण शुक्र द्वारा बलि को शाप), १.२.१३.१५०(शतरुद्रिय प्रसंग में शुक्र द्वारा पद्मरागमय लिङ्ग की विश्वकर्मा नाम से पूजा का उल्लेख - पद्मरागमयं शुक्रो विश्वकर्मेति नाम च॥), ३.१.४९.५९(शुक्र द्वारा रामेश्वर की स्तुति - वंचकानामलभ्याय महामंत्रार्थरूपिणे ।।नमो द्वैतविहीनाय रामनाथाय शंभवे ।।), ४.१.१६(नन्दी द्वारा शुक्र का बन्धन, शिव द्वारा शुक्र का स्वमुख में निगरण, शुक्र का शिव के शुक्रमार्ग से बहिर्गमन, तप से लोकाधिपतित्व प्राप्ति), ४.२.८३.९३(शुक्र तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य), ५.१.२५.१(शुक्रेश्वर लिङ्ग का संक्षिप्त माहात्म्य - शुक्रेश्वरं समभ्यर्च्य सितपुष्पैर्विलेपनैः ।।प्रणिपत्य ततो भक्त्या रुद्रलोके महीयते ।।), ५.३.१९५.११(भार्गव के लिए मौक्तिकदान का निर्देश - सोमो वै वस्त्रदानेन मौक्तिकानां च भार्गवः ।), ६.२५२.३६(चातुर्मास में शुक्र की उदुम्बर में स्थिति का उल्लेख - अश्वत्थो गुरुणा चैव शुक्रेणोदुम्बरस्तथा ॥), ६.२६२.५९ ( विष्णु के विराट शरीर के विभिन्न अङ्गों में ग्रहों की स्थिति -गुरुश्च दक्षिणे कर्णे वामकर्णे तथा भृगुः ॥), ७.१.२३.९७(चन्द्रमा के यज्ञ में होता), ७.१.४८(शुक्रेश्वर लिङ्ग का माहात्म्य, शुक्राचार्य द्वारा अमृत विद्या की प्राप्ति - ततो गच्छेन्महादेवि लिंगं शुक्रप्रतिष्ठितम्॥ सर्वपापहरं देवि विभूतीश्वरपश्चिमे॥), ७.१.२४७(तत्रैव संस्थितं पश्येच्छुक्रेश्वरमिति श्रुतम् ॥तं दृष्ट्वा मानवो देवि मुक्तः स्यात्सर्वपातकैः ॥), हरिवंश ३.७१(शुक्र द्वारा बलि को वामन को दान देने से रोकना), महाभारत शान्ति २१४.२४(शुक्र गति के भूतसंकरकारिका होने का उल्लेख - ये वै शुक्रगतिं विद्युर्भूतसंकरकारिकाम्। विरागा दग्धदोषास्ते नाप्नुयुर्देहसंभवम्।।), अनुशासन ११६.९(मांस की सम्भूति शुक्र से होने का उल्लेख - शुक्राच्च तात सम्भूतिर्मांसस्येह न संशयः। भक्षणे तु महान्दोषो मलेन स हि कल्प्यते।।), योगवासिष्ठ ४.५+ (भृगु - पुत्र), ४.५.१०+ (शुक्र बालक द्वारा तपोरत पिता भृगु की सेवा व अप्सरा में रत होना, मृत्यु पश्चात् विभिन्न योनियों में जन्म, भृगु द्वारा शुक्र की पूर्व देह में प्राणों का संचार), ५.२८.१०(चिन्तनानन्तरं दैत्या भार्गवं भास्वरं वपुः ।ददृशुः कल्पितं प्राप्तं गन्धर्वनगरं यथा ।।), वा.रामायण ७.१५.१६(ततो दूरात्प्रददृशे धनाध्यक्षो गदाधरः ।शुक्रप्रौष्ठपदाभ्यां च पद्मशङ्खसमावृतः ।।), लक्ष्मीनारायण १.७४.४८ ( नेत्रों में सूर्य - चन्द्र, ओष्ठ में मङ्गल आदि रूप में शरीर में ग्रहों की स्थिति - शुक्रे शुक्रः शनिर्नाभौ मुखे राहुर्व्यवस्थितः ।), १.१४६(वामन-बलि की कथा), १.२८४.७३( वार व्रतों के संदर्भ में ७ ग्रहों के स्वरूप - शुक्ललेपविभूषं च करेण धनदायकम् ।व्याख्यानमुद्रा वामेन दर्शयन्तं स्मरेद् व्रती । ।), १.३२५.५(शुक्र द्वारा जालंधर को राहु के शिरोहीन होने का कारण बताना), १.३२७.४५(असुरसेना में अमंगल – काणे शुक्र के दर्शन - शुक्रः काणोऽमंगलाय द्वितीयोऽप्यग्रगोऽभवत् ।), १.३७०.६१(नरक में शुक्र कुण्ड प्रापक कर्मों का उल्लेख), १.४०७, १.४४१.९०( वृक्षरूपधारी श्रीहरि के दर्शनार्थ शुक्र द्वारा उदुम्बररूप धारण का उल्लेख - बृहस्पतिस्तदाऽश्वत्थः शुक्रो ह्युदुम्बरोऽभवत् ।।), १.४४५.५८(शुक्र द्वारा चन्द्रमा को तारा-भोगजन्य पाप के प्रायश्चित्त के लिए प्रेरित करना), १.५५४.३(शुक्रेश्वर तीर्थ का माहात्म्य – शुक्र द्वारा सञ्जीवनी विद्या प्राप्ति - शुक्रः श्रीशंकरात् प्राप्तस्तपस्तप्त्वाऽत्र दुष्करम् ।विद्यां सञ्जीवनीं मृत्युञ्जयां सन्धायिनीं तथा ।। ), २.१४.२६(शुक्रजीवनी राक्षसी द्वारा युद्ध में धूम्र, मेघ, पांशु आदि अस्त्रों के मोचन तथा उनके प्रतिकार का कथन), २.५०.५० (शुक्र-पुत्री अरजा से रति करने पर दण्ड राजा के नष्ट होने की कथा), २.२२७.१३(देह में शुक्र के विभिन्न रूप - त्रीणि बीजानि शुक्रस्य ह्यन्नं रसो मनोवहा ।एतत्त्रयं विदित्वैव शिथीलयेत् त्रिकं मुहुः ।।), कथासरित् ८.२.१७१( सूर्यप्रभ के संदर्भ में उशना द्वारा दैत्यों की शक्ति की इन्द्र की शक्ति से तुलना - वैरानुबन्धः कार्येऽस्मिंस्तावदिन्द्रस्य दृश्यते ।। .. का तस्य शक्तिः किं कुर्यादास्था वा तस्य वैष्णवी ।।), द्र. मन्वन्तर, वंश पृथु, वंश वसिष्ठ shukra शुक्र-एक राक्षस ( अनु० १४ । २१४)। शुक्राचार्य - महर्षि भृगु के पुत्र, जो असुरों के उपाध्याय थे, इनका दूसरा नाम उशना था । इनके चार पुत्र हुए, जो दैत्यों के पुरोहित थे ( आदि० ६५ । ३६ ) । ( कहीं-कहीं इन्हें भृगु का पौत्र भी कहा गया है । ) ये महर्षि भृगु के पौत्र और कवि के पुत्र थे । ये ही ग्रह होकर तीनों लोकों के जीवन की रक्षा के लिये वृष्टि, अनावृष्टि, भय एवं अभय उत्पन्न करते हैं । ब्रह्माजी की प्रेरणा से समस्त लोकों का चक्कर लगाते रहते हैं । महाबुद्धिमान् शुक्र ही योग के आचार्य तथा दैत्यों के गुरु हुए। ये ही बृहस्पति के रूप में प्रकट हो देवताओं के भी गुरु हुए ( आदि० ६६ । ४२-४३ ) । दैत्यों के द्वारा इनका पुरोहित के पद पर वरण तथा बृहस्पति के साथ इनकी स्पर्धा ( आदि० ७६ । ६-७ ) । इनके द्वारा मृतसंजीवनी विद्या के बल से मरे हुए दानवों का जीवित होना ( आदि० ७६ । ८ ) । इनकी पुत्री का नाम देवयानी था ( आदि ० ७६ । १५ ) । कच का दानवराज वृषपर्वा के नगर में जाकर शुक्राचार्य से अपने को शिष्य- रूप से ग्रहण करने के लिये प्रार्थना करना और इनकी सेवा में रहकर एक सहस्र वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालन के लियॆ अनुमति माँगना तथा इनका कच को स्वागतपूर्वक ग्रहण करना ( आदि० ७६ । १८-१९ ) । इनका कच के लिये चिन्तित हुई देवयानी को आश्वासन देकर संजीवनीविद्या का प्रयोग करके कच को पुकारना और उस विद्या के बल से कच का कुत्तों के शरीर को विदीर्ण करके निकल आना ( आदि० ७६ । ३१–३४ ) । इनके द्वारा कच को दोबारा जीवनदान ( आदि० ७६ । ४१-४२ ) । तीसरी बार दानवों ने कच को मारकर आग में जलाया और उनकी जली हुई लाश का चूर्ण बनाकर मदिरा में मिला दिया, फिर वही मदिरा उन्होंने ब्राह्मण शुक्राचार्य को पिला दी ( आदि० ७६ । ४३ ) । देवयानी का पुनः कच को जीवित करने के लिये इनसे अनुरोध, शुक्राचार्य का कच को जिलाने से विरत होना तथा देवयानी के प्राणत्याग करने के लिये उद्यत होने पर इनका असुरों पर क्रोध करके संजीवनी विद्या के द्वारा कच को पुकारना, कच का अपने को इनके उदर में स्थित बताना और इनके पूछने पर मदिरा के साथ इनके पेट में पहुँचने का वृत्तान्त निवेदन करना । इनका कच को जीवित करने से अपने वध की आशंका बताना । देवयानी का पिता और कच दोनों में से किसी के भी नाश से अपनी मृत्यु बताना । तब इनका कच को सिद्ध बताकर उन्हें संजीवनी विद्या का उपदेश करना । कच का इनके पेट से निकलकर विद्या के बलसे पुनः इन्हें जीवित कर देना और प्रणाम करके इन्हें अपना पिता तथा माता मानना तथा कभी भी इनसे द्रोह न करने की प्रतिज्ञा करना (आदि० ७६ । ४४–६४ ) । इनका मदिरा- पान को ब्रह्महत्या के समान बतलाकर उसे ब्राह्मणों के लिये सर्वथा निषिद्ध घोषित करना (आदि० ७६ । ६७-६८) । देवयानी के प्रति इनके द्वारा अपने प्रभाव का वर्णन ( आदि० ७८ । ३७–४०) । शर्मिष्ठा द्वारा पीड़ित हुई देवयानी को इनका आश्वासन देना, सहनशीलता की प्रशंसा करते हुए क्रोध का वेग रोकने वालों को परम श्रेष्ठ बतलाना ( आदि० ७९ । १-७) । अधर्म का फल अवश्य प्राप्त होता है— इसे दृष्टान्तपूर्वक वृषपर्वा को समझाना ( आदि० ८० । १-६ ) । इनके द्वारा देवयानी को प्रसन्न करने के लिये वृषपर्वा को आदेश ( आदि० ८० । ९-१२ ) । ययाति के साथ अपने विवाह के लिये इनसे देवयानी की प्रार्थना ( आदि० ८१ । ३०) । ययाति से अपनी पुत्री को ग्रहण करने के लिये कहना ( आदि० ८१ । ३१ ) । धर्म-लोप के भय से भीत हुए ययाति को इनका आश्वासन देना ( आदि० ८१ । ३३ ) । देवयानी के साथ विवाह करने एवं शर्मिष्ठा के साथ दारोचित व्यवहार न करने के लिये ययाति को इनकी आज्ञा ( आदि० ८१ । ३४-३५ ) । इनके द्वारा ययाति को जराग्रस्त होने का शाप ( आदि० ८३ । ३१ ) । फिर उनके प्रार्थना करने पर इनका ययाति को अपनी वृद्धावस्था दूसरे से बदल सकने की सुविधा देना ( आदि० ८३ । ३९ ) । ये देवराज इन्द्र की सभा में विराजमान होते हैं ( सभा० ७ । २२ ) । ग्रहरूप से ब्रह्माजी की सभा में भी उपस्थित होते हैं ( सभा० ११ | २९ ) । ये मेरुपर्वत के शिखर पर दैत्यों के साथ निवास करते हैं। सारे रत्न और रत्नमय पर्वत इन्हीं के अधिकार में हैं । भगवान् कुबेर इन्हीं से धन का चतुर्थ भाग प्राप्त करके उसे उपयोग में लाते हैं ( भीष्म ० ६ । २२-२३ ) । ये शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मजी को देखने के लिये गये थे ( शान्ति० ४७ । ८ ) । महाराज पृथु के पुरोहित बने थे ( शान्ति० ५९ । ११० ) । इन्द्र को श्रेयःप्राप्ति के लिये प्रह्लाद के पास भेजना (शान्ति ० १२४ । २७ ) । ये वानप्रस्थ-धर्म का पालन करके स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं ( शान्ति० २४४ । १७-१८ ) । वृत्रासुर से देवताओं द्वारा पराजित होने पर भी दुखी न होने का कारण पूछना ( शान्ति० २७९ । १५ )। सनत्कुमारजी से वृत्रासुर को भगवान् विष्णु का माहात्म्य बताने के लिये कहना ( शान्ति० २८० । ५) । योगबल से कुबेर के धन का अपहरण करना ( शान्ति० २८९ । १) । भय के कारण सूर्य के उदर में लीन होना ( शान्ति० २८९ । १९-२०)। शिवजी के लिंग से निर्गत होने के कारण इनका शुक्र नाम पड़ना और पार्वतीजी का इन्हें अपना पुत्र स्वीकार करना ( शान्ति० २८९ । ३२- ३५ ) । इनके द्वारा महादेवजी को शाप ( शान्ति० ३४२ । २६ ) । इन्हें तण्डि से शिवसहस्रनाम का उपदेश प्राप्त हुआ था और इन्होंने गौतम को उसका उपदेश दिया ( अनु० १७ । १७७ ) । ये भृगु के सात पुत्रों में से एक हैं ( अनु० ८५ । १२९ ) । बलि के पूछने पर उन्हें पुष्पादि दान का महत्त्व बताना (अनु० ९८ ।१६-६४) महाभारतमें आये हुए शुक्राचार्य के नाम - भार्गव, भार्गवदायाद, भृगुश्रेष्ठ, भृगूद्वह, भृगुकुलोद्वह, भृगुनन्दन, भृगुसूनु, कविपुत्र, कविसुत, काव्य, उशना आदि ।
शुक्ल कूर्म २.४१.६७(शुक्ल तीर्थ का माहात्म्य), गणेश २.२२.३४(विद्रुमा - पति), २.२३.२६(गणेश का शुक्ल के गृह में आगमन, दश भुजाओं से ओदन का भक्षण), गर्ग ७.४०, पद्म ३.१९(शुक्ल तीर्थ की उत्पत्ति व माहात्म्य), ५.७०.६०(पश्चिम द्वार पर स्थित शुक्ल विष्णु का कथन), ब्रह्म २.६३(शुक्ल तीर्थ में हव्यघ्न दैत्य का गङ्गाजल से प्रोक्षण होने पर दैत्य का कृष्ण से शुक्ल होना), भविष्य ३.४.३.१(काश्यप - पुत्र, विष्वक्सेन - पिता, बौद्ध - विजय, वंश वर्णन), मत्स्य १९२(शुक्ल तीर्थ का माहात्म्य), स्कन्द ५.३.१५५(शुक्ल तीर्थ का माहात्म्य, विष्णु के तप से महादेvव का प्राकट्य, चाणक्य राजा की वायसों द्वारा काल वञ्चना, चाणक्य द्वारा सिद्धि प्राप्ति), ५.३.२३१.२३, ६.१२३(शुक्ल तीर्थ का माहात्म्य : रजक द्वारा जलाशय में नीलित वस्त्रों को शुक्ल करने की कथा, श्वेत द्वीप का अंश), ७.३.२३(शुक्ल तीर्थ का माहात्म्य, नीली में प्रक्षिप्त वस्त्रों का शुक्ल होना ), लक्ष्मीनारायण १.५७४, ३.२२२.९शुक्लायन shukla
शुक्ल - कृष्ण वायु १११.५९/२.४९.६९(श्राद्ध करने पर शुक्ल - कृष्ण दो हस्तों के प्रकट होने का वृत्तान्त), ११२.१३/२.५०.१३(राजा विशाल के समक्ष सित, रक्त व कृष्ण रूप पितरों का प्राकट्य), ११२.३५/२.५०.४५(हर शाप से मरीचि का शुक्ल से कृष्ण होना, गया में तप से मुक्ति ) shukla - krishna
शुघ्नी भविष्य ४.६९
शुङ्ग स्कन्द ५.१.३१,
शुचि कूर्म १.१३.१६(अग्नि, सूर्य का रूप - निर्मथ्यः पवमानः स्याद् वैद्युतः पावकः स्मृतः ।। यश्चासौ तपते सूर्यः शुचिरग्निस्त्वसौ स्मृतः ।), गरुड १.८७.५९(१४वें मन्वन्तर में इन्द्र), नारद १.६६.९४(हरि की शक्ति शुद्धि का उल्लेख - समृद्धियुङ्नरकजिच्छुद्धियुक्च हरिः स्मृतः॥),पद्म १.१०, २.१३, ब्रह्म १.१२१.२२(आग्नीध्र - पुत्र, विवाह की अनिच्छा प्रकट करना, पूर्व जन्म का वृत्तान्त), ब्रह्मवैवर्त्त १.८.२३(११ रुद्रों में से एक), ब्रह्माण्ड १.२.१२.३(स्वाहा - पुत्र, सौर अग्नि, हव्यवाह - पिता), भविष्य २.१.१७.११(प्राशन में अग्नि का शुचि नाम), मत्स्य ६.३२(कश्यप - कन्या, धर्म - भार्या, हंस, सारस आदि की माता), १२शुच, ५१.४(अग्नि व स्वाहा - पुत्र, हव्यवाह - पिता, सौर अग्नि का रूप - निर्मथ्यः पवमानोऽग्निर्वैद्युतः पावकात्मजः ॥ शुचिरग्निः स्मृतः सौरः स्थावराश्चैव ते स्मृताः।), विष्णुधर्मोत्तर १.१८९(चतुर्दश मन्वन्तर में इन्द्र), शिव ७.१.१७.३९(निर्मंथ्यः पवमानस्स्याद्वैद्युतः पावकस्स्मृतः ॥ सूर्ये तपति यश्चासौ शुचिः सौर उदाहृतः ॥), स्कन्द ३.१.११(शुचि ब्राह्मण द्वारा सुशीला राक्षसी के संयोग से कपालाभरण राक्षस पुत्र की प्राप्ति), ३.३.७(शुचिव्रत : विप्र - पत्नी उमा का पुत्र, शाण्डिल्य द्वारा शुचिव्रत नामकरण, सुवर्ण कलश की प्राप्ति, प्रदोष व्रत की महिमा), ४.१.२९.१५८(गङ्गा सहस्रनामों में से एक), ४.२.५९(शुच अप्सरा के कारण वेदशिरा मुनि के वीर्य का स्खलन, धूतपापा कन्या का जन्म), हरिवंश २.९२.१२(शुचिमुखी हंसी द्वारा प्रभावती से प्रद्युम्न की प्रशंसा - हंसाः परिचितां चक्रुस्तां ततश्चारुहासिनीम् । सखीं शुचिमुखीं चक्रे हंसीं राजसुता तदा ।।), लक्ष्मीनारायण १.४६६, ३.३२.७(हव्यवाहन अग्नि - पिता ), ३.१६४.८९, द्र. मन्वन्तर, वंश अग्नि, वंश ताम्रा, वंश ध्रुव, shuchi
शुचिश्रवा पद्म ५.७२.६२(कुशध्वज ऋषि - पुत्र, तप, जन्मान्तर में गोकुल में जन्म), ब्रह्माण्ड १.२.१३.९३(अजित देवगण में से एक), वायु ३१.७
शुचिष्मती शिव ३८, स्कन्द ४.१.१०(विश्वानर द्विज - भार्या, वैश्वानर पुत्र की उत्पत्ति), shuchishmati
शुचिष्मान् स्कन्द ४.१.१२(कर्दम प्रजापति - पुत्र, शिशुमार द्वारा हरण, शिवगण द्वारा रक्षा, लिङ्ग स्थापना, वरुण पद की प्राप्ति),
शुचिस्मिता पद्म ५.१०५+
शुद्ध अग्नि ३३(भूत शुद्धि विधान), ७४.१६(भूत शुद्धि विधि), १५६(यज्ञपात्र, गृहादि की शुद्धि), गरुड १.२३(भूत शुद्धि विधि), १.९७(द्रव्य शुद्धि विधि), देवीभागवत ७.३०(कपालमोचन तीर्थ में देवी का नाम), ११.८(भूत शुद्धि का वर्णन), पद्म १.२१(शुद्ध नामक स्वर्णकार द्वारा स्वर्णमयी देव प्रतिमा के निर्माण से जन्मान्तर में राजा बनना), ५.७८(वैष्णव की शुद्धि, भक्ति रूप), ५.११४.८२(शिव पूजा से पूर्व भूत शुद्धि विधि का कथन), ब्रह्म १.११३(द्रव्य व प्राणी शुद्धि), भविष्य १.१८६(द्रव्य शुद्धि), भागवत ११.२१.१४(द्रव्य व प्राणी शुद्धि), लिङ्ग १.८९.५६(पात्र व द्रव्य शुद्धि), वायु ७८.५०(विभिन्न द्रव्यों की शुद्धि का विधान), विष्णुधर्मोत्तर २.७९(द्रव्य, प्राणी आदि की शुद्धि), शिव ५.२३.१, स्कन्द ४.१.४०(द्रव्य व प्राणी शुद्धि), ५.३.१७३(शुद्धेश्वर तीर्थ का माहात्म्य, वाराणसी में रुद्र हस्त से ब्रह्मा के शिर/कपाल का मोचन, नर्मदा तट पर शुद्धेश्वर तीर्थ में ब्रह्महत्या से मुक्ति), ५.३.१९८.८५, ६.२०१(विदेश प्रवास के उपरान्त भर्तृयज्ञ - प्रोक्त शुद्धि), ६.१२३(शुद्धक रजक द्वारा ब्राह्मणों के वस्त्रों का नीली में प्रक्षेप, पुन: शुक्ल जलाशय में शुक्लीकरण), ६.२१३(कृष्ण द्वारा साम्ब को स्वमाता से रति पाप की शुद्धि हेतु तिङ्गिन्या नामक शुद्धि का कथन ), लक्ष्मीनारायण १.४९.७८(द्रव्य शुद्धि विधान), ३.४७.७०, कथासरित् १२.१३.८शुद्धपा, द्र. द्रव्यशुद्धि, भूतशुद्धि shuddha
शुद्धोदन स्कन्द ५.३.१५५.२५,
शुनक नारद १.४६.४३(शुनक द्वारा केशिध्वज को खाण्डिक्य से धेनु मरण का प्रायश्चित्त जानने का निर्देश), ब्रह्म १.९.३४(गृत्समद - पुत्र, शौनक - पिता), स्कन्द १.२.९.७७(शुनक गोत्र के ऋषियों के गुण), shunaka
शुनहोत्र ब्रह्म १.९.३२(सुनहोत्र : क्षत्रवृद्ध-पुत्र, काश्य, शल्ल व गृत्समद-पिता)
शुनादेवी वायु ८४.६(समुद्र - कन्या, वरुण - भार्या )
शुन: अग्नि २६४.२५(शुन: को पिण्ड प्रदान हेतु मन्त्र : विवस्वत: कुले जातौ इति), गरुड ३.२२.८१(शुनः में भूतभावन की स्थिति का उल्लेख), पद्म ५.१०६.९८(दीप के आज्य भक्षण से ब्राह्मण द्वारा श्व योनि प्राप्ति की कथा), ६.७७.४६(शुनी के पूर्व जन्म का वृत्तान्त : रजस्वला स्थिति में श्राद्धादि करने पर शुनी बनना), ६.१८८(शुनी द्वारा शश का पीछा, पङ्क में गिरने पर दिव्य रूप की प्राप्ति, गीता के १४वें अध्याय का माहात्म्य), ७.२१.४१(विप्र पादोदक स्पर्श से भषक के मुक्त होने का कथन, भषक के पूर्व जन्म का वृत्तान्त), भविष्य १.१८४.४८(शुन: दंशन पर प्रायश्चित्त का कथन), शिव ५.१०.३३(श्वानों व वायसों को अन्न दिए बिना खाने पर दोष का कथन; श्याम व शबल के यम मार्ग अवरोधक होने का उल्लेख), स्कन्द २.७.२४(शुनी का पूर्व जन्म में दुष्ट चरित्रा नारी होना, द्वादशी के पुण्य दान से शुनी की मुक्ति), ७.१.२५५, महाभारत शान्ति ११६+, ११६.१३(मुनि द्वारा भयभीत श्वान को द्वीपी, व्याघ्र, हस्ती, सिंह, शरभ बनाना, अन्त में शरभ को पुन: श्वान बनाना), १४१.४१(विश्वामित्र द्वारा श्व जाघनी हरण के संदर्भ में श्वपच - विश्वामित्र संवाद), लक्ष्मीनारायण १.४३३, १.५६०, १.५७३.३२(शिव को पूजने और पार्वती को न पूजने से विप्रों के शुन: होने का कथन ), कथासरित् २.५.१४२(सती द्वारा विषयलोलुप वणिक्पुत्रों को अयोमय शुन:पाद खं अंकित करने की कथा ) shunah
शुन:मुख स्कन्द ६.३२(शुन:मुख रूपी शक्र द्वारा सप्तर्षियों के बिसों की चोरी, चोरी पर शुन:मुख आदि की प्रतिक्रिया), ७.१.२५५(शुन:मुख द्वारा सप्तर्षियों के बिस तन्तुओं की चोरी पर प्रतिक्रियाएं ), द्र. शुन:सख shunahmukha
शुन:शेप देवीभागवत ६.१३(हरिश्चन्द्र के यज्ञ में विश्वामित्र द्वारा शुन:शेप की रक्षा की कथा), ७.१६+ (विश्वामित्र द्वारा शुन:शेप की यज्ञपशुत्व से मुक्ति की कथा), ब्रह्म १.८.६६(शुन:शेप द्वारा देवरात नाम की प्राप्ति), २.३४(अजीगर्त - पुत्र शुन:शेप की हरिश्चन्द्र के यज्ञ के यज्ञ पशु के रूप में कल्पना, विश्वामित्र का पुत्र बनना), २.८०, भागवत ९.१६ स्कन्द ३.१.२३.२९(शुन:शेप के यज्ञ में आग्नीध्र ऋत्विज बनने का उल्लेख), ६.२७८, हरिवंश १.२७.५४(ऋचीक - पुत्र शुन:शेप का विश्वामित्र - पुत्र बनना, देवरात नाम प्राप्ति), वा.रामायण १.६१(ऋचीक - पुत्र, अम्बरीष के यज्ञ में यज्ञपशु बनना, विश्वामित्र द्वारा रक्षा), लक्ष्मीनारायण १.४९८.४१(पाप से गति के अवरुद्ध न होने वाले ४ पतिव्रताओं के पतियों में से एक ) shunahshepa शुन:सख पद्म १.१९(सप्तर्षियों की मृणाल चोरी पर शुन:सख की प्रतिक्रिया), द्र शुन:मुख |