पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Shamku - Shtheevana) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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Puraanic contexts of words like Shaalaa, Shaaligraama, Shaalmali, Shaalva, Shikhandi, Shipraa, Shibi, Shilaa / rock etc. are given here. शाला नारद १.५६.५८१, ब्रह्माण्ड १.२.७.११९(शाला का वृक्ष की शाखाओं से साम्य), ३.४.३१.६६(कांस्य, ताम्र, आरकूट, लौह, रौप्य, हेम शालाएं), ३.४.३३(गोमेद शाला), ३.४.३३(सुवर्ण, पुष्पराग, पद्मराग, गोमेदक, वज्र आदि शालाएं), ३.४.३४(मरकत, मुक्ता, विद्रुम शालाएं),३.४.३५(अहंकार शाला), ३.४.३५(चन्द्र बिम्ब शाला), ३.४.३५(बुद्धि शाला), ३.४.३५(मन, बुद्धि, अहंकार, सूर्यबिम्ब, चन्द्रबिम्ब शालाएं), मार्कण्डेय ४९.५३(कल्पवृक्ष की शाखाओं के अनुसार शालाओं की कल्पना), वायु ८.१२६(वृक्ष की शाखाओं का रूप), स्कन्द १.२.५३(नारद द्वारा स्थापित त्रिपुरुष शाला का माहात्म्य ), लक्ष्मीनारायण १.२०९.४७, १.४४१.९२, २.११०.२शालावती, २.२१०.५९, २.२९०, ३.१८७.६९(धर्मशालायन , द्र. हेमशाला shaalaa/ shala
शालि स्कन्द ५.३.२६.१४६ शालिग्राम अग्नि ४६(शालिग्राम शिला के लक्षण ; लक्षणों के अनुसार देव संज्ञा), ४७(शालिग्राम विग्रह की पूजा का वर्णन), गरुड १.४५(शालिग्राम शिला के लक्षणों का वर्णन), १.६६(शालिग्राम शिला के लक्षण), देवीभागवत ९.२४.५६(शालिग्राम शिला में चिह्न अनुसार देवताओं के लक्षण), पद्म २.५.१३(सोमशर्मा द्वारा शालग्राम क्षेत्र में प्राणत्याग से प्रह्लाद रूप में जन्म लेना - मृत्युकाले तु संप्राप्ते प्राणयात्रा प्रवर्तिनः । शालिग्रामे महाक्षेत्रे ऋषीणां मानवर्द्धने।), ३.३१.११८(शालिग्राम शिला का माहात्म्य), ५.२०(शालिग्राम शिला की गण्डकी में उपस्थिति, पिशाच का उद्धार), ५.७८(शालिग्राम शिला के लक्षण, रूप), ६.२३.४३(शालग्रामशिला यत्र तत्र संनिहितो हरिः। तत्र स्नानं च दानं च वाराणस्यां शताधिकम्॥), ६.८२.१२(शालग्रामशिला यत्र यत्र द्वारवती शिला । उभयोः संगमो यत्र मुक्तिस्तत्र न संशयः॥), ६.१२०(शालिग्राम शिला का माहात्म्य, शिला में देवों के लक्षण), ६.१३१(शालिग्राम शिला का माहात्म्य), ब्रह्मवैवर्त्त २.२१.५९(वज्रकीटाश्च कृमयो वज्रदंष्ट्राश्च तत्र वै । तच्छिलाकुहरे चक्रं करिष्यन्ति मदीयकम।।), २.२७.९ (शालिग्राम दान का फल - यो ददाति ब्राह्मणाय शालिग्रामं सवस्त्रकम् ।। महीयते स वैकुण्ठे यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।।), भविष्य १.१५६(शालग्राम में हरि द्वारा चक्राकार महद्व्योम की पूजा, सूर्य द्वारा वरदान - पूजयन्तं महद्व्योम चक्राकारमनौपमम्।), ३.४.६.४७(तिमिरलिङ्ग द्वारा शालग्रामशिलाओं से सिंहासनारोहण का निर्माण), मत्स्य १३.३३(शालिग्राम में देवी का महादेवी नाम से वास), वराह १४४, १४५.३१(साल वृक्ष का माहात्म्य, शालिग्राम क्षेत्र का माहात्म्य, शालिग्राम के अन्तर्गत तीर्थ), विष्णु २.१.३५(भरत द्वारा शालग्राम में प्राणत्याग का उल्लेख - योगाभ्यासरतः प्राणान् शालग्रामेऽत्यजन्मुने । अजायत च विप्रोऽसौ योगिनां प्रवरे कुले ।।), विष्णुधर्मोत्तर ३.१२१.३(शालिग्राम क्षेत्र में त्रिविक्रम की पूजा का निर्देश), शिव २.५.४१.४९(शालग्रामशिला सा हि तद्भेदादतिपुण्यदा। लक्ष्मीनारायणाख्यादिश्चक्रभेदाद्भविष्यति ।।), स्कन्द २.४.२.५२टीका(शालिग्राम शिला दान का माहात्म्य, धर्माचार वैश्य की कथा, शिला के वर्ण अनुसार फल), ५.३.१८८(शालिग्राम तीर्थ का माहात्म्य), ५.३.१९८.७१(शालग्राम में देवी के महादेवी नाम का उल्लेख), , ६.२४३+ (शालिग्राम शिला का पूजन, गालव द्वारा पैजवन शूद्र को परामर्श, शालिग्राम के भेदों का वर्णन ), ६.२५१(चतुर्विंशतिभेदेन पुराणज्ञैर्निरीक्षितः । मुखे जांबूनदं चैव शालग्रामः प्रकीर्तितः ॥) , लक्ष्मीनारायण १.३३७.१०७(तुलसी के शाप से विष्णु का शालग्राम संज्ञक पाषाण बनना), २.२७१.७२(चैत्यब्रह्मद्विज कृत शालग्रामतीर्थ), ३.२२.९२(पूजनं मे वृषणयोः शालग्रामस्वरूपयोः । कुर्वन्तु तेन शान्तिर्वै भविष्यत्यनलस्य ह ।।), shaaligraama/ shaligrama Comments on Shaligrama by Dr. Kalyanaramana https://www.academia.edu/60180130/ शालिवाहन भविष्य ३.३.२
शालिहोत्र अग्नि २९२.४४(शालिहोत्र द्वारा सुश्रुत को अश्व आयुर्वेद का उपदेश), पद्म ३.२६.१०२(शालिहोत्र तीर्थ का माहात्म्य ), भविष्य ३.४.१, शिव ३.५, shaalihotra/ shalihotra
शालीन भागवत ३.१२.४२(ब्रह्मा से उत्पन्न गृहस्थ वृत्तियों में से एक, द्र. टीका)shaaleena/ shalina
शालूकिनी वामन ६४.३
शाल्मलि अग्नि ११९.७(शाल्मलि द्वीप का वर्णन), कूर्म १.४९.१३(शाल्मलि द्वीप का वर्णन), गरुड १.५६(शाल्मलि द्वीप पर वपुष्मान् व उसके ७ पुत्रों का आधिपत्य), २.२२.६०(शाल्मलि द्वीप की त्वचा में स्थिति), देवीभागवत ८.४(शाल्मलि द्वीप का यज्ञबाहु राजा), ८.१२(शाल्मलि द्वीप का वर्णन, शाल्मलि द्वीप की महिमा), ८.२२.३७(नरक का नाम), नारद १.६६.१०७(सूक्ष्मेश की शक्ति शाल्मलि का उल्लेख), ब्रह्मवैवर्त्त २.३१.११(महावेश्या गामी के शाल्मलि तरु बनने का उल्लेख), ब्रह्माण्ड १.२.१४.३१(शाल्मलि द्वीप के जनपदों व वर्षों के नाम), १.२.१९.३२(शाल्मलि द्वीप का वर्णन), भविष्य ३.४.२४.७८(द्वापर के द्वितीय चरण में शाल्मलि द्वीप में नरों की स्थिति), मत्स्य १२२.९१(शाल्मलि द्वीप का वर्णन), लिङ्ग १.५३.५(शाल्मलि द्वीप के पर्वत), वराह ८९, वामन ९०.४३(शाल्मलि द्वीप में विष्णु का वृषभध्वज नाम), वायु ४९.३०(शाल्मलि द्वीप के अन्तर्गत पर्वतों व नदियों के नाम), विष्णु २.४.२२(शाल्मलि द्वीप का वर्णन), स्कन्द ५.३.८५.७२(षट्कर्मनिरत द्विज के शाल्मली नाव तुल्य होने का उल्लेख), ५.३.१५५.७५(नरक में अग्निपुञ्ज आकार वाले शाल्मली का उल्लेख), ५.३.१५५.१०३(परदाररतों के जलती हुई, आयसी, कण्टकों से घिरी शाल्मली में अवगूहन का उल्लेख), योगवासिष्ठ ६.१.१२०.२३(शाल्मलि की देह से उपमा),६.२.१६.८(दुःख रूपी शाल्मलि), महाभारत शान्ति १५४(नारद से वार्तालाप में शाल्मलि की गर्वोक्ति, वायु के प्रकोप से बचने के लिए स्वयं ही अपनी शाखाएं आदि गिराना आदि), १५५, लक्ष्मीनारायण २.२१६.५१(शाल्मलि वृक्ष द्वारा वायु की पराभव का वृत्तान्त ), कथासरित् १२.४.५९(मन्त्री भीमपराक्रम द्वारा शाल्मलि वृक्ष के मूल से उत्थित गणेश प्रतिमा के निकट स्थित होने का कथन), द्र. द्वीप shaalmali/ shalmali
शाल्व गर्ग ६.६.३०(कृष्ण व रुक्मिणी विवाह में शाल्व का बलराम - अनुज गद से युद्ध), ७.१३(राजपुर का राजा, प्रद्युम्न से पराजय), १०.२४(शाल्व - भ्राता अनुशाल्व द्वारा अनिरुद्ध सेना से युद्ध व पराजय), देवीभागवत १.२०.४५(काशिराज - कन्या अम्बा की शाल्व पर आसक्ति, भीष्म के कारण त्याग), नारद १.५६.७४२(शाल्व देश के कूर्म के पादमण्डल होने का उल्लेख), भागवत १०.७६+ (शाल्व द्वारा तप, सौभ विमान की प्राप्ति, द्वारका पर आक्रमण, माया से वसुदेव का निर्माण, कृष्ण द्वारा चक्र से शाल्व का वध), वामन ६९.५४(अन्धक - सेनानी, सूर्य से युद्ध), ९१, शिव ३.४शाल्वल, ३.३१, स्कन्द ३.३.६, हरिवंश २.४९(रुक्मिणी स्वयंवर प्रसंग में शाल्व द्वारा कृष्ण के प्रभाव का कथन), २.५२+ (शाल्व का कालयवन के पास जरासन्ध का दूत बनकर जाना), ३.१०४.१, महाभारत कर्ण ४५.३५(शाल्व निवासियों की कृत्स्नानुशासन विशेषता का उल्लेख ) shaalva/ shalva
शाव देवीभागवत ७.८शावन्त, मत्स्य १४५.९५(शाव द्वारा सत्य के प्रभाव से ऋषिता प्राप्ति का उल्लेख ), लक्ष्मीनारायण २.२९+शावदीन shaava/ shava
शासन द्र. दु:शासन, पाकशासन
शास्ता द्र. महाशास्ता
शास्त्र पद्म ६.२३६, विष्णुधर्मोत्तर ३.७३(शास्त्र के अधिदेवता, शास्त्र की मूर्ति का रूप), स्कन्द ५.३.३८.६३, योगवासिष्ठ ३.८, ६.२.१९७(शास्त्रों की निरर्थकता या सार्थकता का प्रश्न : काष्ठदारकों द्वारा चिन्तामणि प्राप्ति का दृष्टान्त ), कथासरित् १०.३.२१शास्त्रगञ्ज, shaastra/ shastra
शास्त्री ब्रह्माण्ड ३.४.७.७२(महाशास्त्री : मधु अर्पण करने योग्य मातृकाओं में से एक ) shaastree/ shastri
शाहविलापन? लक्ष्मीनारायण ४.६५
शिंशपा पद्म १.२८(शिंशपा वृक्ष अप्सराओं को प्रिय होने का उल्लेख), ६.२२२.२(शिंशपा तरु की काशी के प्रभाव से मुक्ति, पूर्व जन्म में श्रवण - पत्नी कुण्डा), लक्ष्मीनारायण १.५४३.७८(दक्ष द्वारा विश्वेदेवों को प्रदत्त ८ कन्याओं में से एक), ३.२३.६४(सूर्यवर्चा नृप हेतु कृष्ण द्वारा शिंशपा वृक्ष के स्तम्ब में स्वयं को प्रकट करने का वृत्तान्त ), कथासरित् १२.३.५८, १२.८.४७, १२.२८.१, shinshapaa/ shimshapaa
शिंशुमार द्र. शिशुमार
शिक्षा अग्नि ३३६(वर्णमाला के अक्षरों का निरूपण ) shikshaa
शिखण्ड-छत्रक ( भुइँफोड़), जो वृत्रासुरके रक्त से उत्पन्न हुआ है । यह ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों के लिये अभक्ष्य है (शान्ति० २८२। ६०)। शिखण्डी कूर्म १.१४.२२(पृथु व अन्तर्धाना - पुत्र?, सुशील - पिता), देवीभागवत ४.२२.३८(राक्षस का अंश - पावकांशो धृष्टद्युम्नः शिखण्डी राक्षसस्तथा ॥), भविष्य २.१.१७.९(अस्थिदाह में अग्नि का शिखण्डी नाम), ३.३.९.२१(शिखण्डी का रूपण रूप में अवतार), लिङ्ग १.२४.८७(१८वें द्वापर में मुनि, पुत्रों के नाम), वायु २३.१८१/१.२३.१७१(१८वें द्वापर में शिव अवतार, पुत्रों के नाम), शिव ३.१.३५(ईशान शिव द्वारा सृष्ट ४ बालकों (जटी, मुण्डी, शिखण्डी, अर्द्धमुण्ड) में से एक), ३.५.२०(१८वें द्वापर में शिव अवतार), स्कन्द ५.३.८३.४९(शिखण्डी नृप की कन्या द्वारा अपने पूर्व जन्म के पति की अस्थियों को हनूमन्तेश्वर तीर्थ में क्षेपण की कथा), ७.१.२४.१६० (शिखण्डी गन्धर्व गण द्वारा रूप गर्व युक्त गन्धर्व कन्या को कुष्ठ प्राप्ति का शाप), ७.१.५४.३(वही), ७.१.९१.२(शिखण्डीश : त्र्यम्बक लिङ्ग का त्रेतायुग में नाम ), महाभारत शान्ति ३३५.२७(मरीचि, अत्रि आदि ७ चित्र शिखण्डी ऋषियों द्वारा शास्त्र रूप प्रमाण रचना का कथन), shikhandee/ shikhandi शिखण्डी-राजा द्रुपद का पुत्र, जो पहले शिखण्डिनी नामवाली कन्या के रूप में उत्पन्न होकर पीछे पुत्ररूप में परिणत हो गया था। स्थूणाकर्ण नामक यक्ष ने इसका प्रिय करने की इच्छा से इसे पुरुष बना दिया था (आदि० ६३। १२५/६४.१६७)। यह राक्षस के अंश से उत्पन्न हुआ था (शिखण्डिनमथो राजंस्त्रीपूर्वं विद्धि राक्षसम्।। -आदि० ६७। १२६ )। उपप्लव्य नगर में अभिमन्यु के विवाहोत्सव में सम्मिलित हुआ था (विराट० ७२ । १७)। इसने उलूक को दुर्योधन के संदेश का उत्तर दिया था (तमहं पातयिष्यामि रथात्तव पितामहम्।अहं भीष्मवधात्सृष्टो नूनं धात्रा महात्मना ।। - उद्योग० १६३ । ४३-४५) । इसका द्रुपद के यहाँ उनकी मनस्विनी रानी के गर्भ से पुत्रीरूप में जन्म । माता-पिता द्वारा इसके पुत्रीभाव को छिपाकर पुत्र होने की घोषणा तथा इसके पुत्रोचित संस्कारों का सम्पादन ( उद्योग. १८८ । ९--१९)। इसे लेखन और शिल्पकला की शिक्षा का प्राप्त होना । माता-पिता का परस्पर सलाह करके इसका दशार्णराज की कन्या के साथ विवाह कर देना (उद्योग० १८९ । १-१३)। दशार्णराज की कन्या का शिखण्डी के स्त्रीत्व का पता लगने पर अपनी धायों और सखियों को इसकी सूचना देना और धायों का दशार्णराज तक यह समाचार पहुँचाना । दशार्णराज का कुपित होना । शिखण्डी का राजकुल में पुरुष की भाँति घूमना-फिरना तथा दशार्णराज का दूत भेजकर कन्या को पुत्र बताकर धोखा देने के अपराध में द्रुपद को जड़मूलसहित उखाड़ फेंकने की धमकी देना ( उद्योग० १८९ । १३-२३ )। हिरण्यवर्मा के भय से घबराये हुए द्रुपद का अपनी महारानी से संकट से बचने का उपाय पूछना । द्रुपदपत्नी का कन्या को पुत्र घोषित करने का उद्देश्य बताना। राजा के द्वारा नगर की रक्षा की व्यवस्था और देवाराधन । शिखण्डी का वन में प्राण त्याग देने की इच्छा से वन में जाना, स्थूणाकर्ण यक्ष के भवन में तपस्या करना, यक्ष का इसे वर माँगने के लिये प्रेरित करना तथा शिखण्डिनी का अपने माता-पिता पर आये हुए संकट के निवारण के लिये पुरुषरूप में परिणत हो जाने के लिये इच्छा प्रकट करना ( उद्योग. १९१ अध्याय)। स्थूणाकर्ण का पुनः लौटाने की शर्त पर कुछ काल के लिये इसे अपना पुरुषत्व प्रदान करना । शिखण्डी का नगर में आकर पिता तथा राजा हिरण्यवर्मा को अपने पुरुषत्व का विश्वास दिलाकर संतुष्ट करना (उद्योग १९२ । १-३२ )। शिखण्डी का पुरुषत्व लौटाने के लिये यक्ष के पास जाना और यक्ष का अपने को स्त्रीरूप में ही रहने का शाप प्राप्त हुआ बताकर इसे लौटा देना (उद्योग० १९२ । ५३-५७)। द्रोणाचार्य से अस्त्रशिक्षा की प्राप्ति ( उद्योग० १९२ । ६०-६१)। प्रथम दिन के संग्राम में अश्वत्थामा के साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म ४५। ४६-४८) । द्रोणाचार्य के भय से इसका युद्ध से हट जाना ( भीष्म० ६९ । ३१) । अश्वत्थामा के साथ युद्ध और उनसे पराजित होना (भीष्म० ८२ । २६-३८)। शल्य के अस्त्र को दिव्यास्त्र द्वारा विदीर्ण करना ( भीष्म ८५ । २९-३०)। भीष्म को उत्तर देना और उनको मारने के लिये प्रयत्न करना (भीष्म० १०८ । ४५-५०)। अर्जुन के प्रोत्साहन से इसका भीष्म पर आक्रमण (भीष्म ११०।१-३)। भीष्म पर धावा (भीष्म० ११४ । ४०)। अर्जुन के प्रोत्साहन से भीष्म पर आक्रमण (भीष्म ११७ ॥ १-७) । अर्जुन से सुरक्षित होकर भीष्म पर धावा करना (भीष्म० ११८ । ४३)। भीष्म पर प्रहार (भीष्म० ११९ । ४३-४४) । धृतराष्ट्र द्वारा इसके गुणों का कथन – स्त्री-पुरुष के गुणावगुणों को जानने वाला(द्रोण० १० । ४५-४६)। भूरिश्रवा के साथ इसका युद्ध (द्रोण० १४ । ४३-४५)। इसके रथ के घोड़ों का कथन - आमपात्रसदृश (आमपात्रनिकाशास्तु पाञ्चाल्यममितौजसम्। दत्तास्तुम्बुरुणा दिव्याः शिखण्डिनमुदावहन्।।- द्रोण० २३। १९-२०)। विकर्ण के साथ युद्ध (द्रोण० २५ । ३६-३७ )। बाह्रीक के साथ युद्ध (द्रोण. ९६ । ७-१०)। कृतवर्मा के साथ युद्ध और उसके द्वारा इसकी पराजय (द्रोण० ११४ । ८२-९७)। कृपाचार्य द्वारा पराजय (द्रोण० १६९ । २२-३२)। कृतवर्मा के साथ युद्ध में इसका मूञ्छित होना ( कर्ण० २६ । २६-३७ )। कृपाचार्य से पराजित होकर भागना (कर्ण० ५४।१-२३)। कर्ण द्वारा इसकी पराजय (कर्ण० ६१।७-२३)। प्रभद्रकों की सेना साथ लेकर इसका कृतवर्मा और महारथी कृपाचार्य के साथ युद्ध (शल्य०१५।७)। द्रोणपुत्र अश्वत्थामा को आगे बढ़ने से रोकना (शल्य० १६ । ६)। अश्वत्थामा द्वारा इसको असि से द्वेधा विभाजित करने का उल्लेख (शिखण्डिनं समासाद्य द्विधा चिच्छेद सोसिना। - सौप्तिक० ८ । ६५)। .
शिखण्डिनी अग्नि १८.१९(अन्तर्धान - पत्नी, हविर्धान – माता - शिखण्डिनी हविर्धानमन्तर्धानात्व्यजायत ॥), भागवत ४.२४.३(अन्तर्धान - पत्नी, पावन आदि अग्नियों की माता - अन्तर्धानगतिं शक्रात् लब्ध्वान्तर्धानसंज्ञितः । अपत्यत्रयमाधत्त शिखण्डिन्यां सुसम्मतम् ॥), मत्स्य ४.४५(अन्तर्द्धान व शिखण्डिनी से मारीच के जन्म का उल्लेख - अन्तर्धानस्तु मारीचं शिखण्डिन्यामजीजनत्।), द्र. वंश पृथु shikhandinee/ shikhandini शिखण्डिनी-राजा द्रुपद की कन्या, जो आगे चलकर पुरुषरूप में परिणत हो गयी थी। पुरुषरूप में इसका नाम शिखण्डी था ( उद्योग० १८८ । ४-१४; उद्योग १९१ । १)।
शिखर स्कन्द १.१.७.३३(श्रीशैल में शिखरेश्वर लिङ्ग की स्थिति का उल्लेख ), कथासरित् ११.१.७५ shikhara
शिखा पद्म ६.१०९.३०(चोल नृप के गुरु मुद्गल द्वारा असफलता पर अपनी शिखा के उत्पाटन का कथन), भविष्य २.१.१७.१३(शिखा में विभु नामक अग्नि का वास ), लक्ष्मीनारायण ३.२०६.११(तिलकरंग वनपाल तथा पत्नी शिखादेवी द्वारा आगन्तुक भक्त की सेवा से मोक्ष प्राप्ति का वृत्तान्त), द्र. अग्निशिखा, त्रिशिख, पञ्चशिख, रूपशिख, विद्युत्शिख, हरिशिख shikhaa
शिखि नारद १.६६.११६(शिखीश की शक्ति कुजनी का उल्लेख), स्कन्द ४.२.७०.७०(शिखी देवी का संक्षिप्त माहात्म्य), पद्म १.४६.८१शिखिपट्टिका, द्र. भूगोल, वंश ध्रुव,
शिखिध्वज योगवासिष्ठ ६.१.७७, ६.१.९३+, ६.१८४, ६.१.९३, ६.१.११०,
शितिपाद ५.२.३४.१८,
शिनि स्कन्द ५.२.७७(शिनि द्वारा पुत्रार्थ तप, वीरक शिवगण की पुत्र रूप में प्राप्ति),
शिपिविष्ट भागवत ४.१३.३५ ( पुत्र हेतु शिपिविष्ट विष्णु को पुरोडाश अर्पित करने का उल्लेख - पुरोडाशं निरवपन् शिपिविष्टाय विष्णवे ॥ तस्मात्पुरुष उत्तस्थौ हेममाल्यमलाम्बरः ।), ८.१७.२६(नमस्ते पृश्निगर्भाय वेदगर्भाय वेधसे । त्रिनाभाय त्रिपृष्ठाय शिपिविष्टाय विष्णवे ॥ ) महाभारत शान्ति ३४२.७१( शिपिविष्ट शब्द की निरुक्ति – हीनरोमा, सबका आवेष्टन करने वाला - शिपिविष्टेति चाख्यायां हीनरोमा च यो भवेत्। तेनाविष्टं तु यत्किंचिच्छिपिविष्टेति च स्मृतः।।)
शिप्रा स्कन्द ५.१.३.१६, ५.१.२०(शिप्रा में स्नान के पश्चात् ढुण्ढेश्वर के दर्शन का माहात्म्य), ५.१.२८.५७, ५.१.४९.१९(विष्णु की अङ्गुलि पर त्रिशूल प्रहार से उत्पन्न रस से शिप्रा की उत्पत्ति, शिप्रा का माहात्म्य), ५.१.५०.४३, ५.१.५१(अमृत की पुन: प्राप्ति के लिए नागों द्वारा शिप्रा में स्नान, अमृतोद्भवा नाम), ५.१.५२.५३(यज्ञ वराह के ह्रदय से शिप्रा के जन्म का कथन), ५.१.५२.६६(शिप्रा के साथ क्षिप्र शब्द का उल्लेख), ५.२.१४(शिप्रा में कालकूट विष को वहन करने की सामर्थ्य), ५.२.७१.६९(शिप्रा का प्राची/सरस्वती से तादात्म्य ), कथासरित् ५.१.१४२, shipraa
शिबि गरुड १.८७.१६(तामस मन्वन्तर में इन्द्र), पद्म १.६.४२(प्रह्लाद - पुत्र), १.३४(ब्रह्मा के यज्ञ में प्रतिस्थाता), ६.१९९, ६.२२२, ब्रह्म १.११, भागवत ४.१३.१५, मत्स्य ६, ४२(शिबि द्वारा ययाति को स्व पुण्यों के दान का प्रस्ताव, शिबि आदि में स्वर्ग गमन की प्रतिस्पर्द्धा), वायु ९९.२१(उशीनर शिबि : उशीनर व दृषद्वती - पुत्र, शिबि के पुत्रों के नाम), विष्णुधर्मोत्तर १.१७९(चतुर्थ मन्वन्तर में इन्द्र), स्कन्द ६.९०(उशीनर शिबि द्वारा वसुधारा से अग्नि की तृप्ति), महाभारत कर्ण ४५.३५(शिबि निवासियों की विषम विशेषता का उल्लेख), लक्ष्मीनारायण २.१२४, २.१२६.१९(थर्कूट राज्य के राजा शिबि द्वारा यज्ञ करने आदि का वर्णन ), २.१८८.१९, ३.७४.५४, कथासरित् १.७.८८, १६.३.१७, द्र. मन्वन्तर, वंश ध्रुव, वंश संह्राद, shibi
शिबिका नारद १.४८, २.२२.७९, पद्म ६.२०४(रुग्ण शरभ वैश्य का शिबिका पर आरूढ होना, विकट राक्षस द्वारा शिबिका वाहकों का भक्षण), ब्रह्मवैवर्त्त २.२७.१७(शिबिका दान से विष्णु लोक की प्राप्ति), मार्कण्डेय ७८.१८/७५.१८(सूर्य के कर्तित तेज से कुबेर की शिबिका आदि के निर्माण का उल्लेख), विष्णु २.१३.६५, वा.रामायण ४.२५(वाली के अन्तिम संस्कार हेतु निर्मित शिबिका ) shibikaa
शिम्बी पद्म ४.२१.२७(शिम्बी के पापकर होने का उल्लेख )
शिर गरुड २.२२.५९(शिर में क्रौञ्च द्वीप की स्थिति), नारद १.६६.१११(शिरोत्तम की शक्ति युक्ति का उल्लेख ), स्कन्द ५.३.८३.१०५, shira
शिरा ब्रह्माण्ड २.३.६.७(महाशिरा : दनु व कश्यप के प्रधान पुत्रों में से एक), वायु ६८.७/२.७.७(वही), द्र. त्रिशिरा, पञ्चशिरा, मृगशिरा, वेदशिरा, शङ्कुशिरा, स्थूलशिरा, हयशिरा shiraa
शिरीष भविष्य १.१९३.११(शिरीष की दन्तकाष्ठ की महिमा), विष्णुधर्मोत्तर १.१३५.४३, स्कन्द ७.१.१७(शिरीष की दन्तकाष्ठ का महत्त्व ), लक्ष्मीनारायण १.४४१.९६, shireesha/ shirisha
शिल पद्म ६.८१(शिलोच्छ वृत्तिधारी पुरुष द्वारा सिद्ध से गङ्गा माहात्म्य का श्रवण ), भागवत ११.१७.४१, महाभारत अनुशासन २६.१९शिलोच्छवृत्ति, योगवासिष्ठ ६.२.१६६ shila
शिला अग्नि ४१(शिला न्यास विधि), ४३.१२(प्रतिमा हेतु शिला के लक्षणों का कथन), ९२(शिलाओं के प्रकार, पूजा विधि, शिला में महाभूतों का न्यास), ९४(पांच प्रकार की शिलाओं की अर्चना), ११४.१० (मरीचि - पत्नी धर्मव्रता के शिला बनने की कथा), गरुड १.८६(गया माहात्म्य प्रसंग में प्रेत शिला की महिमा), ३.२६.९३(सीताराम शिला का माहात्म्य), ३.२६.१०८(पट्टाभिराम शिला का माहात्म्य), देवीभागवत ९.२४, ब्रह्म १.७९, ब्रह्माण्ड २.३.१३.४३(जातवेद शिला), नारद २.६७.१०(बदरी तीर्थ में स्थित नारद, गरुड आदि पांच शिलाओं का माहात्म्य), भविष्य ३.३.२१.२०(मकरन्द द्वारा धर्म से शिला अश्व की प्राप्ति), ३.४.६(शालिग्राम शिला), मत्स्य १३, १५७, वराह ८१६, १८२(शाल प्रतिमा प्रतिष्ठापन विधि), वायु १०६.२७, १०६.४६(गयासुर के शीर्ष पर धारित शिला का चलायमान होना, गदाधर की गदा से स्थिर होना), १०७+ (मरीचि - पत्नी धर्मव्रता का पति के शाप से शिला बनना, शिला की गयासुर के शीर्ष पर स्थिति, शिला की महिमा), १०८(शिला के हस्त, पादादि पर विभिन्न पर्वतों की स्थिति), विष्णुधर्मोत्तर ३.९०(शिला परीक्षा), ३.९४(शिला न्यास), शिव १.१८.४९(शिला लिङ्ग के शूद्रों द्वारा पूजित होने तथा शुद्धिकर होने का उल्लेख), स्कन्द २.३.३+ (बदरी क्षेत्र में नारदीय शिला, मार्कण्डेय शिला, वाराही शिला, गारुडी शिला, नारसिंही शिला), २.४.२, ३.१.३९(विश्वामित्र के शाप से शिला बनी रम्भा की मुक्ति की कथा), ४.२.५९.९६(धूतपापा कन्या का धर्म के शाप से चन्द्रकान्त शिला बनना), ५.३.१०४(सुवर्ण शिला तीर्थ का माहात्म्य), ५.३.१४६.६३, ६.४०(ब्रह्मा द्वारा पृथिवी पर त्रिकाल सन्ध्या के लिए चित्र शिला की स्थापना), ६.१११(दमयन्ती का ब्राह्मणों के शाप से शिला बनना), ६.१३४(हारीत - पत्नी पूर्णकला का शाप से खण्ड शिला बनना, खण्ड शिला की अर्चना से काम की कुष्ठ से मुक्ति ), योगवासिष्ठ ६.१.४६शिलाक, ६.२.६६, ६.२.७०, ६.२.९४.६८(, ६.२.१६६, लक्ष्मीनारायण १.२०६, १.३४०, १.४१०, १.४९८, १.५०२, १.५०३, २.१५८.७३, २.१८३, ३.२१५, ३.२१८शिलाङ्गारखानि, ४.१०१.१३१, द्र. तक्षशिला, दामशिलाद, मत्स्यशिला, सुवर्णशिला shilaa |