पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(Shamku - Shtheevana)

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

 

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Shamku -  Shankushiraa  ( words like Shakata/chariot, Shakuna/omens, Shakuni, Shakuntalaa, Shakti/power, Shakra, Shankara, Shanku, Shankukarna etc. )

Shankha - Shataakshi (Shankha, Shankhachooda, Shachi, Shanda, Shatadhanvaa, Shatarudriya etc.)

Shataananda - Shami (Shataananda, Shataaneeka, Shatru / enemy, Shatrughna, Shani / Saturn, Shantanu, Shabara, Shabari, Shama, Shami etc.)

Shameeka - Shareera ( Shameeka, Shambara, Shambhu, Shayana / sleeping, Shara, Sharada / winter, Sharabha, Shareera / body etc.)

Sharkaraa - Shaaka   (Sharkaraa / sugar, Sharmishthaa, Sharyaati, Shalya, Shava, Shasha, Shaaka etc.)

Shaakataayana - Shaalagraama (Shaakambhari, Shaakalya, Shaandili, Shaandilya, Shaanti / peace, Shaaradaa, Shaardoola, Shaalagraama etc.)

Shaalaa - Shilaa  (Shaalaa, Shaaligraama, Shaalmali, Shaalva, Shikhandi, Shipraa, Shibi, Shilaa / rock etc)

Shilaada - Shiva  ( Shilpa, Shiva etc. )

Shivagana - Shuka (  Shivaraatri, Shivasharmaa, Shivaa, Shishupaala, Shishumaara, Shishya/desciple, Sheela, Shuka / parrot etc.)

Shukee - Shunahsakha  (  Shukra/venus, Shukla, Shuchi, Shuddhi, Shunah / dog, Shunahshepa etc.)

Shubha - Shrigaala ( Shubha / holy, Shumbha, Shuukara, Shoodra / Shuudra, Shuunya / Shoonya, Shoora, Shoorasena, Shuurpa, Shuurpanakhaa, Shuula, Shrigaala / jackal etc. )

Shrinkhali - Shmashaana ( Shringa / horn, Shringaar, Shringi, Shesha, Shaibyaa, Shaila / mountain, Shona, Shobhaa / beauty, Shaucha, Shmashaana etc. )

Shmashru - Shraanta  (Shyaamalaa, Shyena / hawk, Shraddhaa, Shravana, Shraaddha etc. )

Shraavana - Shrutaayudha  (Shraavana, Shree, Shreedaamaa, Shreedhara, Shreenivaasa, Shreemati, Shrutadeva etc.)

Shrutaartha - Shadaja (Shruti, Shwaana / dog, Shweta / white, Shwetadweepa etc.)

Shadaanana - Shtheevana (Shadaanana, Shadgarbha, Shashthi, Shodasha, Shodashi etc.)

 

 

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चतुर्थी तिथि

ब्रह्मसरोवर पर श्राद्ध, आम्रसेचन व काकबलि

http://www.jagran.com/spiritual/puja-path-pitru-paksha-10749355.html

गया। आश्विन कृष्ण चतुर्थी सोमवार त्रिपाक्षिक गया श्राद्ध का पंचम दिवस है। इस तिथि को सर्वप्रथम ब्रह्म सरोवर तीर्थ पर श्राद्ध होता है। गयाधाम के दक्षिण फाटक से बाईपास पथ जाने के मार्ग में वैतरणी सरोवर से दक्षिण ब्रह्म सरोवर है। ब्रह्म सरोवर के तट पर श्राद्ध होता है। श्राद्ध के बाद ब्रह्मकूप वेदी का दर्शन एवं प्रदक्षिणा की जाती है।

इस वेदी की प्रदक्षिणा से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। ब्रह्मकूप वेदी सरोवर में दक्षिण पश्चिम भाग में पत्थर का स्तंभ है। जल में डूबे हुए रहने के कारण इसकी प्रदक्षिणा बाहर से ही होती है। ब्रह्माजी ने गयाधाम में यज्ञ करके ब्रह्म सरोवर में यज्ञान्त स्नान किया था तथा उक्त ब्रह्मकूप स्तंभ स्थापित किया था। इस सरोवर के उत्तर पश्चिम दिशा में स्थित काक शिला वेदी पर कुत्ता एवं कौआ के निमित्त बलि दी जाती है। काकबलि वेदी से पश्चिम जाकर ब्रह्मसरोवर के पश्चिमी गेट से माड़नपुर तिनमुहानी पर जाने का मार्ग है। तिनमुहानी से उत्तर तारक ब्रह्म वेदी है। एक छोटे मंदिर में गली के भीतर तारक ब्रह्म हैं।

मुख्य पथ पर पूर्व मुख ब्रह्म वेदी है। इनके दर्शन से पितरों का उद्धार हो जाता है। इन्हें पितृतारक ब्रह्म कहा जाता है। उसके बाद माड़नपुर तिनमुहानी से पश्चिम जाकर उत्तर की ओर गली में आम्र सिंचन वेदी है। यह वेदी गोप्रचार वेदी से दक्षिण है। यहां आम का वृक्ष है। इसकी जड़ में कुशा के सहारे जल अर्पण किया जाता है। यहां पिंडदान नहीं होता है। यह भी दर्शन एवं नमस्कार की वेदी है। उक्त आम के वृक्ष को ब्रह्मसरोवर से उखाड़कर ब्रह्मा ने यहां रोपा था। उक्त तीन वेदियां दर्शनीय वेदियां हैं जो 360 वेदियों में से प्रधान है। इनका पुराणों में उल्लेख है।

-[आचार्य लाल भूषण मिश्र]

गोप्रचारसमीपस्था आम्रा ब्रह्मप्रकल्पिताः।

तेषां सेचनमात्रेण पितरो मोक्षगामिनः॥2.49.42

आम्रं ब्रह्मसरोद्भूतं ब्रह्मदेवमयं तरुम्।

विष्णुरूपं प्रसिञ्चामि पितॄणां मुक्तिहेतवे॥2.49.43

एको मुनिः कुम्भकुशाग्रहस्त आम्रस्य मूले सलिलं ददामि।

आम्रश्च सिक्तः पितरश्च तृप्ता एका क्रिया द्वयर्थकरी प्रसिद्धा॥2.49.44

 

पाँचवें दिनका कृत्य (गया श्राद्ध पद्धति गीताप्रेस, गोरखपुर)

पाँचवें दिन आश्विन कृष्ण चतुर्थी को ब्रह्मसरोवर पर श्राद्ध, आम्रसेचन तथा काकबलि आदि कृत्य होते हैं। प्रातः फल्गुतीर्थ में स्नानादि कृत्य सम्पन्न कर तर्पण करे और ब्रह्मसरोवर तीर्थ में जाकर संकल्पपूर्वक निम्न मन्त्र से मार्जन-स्नान करे --

स्नानं करोमि तीर्थेऽस्मिन् ऋणत्रयविमुक्तये। श्राद्धाय पिण्डदानाय तर्पणायात्मशुद्धये॥ मार्जन-स्नान के अनन्तर तर्पण तथा श्राद्ध करे। तदनन्तर कुशयुक्त जल से निम्न मन्त्र द्वारा सर्वदेवमय आम्रवृक्ष का सिंचन करे --

आम्रं ब्रह्मसरोद्भूतं सर्वदेवमयं विभुम्। विष्णुरूपं प्रसिञ्चामि पितॄणां च विमुक्तये।

तदनन्तर ब्रह्मयूप की प्रदक्षिणा करे और फिर ब्रह्मसरोवर के वायव्यकोण में स्थित ब्रह्माजी को निम्न मन्त्र से प्रणाम करे --

नमस्ते ब्रह्मणेऽजाय जगज्जन्मादिकारिणे ।

भक्तानां च पितॄणां च तारणाय नमो नमः॥

तदनन्तर यमराज, धर्मराज एवं दोनों श्वानों को बलि देकर निम्न मन्त्र से काकबलि प्रदान करे --

ऐन्द्रवारुणवायव्या  याम्या वै नैर्ऋतास्तथा।

वायसाः प्रतिगृह्णन्तु भूमौ पिण्डं मयोज्झितम्॥

इदमन्नं वायसेभ्यो न मम।

तदनन्तरं मार्जन-स्नान करे ।

                                                      ***********

     चतुर्थी तिथि में सार्वत्रिक रूप से गणेश पूजा का विधान है।  भविष्य पुराण 1.22 से 1.31 में चतुर्थी तिथि के माहात्म्य तथा कृत्यों का वर्णन है। इस वर्णन के अनुसार चतुर्थी तिथि के 2 पक्ष हैं एकदन्त गणेश द्वारा विघ्न उत्पन्न करना, उनका निवारण और दूसरा पक्ष है कार्तिकेय द्वारा सामुद्रिक लक्षणों का वर्णन। अङ्गुष्ठपर्वमात्र गणेश प्रतिमा का सृजन प्रयोजनविशेष की सिद्धि के लिए वृक्षविशेष की मूल से किया जाता है, इसका वर्णन भविष्य पुराण 1.30 में उपलब्ध है। भविष्य पुराण 1.22.40 के अनुसार गणेश का एक विषाण(दंत) तो यथास्थान रहता है जबकि दूसरा उनके हाथ में रहता है। हाथ के विषाण से गणेश भूत और भविष्य को प्रभावित कर सकते हैं। तब दैवयोग समाप्त हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि गया में ब्रह्मसरोवर के माध्यम से चतुर्थी तिथि की इन्हीं विशेषताओं को प्रदर्शित किया गया है। ब्रह्मसरोवर में स्थित स्तम्भ पुरुष के कार्तिकेय वर्णित सामुद्रिक लक्षणों का प्रतीक हो सकता है, जबकि आम्रवृक्ष के मूल का सिंचन विघ्नकर्ता गणेश के अंगुष्ठमात्र रूप का परिचायक हो सकता है। कहा गया है कि पहले यह आम्र वृक्ष ब्रह्मसरोवर में ही था, वहां से इसे प्रस्थापित किया गया है। आम्र वृक्ष को भी स्तम्भ का रूप कहा जा सकता है जिसमें सारे सामुद्रिक लक्षण प्रकट होते होंगे। आम्र शब्द की टिप्पणी में यह उल्लेख किया जा चुका है कि आम्र के दो रूप हैं - कच्चा और पक्का । सामान्य स्थिति यह है कि आम्र आम है, कच्चा है । इसे पकाने की आवश्यकता है । हमारे शरीर में क्षुधा उत्पन्न होने का कारण भी यही है कि हमारा शरीर कच्चा है । यदि हमारा शरीर कच्चा है, आम है तो उसे पकाने का उपाय क्या हो सकता है ? इस संदर्भ में यह ध्यान देने योग्य है कि रजनीश ने 'सेवन चक्राज सेवन बांडीज' (कुण्डलिनी और सात शरीर) नाम से उपलब्ध वेबसाईट में मनुष्य की चेतना के विभिन्न स्तर बताए हैं, जैसे स्थूल, सूक्ष्म, कारण, आदि । इन सभी स्तरों को पकाने की आवश्यकता होती है । रजनीश के अनुसार, यदि आदर्श परिस्थितियां हों, तो एक स्तर को पकने में बीस वर्ष का समय लगता है । इस प्रकार १२० या १४० वर्ष की आयु तक सभी स्तर पक कर तैयार हो जाने चाहिएं ।     पुराणों में गया में स्थित आम्र वृक्ष के सिंचन का विशेष महत्त्व कहा गया है । इस संदर्भ में वैदिक व पौराणिक साहित्य का यह कथन ध्यान देने योग्य है कि पृथु की कथा में विराज गौ का दोहन करते समय पितर गण दुग्ध एकत्र करने के लिए आम पात्र का उपयोग करते हैं ।  आम स्थिति को ही पितर भी कहा जा सकता है। उसे श्राद्ध द्वारा पकाने की आवश्यकता है। पकने पर सामुद्रिक लक्षण, बुद्धत्व आदि के लक्षण भी प्रकट होंगे। यह उल्लेखनीय है कि गणेश द्वारा विघ्न उपस्थित करने से क्या अर्थ हो सकता है। गणेश अंगुष्ठमात्र पुरुष का प्रतीक है। वह दैवयोग में विघ्न प्रस्तुत कर सकता है, लेकिन तभी जब पहले द्वितीया और तृतीया तिथियों के माध्यम से चेतन और अचेतन मनों का परिष्कार कर लिया गया हो। यह ध्यान देने योग्य है कि पुराणों में जल को पुण्यों का रूप कहा गया है। ऋग्वेद ९.८३.१ में सोम के संदर्भ में कहा गया है कि - ''अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते शृतास इद्वहन्तस्तत् समाशत ।।'' इसका अर्थ यह हो सकता है कि सोम का प्रभाव ऐसा है कि शरीर अतप्त रहता है, आम उसमें प्रवेश नहीं कर सकता ।

     गरुड पुराण 1.28 में काक का सम्बन्ध मूलाधार से जोडा गया है। मूलाधार हमारी देह का पितर रूप है, सारी देह का पोषण करता है। और पुराणों में विभिन्न दिशाओं में काकों का वर्गीकरण किया गया है जो भविष्य में अन्वेषणीय है। काक पर अलग से टिप्पणी द्रष्टव्य है।

     गया में यूप के उद्भव के विषय में कहा गया है कि यह यूप गया में ब्रह्मा के यज्ञ में उत्पन्न हुआ है। ब्रह्मा का पुष्कर में यज्ञ तो प्रसिद्ध है जिसमें तीन पुष्करों ज्येष्ठ, मध्यम व कनिष्ठ का प्रादुर्भाव होता है। गया में ब्रह्मा का यज्ञ कैसा होगा, यह अन्वेषणीय है।

     गयाश्राद्ध का आरम्भ प्रेत शिला पर ब्रह्मपद से आरम्भ हुआ था जिसके संदर्भ में कहा गया था कि यह ओंकार की अ मात्रा है जिसमें आदान, समाज से शिक्षा की प्राप्ति आदि निहित हैं। अब चतुर्थी को ब्रह्म का स्वरूप अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया है। पंचमी तिथि को विष्णुपद का आरम्भ होगा जो ओंकार की उ मात्रा है।

 

वायु पुराण

तृतीये ब्रह्मसरसि स्नात्वा श्राद्धं सपिण्डकम्। कृत्वा सर्व्वप्रमाणेन मन्त्रेण विधिवत्सुतः॥37॥ स्नानं करोमि तीर्थेऽस्मिन् ऋणत्रयविमुक्तये। तत्कूपयूपयोर्मध्ये ब्रह्मलोकं नयेत्पितॄन्॥38॥ यागं कृत्वोत्थितो यूपो ब्रह्मणा यूप इत्यसौ। कृत्वा ब्रह्मसरः श्राद्धं सर्व्वांस्तारयते पितॄन्॥39॥ यूपं प्रदक्षिणीकृत्य वाजपेयफलं लभेत्। ब्रह्माणं च नमस्कृत्य ब्रह्मलोकं नयेत्पितॄन्॥40॥ नमोऽस्तु ब्रह्मणेऽजाय जगज्जन्मादिरूपिणे। भक्तानाञ्च पितॄणाञ्च तारकाय नमो नमः॥41॥ गोप्रचारसमीपस्था आम्रा ब्रह्मप्रकल्पिताः। तेषां सेचनमात्रेण पितरो मोक्षगामिनः॥42॥ आम्रं ब्रह्मसरोद्भूतं ब्रह्मदेवमयं तरुम्। विष्णुरूपं प्रसिञ्चामि पितॄणां मुक्तिहेतवे॥43॥ एको मुनिः कुम्भकुशाग्रहस्त आम्रस्य मूले सलिलं ददामि। आम्रश्च सिक्तः पितरश्च तृप्ता एका क्रिया द्वयर्थकरी प्रसिद्धा॥44॥ ततो यमबलिं दद्यान्मन्त्रेणानेन संयतः। यमराजधर्म्मराजौ निश्चलार्थं व्यवस्थितौ॥45॥ ताभ्यां बलिं प्रयच्छामि पितॄणां मुक्तिहेतवे। ततः श्वानबलिं दद्यान्मन्त्रेणानेन नारद॥46॥ द्वौ श्वानौ श्यामशबलौ वैवस्वतकुलोद्भवौ। ताभ्यां बलिं प्रयच्छामि रक्षेतां पथि सर्वदा॥47॥ ततः काकबलिं दद्यान्मन्त्रेणानेन नारद। ऐन्द्रवारुणवायव्ययाम्या वै नैर्ऋतास्तथा॥48॥ वायसाः प्रतिगृह्णन्तु भूमौ पिण्डं समर्पितम्।

 

पञ्चमी तिथि

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विष्णुपद मन्दिर में रुद्रपद, ब्रह्मपद व विष्णुपद पर खीर के पिण्ड से श्राद्ध

http://www.jagran.com/spiritual/puja-path-pitru-paksha-10751800.html

गया। आश्विन मास कृष्ण पक्ष पंचमी तिथि मंगलवार त्रिपाक्षिक गया श्राद्ध का छठा दिन है। इस तिथि को विष्णुपद मंदिर में विष्णु के दाहिने चरण पर अवस्थित विष्णुवेदी, रुद्रपद वेदी एवं ब्रह्मपद वेदी पर पिंडदान होता है। विष्णुपद वेदी पर पिंडदान से विष्णुलोक, ब्रह्मापद वेदी पर पिंडदान से ब्रह्मालोक को तथा रुद्रपद वेदी पर पिंडदान से रुद्रलोक को पितर जाते हैं।

विष्णुपद वेदी पर भीष्म पितामह द्वारा पिंडदान करने से उनके पिता शान्तनु विष्णुलोक को प्राप्त हुए थे। पिंडदान के समय शान्तनु ने प्रत्यक्ष होकर भीष्म पितामह को आशीर्वाद दिया था कि वे त्रिकालदर्शी हों तथा इच्छानुसार मृत्यु प्राप्त करें। रुद्रपद वेदी पर भगवान श्रीराम द्वारा पिंडदान करने से दशरथ रुद्रलोक को प्राप्त हुए थे। श्रीराम को प्रत्यक्ष होकर आशीवाद दिया था कि वे अयोध्यावासी सहित विष्णुलोक जाएं।

विष्णुपद मंदिर में आदिगदाधर विष्णु ने उत्तरमुख स्थित होकर अपनी आदि गदा से कंपित सिर वाले गयासुर को स्थिर किया था। अत: विष्णु चरण के दाहिने चरण का अंगूठा उत्तर दिशा में है और एड़ी दक्षिण दिशा में है। विष्णु चरण दक्षिण दिशा में दीवाल में महालक्ष्मी उत्तर मुख है। महालक्ष्मी दर्शनीय एवं प्रणम्य वेदी है। पश्चिम दीवाल में पूर्व मुख विश्वेदेव है। विश्वदेव दर्शनीय एवं प्रणम्य वेदी है। मंदिर से बाहर विष्णु के वाहन गरुड़ जी दक्षिण मुख है। मंदिर से उत्तर दिशा में गरुड़जी दर्शनीय एवं प्रणम्य हैं। मंदिर के दक्षिण तरफ जगन्नाथ माधव सुभद्रा एवं बलदेव का मंदिर है। उक्त सभी देवता पूर्व मुख हैं। इनके दर्शन नमस्कार किए जाते हैं। 360 वेदियों में अधिकाधिक वेदियां दर्शनीय वेदियां हैं। दर्शन नमस्कार से पितर मुक्त होते हैं। श्राद्धकर्ता को भी आशीर्वाद देते हैं।

-[आचार्य लालभूषण मिश्र]

छठे दिन का कृत्य(गया श्राद्ध पद्धति गीताप्रेस, गोरखपुर)

छठे दिन अर्थात् आश्विन् कृष्ण पंचमी को प्रातःकाल फल्गु तीर्थ में स्नान, तर्पण आदि कृत्य करके विभिन्न पदों में कृत्य  सम्पादित करना चाहिये। सर्वप्रथम विष्णुपद जाकर विष्णुपद दर्शन तथा पूजन के लिये संकल्प करके भगवान् विष्णु का दर्शन करे तथा स्पर्श करे  - -

अत्र विष्णुपदं दिव्यं दर्शनात्पापनाशनम् । स्पर्शनात्पूजनाच्चैव पितॄणां मुक्तिहेतवे । तदनन्तर भक्तिपूर्वक विष्णुपूजन करना चाहिये और फिर खीर के पिण्ड से श्राद्ध करे। तत्पश्चात् रुद्रपद तथा ब्रह्मपद पर भी यथाविधि श्राद्ध करना चाहिये। विष्णुपद पर तीर्थाचार्य की पूजा करनी चाहिये।

                         ********

चतुर्थी तिथि तक लक्ष्य यह रहा है कि ब्रह्माण्ड से अधिक से अधिक ऊर्जा का आदान कैसे किया जाए। ब्रह्माण्ड से ऊर्जा सूर्य की किरणों के रूप(जिन्हें सूर्य के पद कहा जाता है) में प्राप्त हो सकती है, रेडियो तरंगों के रूप में, चुम्बकीय तरंगों के रूप में, ध्वनि की तरंगों के रूप में तथा आधुनिक विज्ञान मे अभी तक अज्ञात रूपों में प्राप्त हो सकती है। जो पृथिवी रूपी देह ब्रह्माण्ड की अधिक से अधिक ऊर्जा को ग्रहण करने में समर्थ होती है, उसे गौ कहा जाता है। गया श्राद्ध के संदर्भ में, ब्रह्माण्ड की ऊर्जा का आदान करने में जहां जहां भी रुकावटें थी, उन्हें दूर करने का प्रयास किया गया। द्वितीया तिथि को उत्तर मानस, कनखल व दक्षिण मानस तीर्थों की यात्रा की गई जिससे एक सुपर्ण या गरुड और उसके दो पंखों का निर्माण हो जाए। यह दो पंख ऊर्जा ग्रहण के लिए आजकल के विज्ञान के एंटीना की भांति काम करेंगे। तृतीया तिथि में जो चेतना आरण्यक पशुओं की भांति उच्छृंखल अवस्था में थी, उसको धर्मारण्य में व्यवस्थित करने का प्रयास किया गया जिससे वह  ऊर्जा का आदान कर सके। चतुर्थी तिथि को यूप के निर्माण के रूप में देह में बुद्धत्व के लक्षणों का निर्माण का प्रयास किया गया जिससे इन विशेष लक्षणों के माध्यम से ऊर्जा का आदान किया जा सके। अब पञ्चमी तिथि का लक्ष्य यह है कि जिस ऊर्जा को ग्रहण करने की सामर्थ्य चतुर्थी तिथि तक प्राप्त की गई है, उसका संरक्षण, धारण कैसे किया जाए। वैदिक साहित्य में इसे ओंकार की दूसरी मात्रा उ कहा गया है। रजनीश के शब्दों में इस तथ्य को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है कि हमने किसी स्वादिष्ट मिष्टान्न का आस्वादन किया। एक क्षण के लिए उस रस से हमारी तृप्ति हो जाती है। लेकिन दूसरे क्षण हमें फिर उस रस का आस्वादन करने की आकांक्षा जाग्रत हो जाती है। रजनीश का कहना है कि हमारी चेतना को उस रस की स्मृति विस्मृत हो जाती है। यदि यह विस्मृत न होती तो हमें पुनः रस का आस्वादन करने की आवश्यकता न पडती। धारणा का दूसरा उदाहरण प्राणों के आदान के पश्चात्, जैसे भोजन करने के पश्चात्, उन प्राणों को सम्यक् रूप से धारण करने का है जिससे वह प्राण हमारी आयु का जरण न करें, आयु का रक्षण करें। विष्णु का कार्य यही है कि वह सृष्टि का पालन करता है। व्यवहार में ऐसा किस प्रकार सम्भव है, इस सम्बन्ध में अनुमान है कि विष्णु उसे कहा जाता है जिसने अपनी देह में बुद्धत्व के 32 लक्षणों को विकसित कर लिया हो। यह 32 लक्षण ब्रह्माण्ड से प्राप्त विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं के संरक्षण का कार्य करेंगे। आधुनिक विज्ञान में अभी तक यह तो ज्ञात हो सका है कि पिनियल ग्रन्थि का विकास चक्षु के विकास में सहायक है। पुरानी मान्यता के अनुसार गौ पशु के ककुद में पिनियल ग्रन्थि की विकसित स्थिति उसे सूर्य की किरणों का अवशोषण करने में सहायता देती है। लेकिन अवशोषित ऊर्जा के संरक्षण का कार्य किन ग्रन्थियों से होता है, इसका प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं है। व्यावहारिक रूप में यह विचित्र स्थिति है कि यद्यपि विष्णु के 32 लक्षण (या पद ) ऊर्जा के धारण में सहयोग करते हैं, लेकिन इन 32 लक्षणों में से केवल एक लक्षण पाद को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता है। ऐसा सम्भव है कि पादतल इन सभी 32 पदों का प्रतिनिधित्व करता हो और इसी कारण से पादतल में विभिन्न चिह्नों शंख, चक्र आदि को अंकित किया जाता हो। यद्यपि अन्यत्र तो राम के पदांगुष्ठ के स्पर्श से शिला बनी अहल्या चेतन हो उठती है, लेकिन गया के संदर्भ में ऐसा नहीं है। वहां सभी पदों को महत्त्व दिया गया है और कहा गया है कि गयासुर के कम्पन को समाप्त करने के लिए सभी देवता पद रूप में उसके ऊपर स्थापित हो गए लेकिन उसका कंपन नहीं रुका। जब जनार्दन गदा लेकर उस पर स्थित हुए, तभी उसका कम्पन रुका। इस प्रकार यदि  जड को चेतन बनाना हो तो राम के पाद का उदाहरण है। लेकिन यदि चेतन को जड रूप देना हो तो गयासुर की कथा है।

पादयोश्चिह्नितां कृत्वा पूजां चैव समारभेत् । दक्षिणस्यपदोंगुष्ठमूले चक्रं बिभर्ति यः ॥१४॥ तत्र नम्रजनस्यापि संसारच्छेदनाय च। मध्यमांगुलि मूले तु धत्ते कमलमच्युतः ॥१५॥ ध्यातृचित्त द्विरेफाणां लोभनायातिशोभनम्। पद्मस्याधो ध्वजं धत्ते सर्वानर्थ जयध्वजम् ॥१६॥ कनिष्ठामूलतो वज्रं भक्तपापौघभेदनम्।  पार्श्वमध्येंऽकुशं भक्तचित्ते रभसकारणम् ॥१७॥ भोगसंपन्मयं धत्ते यवमंगुष्ठपर्वणि। मूले गदां च पापाद्रि भेदनीं सर्वदेहिनाम् ॥१८॥ पद्म पुराण 5.80.18

 

ते तत्र तत्राब्जयवाङ्कुशाशनि ध्वजोपपन्नानि पदानि विश्पतेः  ।

मार्गे गवामन्यपदान्तरान्तरे निरीक्षमाणा ययुरङ्ग सत्वराः  ॥  - भागवत पुराण १०.१६.०१८ ॥

यवचक्रध्वजच्छत्रैः स्वस्तिकांकुशबिन्दुभिः॥21॥ अष्टकोणेनवज्रेण पद्मेनाभियुतानि। नीलशंखघटैर्मत्स्यत्रिकोणेषूर्ध्वधारकैः॥22॥ - गर्ग संहिता 2.18.22

चरणौप्रददौ सर्ववक्षस्सु चिह्नशोभितौ। अष्टकोणश्चोर्ध्वरेखा स्वस्तिको यववज्रकौ॥92॥ जाम्बूफलं ध्वजोंऽकुंशः पद्मं दक्षपदेऽभवन्। त्रिकोणः कलशश्चापि गोष्पदं च धनुष्यकम्॥93॥ मीनाऽर्धचन्द्रकौ व्योम वामे तु चरणेऽभवन्। - लक्ष्मीनारायण संहिता 2.110.93

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गया में पिण्डदान करते समय यह निर्देश दिया जाता है कि पितरों को पिण्ड हाथ में देना है या पदों में। विष्णुपद में पद में देने का विधान है। पिण्ड दान के संदर्भ में इस प्रकार कल्पना की जा सकती है कि अपनी सारी चेतना को अपने पादतल पर इस प्रकार पिण्डीभूत करना है। प्रायः कहा जाता है कि सिद्ध व्यक्तियों को मीलों दूर से ही सिद्ध पीठों के कम्पन अपने पादतल के माध्यम से आने लगते हैं। इस संदर्भ में आगे यह भी जोडना पडेगा कि कंपन पूरे पाततल के माध्यम से आने चाहिएं।

पादतल के संदर्भ में वृक्षों के पादतल के रूप में उनकी जडों पर विचार करना भी उपयुक्त होगा। वृक्ष अपनी जडों के माध्यम से जल का, खनिजों आदि का ग्रहण करते हैं। खनिजों में जो खनिज लवण उनके लिए उपयुक्त नहीं होता, उसे वे अपनी जडों में स्थित रिक्त स्थानों में ही जडीभूत कर देते हैं। प्राणियों में यह कहा जा सकता है कि पाद पापों के जडीभूत होने का स्थान हैं। पादतल में गुदगुदी उठना यह संकेत करता है कि यहां पाप स्थित हैं। 

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ऊपर एक्युप्रेशर आरोग्य विद्या से लिया गया चित्र है जिसमें पद में शरीर के सभी अंगों का प्रतिबिम्ब है। इन इन स्थानों को दबाने से उन उन अंगो को लाभ होता है, ऐसा कहा जाता है।

पुराणों में पंचमी तिथि के संदर्भ में सावर्त्रिक रूप से नागों की कथा दी गई है। कश्यप ऋषि की दो पत्नियों कद्रू और विनता में विवाद हुआ कि जो यह सूर्य का अश्व है, इसकी पूंछ का रंग काला है या श्वेत। कद्रू ने कहा काला है, विनता ने कहा श्वेत है। अपने कथन को सच्चा साबित करने के लिए कद्रू ने अपने नाग पुत्रों से कहा कि तुम उच्चैःश्रवा अश्व की पूंछ के चारों ओर लिपट जाओ जिससे वह काली दिखाई दे। कुछ नागों ने तो अपनी माता की आज्ञा का पालन किया, कुछ ने अवज्ञा की। जिन्होंने अवज्ञा की, उन्हें माता ने शाप दिया कि तुम अग्नि में जलकर नष्ट हो जाओगे। कालांतर में वे जनमेजय के सर्पसत्र में जले। कद्रू को प्रसन्न किए जाने पर नागों को आश्वासन भी मिला कि उनके वंश का नाश नहीं होगा। यह सर्वविदित है कि जनमेजय के सर्पसत्र में आस्तीक ने प्रवेश करके सर्पसत्र को समाप्त करा दिया था। यह कथा संकेत देती है कि पदों के माध्यम से जिस चेतना का ग्रहण किया जाता है, वह सर्पाकार है। प्रत्येक साधक का यह कर्तव्य बनता है कि अपने पादतल से चेतना को उठाकर उसको ऊर्ध्वमुखी करे। पुराणों की भाषा में यह सर्पों का अग्नि में जल जाना होगा। इसके पश्चात् एक स्थिति ऐसी आएगी कि पादतल से ऊर्जा को उठाने की आवश्यकता नहीं रहेगी, एक संतुलन बन जाएगा। इस कथा में कद्रू का शब्दार्थ समझना भी उपयोगी होगा। कद्रू शब्द कर्द , कूडा से बना है। अतः पंचमी तिथि को कूडे से भी ऊर्जा को ग्रहण करना है।

विष्णुपद मन्दिर फल्गु नदी के पश्चिमी तट पर स्थित है। विष्णुपद पर पिण्डों का निर्माण व्रीहि व यव चूर्ण द्वारा किया जाता है(शतपथ ब्राह्मण ५.५.५.९ के अनुसार तीन पिण्डों हेतु द्रव्य क्रमशः व्रीहि, यव तथा व्रीहि हैं )।

षष्ठी तिथि 

http://www.jagran.com/spiritual/puja-path-pitru-paksha-10751801.html

गया। आश्विन कृष्ण षष्ठी बुधवार त्रिपाक्षिक गया श्राद्ध का सप्तम दिवस है। उक्त तिथि को 16 वेदी नामक तीर्थ की वेदियों पर पिंडदान होता है। विष्णुपद मंदिर के समीप पूर्व दिशा में उक्त वेदियां स्तंभ के रूप में हैं। एवं धर्मशिला पर स्थित हैं। उक्त धर्मशिला पवित्रतम गयासुर के सिर पर स्थापित है। यह शिला मरीची ऋषि की पत्नी धर्मवती है जो पति के शाप से पत्थर बन गई थी। उग्र तपस्या द्वारा धर्मव्रता ने विष्णु आदि देवताओं से वरदान प्राप्त किया था कि उक्त शिला धर्मशिला के नाम से विख्यात हो, यहां सभी देवता निवास करें, सभी तीर्थो से पवित्र हो तथा इस पर श्राद्ध करने वाले उत्तम लोक प्राप्त करें। आज सोलह वेदी की पांच वेदियों पर श्राद्ध होता है।

कार्तिकेय पद, दक्षिणाग्नि पद एवं सूर्य पद पर श्राद्ध से क्रमश: शिवलोक, ब्रह्मालोक एवं सूर्यलोक को पितर प्राप्त करते हैं। गार्हपत्य पद एवं आहवानीय पद पर श्राद्ध से क्रमश: वाजपेय यज्ञ एवं अश्वमेध यज्ञ का फल श्राद्धकर्ता को प्राप्त होता है।

श्राद्ध के बाद दर्शन एवं नमस्कार हेतु वेदियों के पास जाकर दर्शन-पूजन का विधान है। सोलह वेदी के ईशान कोण में छोटे मंदिर में नरसिंह भगवान पूजनीय हैं जो पितरों का उद्धार करते हैं। उत्तर दिशा में पितृच्छा या महादेव के दर्शन से पितर प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं। पश्चिम दिशा में पांच गणेश मूर्तियां दर्शनीय वेदी हैं। ये गणनाथ वेदी के नाम से जानी जाती है। उक्त सभी वेदियां 360 वेदियों में परिगणित होती हैं।

-[आचार्य लालभूषण मिश्र]

सातवें दिन का कृत्य ( गया श्राद्ध पद्धति, ले. पं. श्रीरामकृष्ण शास्त्री, - गीताप्रेस, गोरखपुर)

आश्विनकृष्ण षष्ठी को भी नित्य की तरह प्रातः फल्गुतीर्थ में स्नान, तर्पण आदि करके विष्णुपूजन करे और फिर कार्तिकपद, दक्षिणाग्निपद, गार्हपत्याग्निपद, आहवनीयाग्निपद और सूर्यपदपर यथाविधि श्राद्ध करे।

 

विष्णुपद मन्दिर के बराबर में ही पूर्व में 16 या 15 वेदिपद बने हैं जिनमें से 5-5 में षष्ठी तिथि से लेकर अष्टमी तिथि तक पिण्डदान किया जाता है।

दक्षिणाग्निपदे श्राद्धी पितॄन्ब्रह्मपुरं नयेत्॥2.49.59

गार्हपत्यपदे श्राद्धी वाजपेयफलं लभेत्।

श्राद्धं कृत्वाहवनीये अश्वमेधफलं लभेत्॥2.49.60

श्राद्धी सूर्य्यपदे पञ्च पापिनोऽर्क्कपुरं नयेत्॥2.49.63

कार्तिकेयपदे श्राद्धी शिवलोकं नयेत्पितॄन्।

 

सप्तमी तिथि

http://www.jagran.com/spiritual/puja-path-pitru-paksha-10754695.html

गया। आश्विन कृष्ण सप्तमी बृहस्पतिवार त्रिपाक्षिक गया श्राद्ध का 8वां दिवस है। उक्त तिथि को 16 वेदी नामक तीर्थ पर 6ठी वेदी से 10 वीं वेदी तक पांच वेदियों पर श्राद्ध होता है। यह तीर्थ गयासुर के सिर पर तथा धर्मशिला पर है।

पांच वेदियों में से चंद्रपद, आवसथ्य पद, दधीचि पद एवं कण्व पद पर श्राद्ध से पितर ब्रह्मालोक जाते हैं तथा गणेश पद पर श्राद्ध से रुद्रलोक को पितर प्राप्त करते हैं। सभ्य पद पर श्राद्ध करने से ज्योतिष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है।

आठवें दिन का कृत्य ( गया श्राद्ध पद्धति, ले. पं. श्रीरामकृष्ण शास्त्री, - गीताप्रेस, गोरखपुर)

आश्विनकृष्ण सप्तमी को प्रातः फल्गुनदी में स्नान तथा तर्पणादि कृत्य करके विभिन्न वेदियों में श्राद्ध करे। विष्णुपूजन करके सर्वप्रथम चन्द्रपद में जाकर श्राद्ध करे; फिर गणेशपद, सभ्याग्निपद और आवसथ्याग्निपद के साथ ही दधीचपद तथा कण्वपद पर श्राद्धकृत्य करे।

गणेशस्य पदे श्राद्धी रुद्रलोकं नयेत्पितॄन्॥2.49.64

श्राद्धं कृत्वा सभ्यपदे ज्योतिष्टोमफलं लभेत्।

आवसथ्यपदे श्राद्धी पितॄन्ब्रह्मपुरं नयेत्॥2.49.61

 

 

अष्टमी तिथि

http://www.jagran.com/spiritual/puja-path-pitru-paksha-10757339.html

गया। आश्विन कृष्ण पक्ष अष्टमी शुक्रवार त्रिपाक्षिक गया श्राद्ध का 9वां दिवस है। इस तिथि को 16 वेदी तीर्थ की 11वीं वेदी से 16वीं वेदी तक पिंडदान होता है। 16 वेदी तीर्थ की वेदियां देवताओं और ऋषियों के चरण प्रान्त हैं।

आज मतंग पद, क्रौंच पद, इन्द्रपद, अगस्त्य पद एवं कश्यप पद पर पिंडदान होता है। इन्द्र पद पर श्राद्ध से पितर इन्द्रलोक तथा शेष चार पदों पर श्राद्ध से पितर ब्रह्मालोक जाते हैं। गजकर्ण पद वेदी पर दूध से तर्पण किया जाता है। उक्त सभी वेदियों में कश्यप पद वेदी सर्वश्रेष्ठ है।

कश्यप का चरण प्रान्त दिव्य है। यहां भारद्वाज ऋषि ने पिंडदान किया था। भारद्वाज की माता शांता भी उपस्थित थी। श्राद्ध का पिंड लेने के लिए गौर वर्ण तथा श्याम वर्ण का हाथ सामने आया। भारद्वाज के पिता गौर वर्ण के थे। माता शांता के आवास के स्वामी कृष्ण वर्ण के थे। क्षेत्र स्वामी भी पिंड के अधिकारी थे। माता शांता के संकेत से भारद्वाज ने कश्यप पद पर दोनों को पिंडदान किया और दोनों ने ब्रह्मालोक को प्राप्त किया।

-[आचार्य लालभूषण मिश्र]

श्राद्धं कृत्वा शक्रपदे इन्द्रलोकं नयेत्पितॄन्।

अगस्त्यस्य पदे श्राद्धी पितॄन्ब्रह्मपुरं नयेत्॥2.49.62

क्रौञ्चमातङ्गयोः श्राद्धी ब्रह्मलोकं नयेत्पितॄन्।

 

कश्यपपद--

कश्यपस्य पदे दिव्ये भारद्वाजो मुनिः पुरा।

श्राद्धं कृत्वोद्यतो दातुं पित्रादिभ्यश्च पिण्डकम्॥2.49.68

शुक्लकृष्णौ ततो हस्तौ पदमुद्भिद्य निर्गतौ।

दृष्ट्वा हस्तद्वयं तत्र मुनिः संशयमागतः॥2.49.69

ततः स्वमातरं शान्तां पप्रच्छ स महामुनिः।

कश्यपस्य पदे दिव्ये शुक्ले कृष्णेऽथ वा करे॥2.49.70

पिण्डो देयो मया मातर्जानासि पितरं वद। शान्तोवाच।

भारद्वाज महाप्राज्ञ देहि कृष्णाय पिण्डकम्॥2.49.71

भारद्वाजस्ततः पिण्डं दातुं कृष्णाय चोद्यतः।

श्वेतोऽदृश्योऽब्रवीत्तत्र पुत्रस्त्वं हि ममौरसः॥2.49.72

कृष्णोऽब्रवीन्मम क्षेत्रं ततो मे देहि पिण्डकम्।

स्वैरिण्यथाब्रवीद्दातुं क्षेत्रिणे बीजिने ततः॥2.49.73

भारद्वाजस्ततः पिण्डं कश्यपस्य पदे ददौ।

हंसयुक्तविमानेन ब्रह्मलोकमुभौ गतौ॥2.49.74

गजकर्णतर्पणकृन्निर्मलं स्वर्नयेत्पितॄन्।

अन्येषाञ्च पदे श्राद्धी पितॄन्ब्रह्मपुरं नयेत्॥2.49.65

 

अगस्त्यपद--

शिलाया दक्षिणे हस्ते भस्मकूटो गिरिर्धृतः।

धर्म्मराजेन तत्रास्ते ह्यगस्त्यः सह भार्य्यया॥2.46.56

अगस्त्यस्य पदे स्नातः पिण्डदो ब्रह्मलोकगः।

ब्रह्मणस्तु वरं लेभे माहात्म्यं भुवि दुर्लभम्॥2.46.57

लोपामुद्रां तथा भार्य्यां पितॄणां परमां गतिम्।

तत्रागस्त्येश्वरं दृष्ट्वा मुच्यते ब्रह्महत्यया॥2.46.58

अगस्त्यञ्च सभार्य्यञ्च पितॄन्ब्रह्मपुरं नयेत्।

 

क्रौञ्चपद

क्रौञ्चरूपेण हि मुनिर्मुण्डपृष्ठे तपोऽकरोत्।

तस्य पादाङ्कितो यस्मात्क्रौञ्चपादस्ततः स्मृतः॥2.46.78

स्नातो जलाशये तत्र नयेत्स्वर्गं स्वकं कुलम्।

निक्षरायां पुष्करिण्यां स्नातः श्राद्धादिकं नरः।

कुर्य्यात्क्रौञ्चपदे दिव्ये नियमाद्वासरत्रयम्।

सर्वान्पितॄन्नयेत्स्वर्गं पञ्चपापिन एव च॥2.46.87

 

नवें दिन का कृत्य  ( गया श्राद्ध पद्धति, ले. पं. श्रीरामकृष्ण शास्त्री, - गीताप्रेस, गोरखपुर)

 

आश्विन कृष्ण अष्टमी को प्रातः फल्गुनदी में स्नानकर तर्पणादि कृत्य सम्पन्न कर अवशिष्ट वेदियोंमें श्राद्ध करे। विष्णुपूजनकर सर्वप्रथम मतंगपद में जाय और वहाँ यथाविधि श्राद्ध करे। तदनन्तर क्रौंचपद, इन्द्रपद, अगस्त्यपद तथा कश्यपपदों पर श्राद्धादि कृत्य अनुष्ठित करे। तदनन्तर पदशिला के उत्तर में स्थित गजकर्णिका में समस्त पितरों के उद्धार की कामना से दूध अथवा शुद्ध जल से पितरों का दर्शन कर पूजन करे।

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जैसा कि पहले कहा जा चुका है, पञ्चमी तिथि को मुख्य रूप से विष्णुपद पर पिण्डदान किया जाता है। गौण रूप में रुद्रपद व ब्रह्मपदों का भी उल्लेख है। इसका अर्थ है कि विष्णुपद पर ओंकार की अ, उ तथा म तीनों मात्राएं सक्रिय हैं। म का अर्थ होता है विसर्जन। जिस ऊर्जा को विष्णु ने धारण किया है, आधुनिक भौतिक विज्ञान के अनुसार उसका एक अंश बेकार चला जाता है। किसी भी ऊर्जा का रूपांतरण सौ प्रतिशत दक्षता से नहीं किया जा सकता। इस बेकार अंश को ठिकाने लगाने का कार्य रुद्र का है।

     षष्ठी तिथि को कार्तिकेयपद, सूर्यपद, दक्षिणाग्निपद, आहवनीयाग्निपद व गार्हपत्याग्निपदों पर पिण्डदान का निर्देश है। विष्णुपद मन्दिर के बाहर एक प्रांगण में लभगभ 15 या अधिक स्तम्भ बनाए गए हैं और इन पर लिख दिया गया है कि अमुक स्तम्भ अमुक पद है। इन 15 पदों पर षष्ठी, सप्तमी व अष्टमी तिथियों में 5-5 के क्रम से पिण्डदान होना है। षष्ठी तिथि को कार्तिकेय पद सर्वोपरि है, सप्तमी को चन्द्रपद व अष्टमी को इन्द्रपद इत्यादि। पुराणों में इतना बता दिया गया है कि अमुक पद का सम्बन्ध ब्रह्मा से है, अमुक का रुद्र से। विष्णु का तो नाम प्रत्यक्ष रूप में नहीं लिया गया है। लेकिन इसको परोक्ष रूप में समझा जा सकता है कि जो पद ब्रह्मा व रुद्र के अतिरिक्त शेष बचे हैं, वह विष्णु के पद होंगे। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अब षष्ठी, सप्तमी व अष्टमी तिथियों को ओंकार की अ, ऊ तथा म मात्राएं मिलकर कार्य कर रही हैं।

     षष्ठी तिथि सार्वत्रिक रूप से कार्तिकेय की तिथि मानी जाती है। कार्तिकेय को मरुद्गणों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। सप्तमी तिथि सूर्य की तथा अष्टमी दुर्गा की। लेकिन इतने उल्लेख से इन तिथियों के रहस्यों का उद्घाटन नहीं होता। डा. यशवन्त कोठारी के सांझी पर लेख से इन रहस्यों का उद्घाटन हो सकता है। सांझी देवी की रंगों अथवा गोबर की आकृति दीवार पर बनाकर आश्विन् कृष्ण प्रतिपदा से अमावास्या तक उसकी पूजा अर्चना की जाती है और फिर उसे विसर्जित कर दिया जाता है। डा. यशवन्त ठाकुर ने इस सम्बन्ध में यह रहस्योद्घाटन किया है

क्‍वार मास के प्रारंभ के याने एकम को केल(केलि?, क्रीडा?), दुज को बिजोला, तीज को तराजू, चौथ को चौपड़ पांचम को पांच कुंआरे, छठ को छाबड़ी, सातम को स्वस्तिक, आठम को आठ पंखुडियों का फूल, नवमी को डोकरा डोकरी (वृद्ध दम्पत्ति) दशमी को पंखा और ग्‍यारस को किलाकोट। यह किलाकोट अमावस्‍या तक नित नये ढंग से नई साजसज्जा से बनाया जाता है। अंत के पाँच दिनों में हाथी-घोड़े, किला-कोट, गाड़ी आदि की आकृतियाँ बनाई जाती हैं। सोलह दिन के पर्व के अंत में अमावस्या को संझा देवी को विदा किया जाता है।

संज्ञा का अर्थ हो सकता है कि अब हमें एक दूसरे के मन के विचारों का संज्ञान होने लगा है। अमावास्या को संज्ञा देवी गाडी में बैठकर अपनी ससुराल चली जाती है। इस उल्लेख में पञ्चमी तिथि को संज्ञा के साथ पांच कुंआरे सम्बद्ध किए गए हैं। यह पांच कुंआरे पुराणों के सनकादि पांच कुमार हैं जिन्हें स्मृति सर्ग का अधिपति कहा गया है। जैसा कि पंचमी तिथि की टिप्पणी में स्पष्ट किया जा चुका है, पंचमी तिथि को विष्णु  का काम ऊर्जा को, पहले हो चुके अनुभवों को धारण करना है। यही स्मृति है। अब षष्ठी को संज्ञा के साथ छाबडी जोडी गई है। छाबडी से अर्थ होगा शूर्प। षष्ठी तिथि के अवसर पर अस्त होते हुए व उदित होते हुए सूर्य को अर्घ्यदान का पर्व सर्वविदित ही है।

वेद का कथन है कि दितिः शूर्पम् अदितिः शूर्पग्राही। इसका अर्थ है कि जो दिति है, खण्डित चेतना है, वह कबाड को बाहर निकालने का, विसर्जन का उपकरण शूर्प बन जाए और जो एकीकृत चेतना है जिसे अदिति कहा जाता है, वह उस शूर्प को पकडने वाली बन जाए। षष्ठी तिथि के वर्तमान संदर्भ में कार्तिकेय मरुद्गणों के अधिपति हैं और मरुद्गण दिति के पुत्र हैं। सप्तमी तिथि में संज्ञा के साथ स्वस्तिक को सम्बद्ध किया गया है। यह स्वस्तिक या स्वस्ति अदिति के साथ जुडी हुई है। सोमयाग के संदर्भ में कहा गया है कि यज्ञ का जो मार्ग है, पथ्यास्वस्ति है, उसे अदिति ही जानती है। स्वस्ति से तात्पर्य है कि हम किसी अनजान राह पर जा रहे हैं। उस राह पर लुटेरे हमें लूट सकते हैं। अतः कोई ऐसा उपाय किया जाना चाहिए कि जो उस राह को पहले से जानता हो, वह हमें मार्गदर्शन करता रहे। यह स्वस्ति कहलाती है।सार्वत्रिक ऋचा है स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा स्वस्ति न पूषा विश्ववेदा। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु। इस ऋचा में इन्द्र, पूषा, तार्क्ष्य व बृहस्पति स्वस्ति किस प्रकार करते हैं, यह अभी बहुत स्पष्ट नहीं है। ब्राह्मण ग्रन्थों में अग्नि द्वारा स्वस्ति का उदाहरण दिया गया है कि रात्रि में हम सो जाते हैं। लेकिन अग्नि जागती रहती है। वह हमारी दुस्स्वप्नों आदि से रक्षा कर सकती है। फिर सवेरे हमारे अन्दर पुनः प्राणों का संचार कर देती है, अन्यथा हम मर ही जाते। यही अग्नि तार्क्ष्य या गरुड बन कर स्वर्ग से सोम लाती है। अग्नि से तात्पर्य है हमारी चेतना का सार रूप।

     अष्टमी को संज्ञा के साथ अष्टदलकमल को सम्बद्ध किया गया है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है। अष्टदलकमल के रस को ग्रहण करने वाला चाहिए। राधावल्लभ सम्प्रदाय में कृष्ण को मूल प्रकृति रूपी इस अष्टदलकमल का सार ग्रहण करने वाला भ्रमर कहा गया है। अन्य सम्प्रदायों में अष्टदलकमल की प्रकृति का नाम उमा हो सकता है जिसका सार शिव ग्रहण करते हैं।  

 

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