पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Shamku - Shtheevana) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
|
|
श्रीसूक्त टिप्पणी : अग्नि पुराण ६२ में लक्ष्मी प्रतिष्ठा विधि के अन्तर्गत श्रीसूक्त का विनियोग निम्नलिखित प्रकार से दिया गया है – हिरण्यवर्णां हरिणीं इति ऋचा द्वारा श्री के नेत्रों का उन्मीलन तां म आवह इति द्वारा मधुरत्रय प्रदान अश्वपूर्वां इति द्वारा पूर्व में कुम्भ द्वारा अभिषेक कांसोऽस्मि इति द्वारा याम्य दिशा में अभिषेक चन्द्रां प्रभासां इति द्वारा पश्चिम दिशा में अभिषेक आदित्यवर्णे इति द्वारा उत्तर दिशा में अभिषेक उपैतु मां इति द्वारा आग्नेयी दिशा में अभिषेक क्षुत्पिपासामला इति द्वारा नैर्ऋत दिशा में अभिषेक गन्धद्वारां इति द्वारा वायव्य दिशा में अभिषेक मनसः काममाकूतिं इति द्वारा ईशान दिशा में अभिषेक कर्दमेन प्रजा इति द्वारा शिर? का अभिषेक आपः स्रवन्तु इति द्वारा ८१ घटों द्वारा स्नान आर्द्रां पुष्करिणीं इति द्वारा गन्ध द्वारा उपचार ताम् म आवह इति द्वारा पुष्पों द्वारा उपचार य आनन्दं इति द्वारा अखिल उपचार
पौराणिक और वैदिक साहित्य में दिशाओं से क्या तात्पर्य है, इसका सरलतम विवरण डा. फतहसिंह ने इस प्रकार दिया है कि पूर्व दिशा सूर्य के उदय की, ज्ञान प्राप्ति की दिशा है, दक्षिण दिशा दक्षता प्राप्ति की, पश्चिम दिशा सत्यानृत विवेक, श्मशान या अपने पापों को जला डालने की और उत्तर दिशा आनन्द प्राप्ति की दिशा है। लेकिन दिशाओं के वास्तविक तात्पर्य को और विस्तार से समझने की आवश्यकता है। शिव पुराण ७.२.३०.६६ में विभिन्न दिशाओं में अस्त्रों का विनियोग दिया गया है जो नीचे रेखा चित्र में दिखाया गया है। पूर्व दिशा में वज्र से तात्पर्य, डा. फतहसिंह के शब्दों में, वज्र जैसे दृढ संकल्प से है। परशु से तात्पर्य स्पर्श मणि से, कांटे चुभने वाले रोमांच से हो सकता है। सायक या तीर से तात्पर्य तीव्र अभीप्सा से, अपने लक्ष्य को साधने से हो सकता है। जो संकल्प किया जाए, वह कल्प वृक्ष द्वारा पूरा हो। नैर्ऋत दिशा में खड्ग से तात्पर्य अपने पापों को ज्ञान रूपी खड्ग द्वारा काटने से हो सकता है। पश्चिम दिशा में पाश से तात्पर्य अपने पापों को बांधने से है। वायव्य दिशा में अंकुश से तात्पर्य ? उत्तर दिशा में धनुष से तात्पर्य अपने लक्ष्य की प्राप्ति से हो सकता है। ईशान दिशा में त्रिशूल से तात्पर्य?
श्रीसूक्त पर प्रस्तुत वर्तमान टिप्पणी में जिन चित्रों का उपयोग किया गया है, वह प्रोफेसर एस.के. रामचन्द्र राव द्वारा लिखित पुस्तक SHRI SUKTA(कल्पतरु रिसर्च एकेडमी, बंगलौर, १९८५) से साभार ग्रहण किए गए हैं। और इस पुस्तक के लेखक ने बताया है कि यह चित्र १०० से अधिक वर्ष पूर्व प्रकाशित एक तेलगु पुस्तक से लिए गए हैं। समष्टि सूक्त की देवता व यन्त्र :
प्रथम ऋचा :
ऋषि : जातवेदस, छन्द : अनुष्टुप्, देवता : श्रीमहालक्ष्मी, बीज : हिरण्यवर्णाम्, शक्ति : स्वाहा, कीलक : श्रीम्, ह्रीं, क्लीं हि॑रण्यवर्णां ह॑रिणीं सुव॑र्णरजत॑स्रजाम्। चन्द्रां॑ हिर॑ण्मयीं लक्ष्मीं॑ जा॑तवेदो म॑मा॑ वह॥१। स्वरलिपि भेद : हिर॑ण्यवर्णां॒ हरि॑णीं सु॒वर्ण॑रज॒तस्र॑जाम् । च॒न्द्रां हि॒रण्म॑यीं ल॒क्ष्मीं जात॑वेदो म॒ आव॑ह ॥ पाठान्तर : हिरण्यवर्णां हरिणीं हिरण्यरजतात्मिकाम्। चान्द्रीं स्वर्णमयीं लक्ष्मीं नारायणो म आवह॥ - ल.ना.सं. १.११७.४० हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतः स्रजाम्। चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं विष्णोरनपगामिनीम्॥ - पद्म.पु. उपरोक्त पाठान्तरों में से कुछ में जातवेदा अग्नि का स्थान नारायण ने ले लिया है। यह कितना न्यायोचित है, इसका स्पष्टीकरण जातवेदा शब्द को समझने के पश्चात् किया जा सकता है। श्रीसूक्त की पहली ऋचा “हिरण्यवर्णां हरिणीं इत्यादि का विनियोग महालक्ष्मी के नेत्र उन्मीलन के लिए कहा गया है। योग की भाषा में नेत्रोन्मीलन को समाधि से व्युत्थान की स्थिति कहा जा सकता है। समाधि से व्युत्थान पर जगत का बोध होता है। सरस्वती रहस्योपनिषद में इस प्रक्रिया को अस्ति, भाति, प्रिय, नाम और रूप इन पांच अवस्थाओं द्वारा दर्शाया गया है जिनमें से पहली तीन अन्तर्जगत से सम्बन्धित हैं और अन्तिम दो बाह्य जगत से। ऋग्वेद ३.२०.३ व ८.११.५ में जातवेदा के साथ नाम का उल्लेख है जबकि ऋग्वेद ४.४३.१० में रूप का। अनुमान लगाया जा सकता है कि जातवेदा भी समाधि से व्युत्थान पर जगत की प्रतीति होने की स्थिति है। विष्णु के विषय में कहा जाता है कि वह सोए रहते हैं। जब वह जागते हैं तो यज्ञ आरम्भ हो जाता है, अथवा कि विष्णु ही यज्ञ है। व्यवहार में यह भी कहा जा सकता है कि संसार में जो भी वस्तु हमारी आंखों के सामने प्रकट होती है, हमारी चेतना जिस प्रकार से उस वस्तु का संज्ञान लेती है, वह जातवेदा है। सामने प्रकट हुई वस्तु से हमें घृणा भी उत्पन्न हो सकती है, शत्रुता भी हो सकती है, लेकिन अगली ऋचा मांग करती है कि जातवेदा ऐसी होनी चाहिए कि हमें मधु ही मधु की अनुभूति हो। पहली ऋचा की मांग है कि हिरण्य से पहली जो स्थितियां हैं, वह हमारी जातवेदा चेतना के सामने प्रकट ही न हों। हिरण्य से पहली स्थितियां सलिल, फेन, बुद्बुद, मृदा, शर्करा, अयः आदि हैं(शतपथ ब्राह्मण) प्रथम ऋचा के चित्र में दोनों पार्श्वों में दो-दो हाथी महालक्ष्मी का अभिषेक करते दिखाए गए हैं। हाथियों को प्रायः शंख और पद्म निधियों का प्रतीक माना गया है। चार हाथी कौन सी निधियों के प्रतीक हैं, यह अभी स्पष्ट नहीं है। प्रथम ऋचा के यन्त्र में सबसे अन्दर स्थित गोले के बाहर एक अधोमुखी त्रिभुज बना हुआ है। डा. फतहसिंह के अनुसार यह समनी चेतना का प्रतीक है। एक उन्मनी चेतना है, एक समनी। उन्मनी अर्थात् समाधि की ओर उन्मुख। समनी अर्थात् समाधि से व्युत्थान की स्थिति। इस अधोमुखी त्रिभुज के बाहर जो त्रिभुजाकार आकृतियां बनी हुई हैं, उनमें तिर्यक गति और ऊर्ध्वमुखी गति का बोध होता प्रतीत होता है।
ऋषि : जातवेदस, छन्द : अनुष्टुप्, देवता : श्रीराज्यलक्ष्मी तां॑ म आ॑ वह जातवेदो लक्ष्मी॑म॑नपगामि॑नीम्। य॑स्यां हि॑रण्यं विन्दे॑यं गा॑म॑श्वं पु॑रुषानह॑म्॥२॥ तां म॒ आव॑ह॒ जात॑वेदो ल॒क्ष्मीमन॑पगा॒मिनी॓म् । यस्यां॒ हिर॑ण्यं वि॒न्देयं॒ गामश्वं॒ पुरु॑षान॒हम् ॥ धनां धान्यां गोस्वरूपां वाहनीं पुरुषात्मिकाम्। नारायणो म आवह लक्ष्मीमनपगामिनीम्॥ - ल.ना.सं. १.११७.४१ उपरोक्त ऋचा की देवता श्रीराज्यलक्ष्मी कही गई है। पुराणों में उल्लेख आता है कि क्षत्रिय की लक्ष्मी चञ्चला होती है जबकि वैश्य की स्थिरा। ऋचा में जातवेदा से प्रार्थना की गई है कि वह ऐसी लक्ष्मी को लाए जो एक बार आकर वापस न जाए। जब भी हमारी जिह्वा स्वादिष्ट पदार्थ का स्पर्श करती है, वह लक्ष्मी का आना ही तो है। लेकिन कुछ ही क्षणों में वह आनन्द तिरोहित हो जाता है। आचार्य रजनीश का कहना है कि एक बार दिव्यता का जो अनुभव हमें हो जाए, उसको सुरक्षित करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। हमारे अन्दर चिति अथवा व्यवस्था जितनी प्रबल होगी, अनुभव को उतना ही अधिक हम सहेज सकेंगे। अग्नि पुराण ६२ में उपरोक्त ऋचा का विनियोग महालक्ष्मी हेतु मधुर-त्रय प्रस्तुत करने के लिए है। यह मधुरत्रय कौन से हैं, शब्दकल्पद्रुप शब्दकोश में मधुरत्रय के रूप में सिता-माक्षिकमधु-सर्पि का उल्लेख है। एक प्रसिद्ध त्रिमधु सूक्त(ऋग्वेद १.९०.६-८) है जो निम्नलिखित है: मधु॒ वाता॑ ऋताय॒ते मधु॑ क्षरन्ति॒ सिन्ध॑वः। माध्वी॑र्नः स॒न्त्वोष॑धीः॥ मधु॒ नक्त॑मु॒तोषसो॒ मधु॑म॒त् पार्थि॑वं॒ रजः॑। मधु॒ द्यौर॑स्तु नः पि॒ता॥ मधु॑मान्नो॒ वन॒स्पति॒र्मधु॑माँ अस्तु॒ सूर्यः॑। माध्वी॒र्गावो॑ भवन्तु नः॥ भौतिक जगत में यह अनुत्तरित प्रश्न है कि क्यों कुछ ओषधियां कटु होती हैं, कुछ मधुर। और आधुनिक विज्ञान के अनुसार वह कौन सा घटक है जो मधुरता और कटुता के लिए उत्तरदायी है। इस ऋचा के चित्र में महालक्ष्मी को अश्वारूढ स्थिति में प्रदर्शित किया गया है। अश्व स्थिति को श्वः, भविष्य के कल से रहित के रूप में, काल से परे की स्थिति के रूप में समझा जा सकता है। मधु विद्या का उपदेश दधीचि अश्वमुख द्वारा ही देते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद में मधु विद्या का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है कि “रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव”, अर्थात् जगत में प्रत्येक भूत में उसी परमात्मा की छाया दिखाई पडे, यह मधु विद्या है। इसके विपरीत गो स्थिति अक्ष की, द्यूत की स्थिति है। ऋचा में उल्लेख की गई तीसरी स्थिति पुरुष की है। हो सकता है कि पुरुष से तात्पर्य पौरुषत्व से हो। संगीत में छठे स्वर का नाम धैवत है जो अश्व का स्वर है। सातवें स्वर का नाम निषाद है जो हस्ती का स्वर है। धैवत का परोक्ष रूप दैवत हो सकता है – जब हमारी क्रियाएं दैव द्वारा सम्पन्न होती हैं, पुरुषार्थ द्वारा नहीं। इससे अगली स्थिति निषाद स्वर की हो सकती है जहां हमारी क्रियाएं पुरुषार्थ द्वारा सम्पन्न होनी चाहिएं। लक्ष्मीनारायण संहिता में लक्ष्मी का विभाजन चार वर्णों में किया गया है – ब्राह्मण की लक्ष्मी गजरूपा है, क्षत्रिय की अश्वरूपा, वैश्य की स्यन्दनारूढा/रथारूढा और शूद्र की मिश्रित। पूरे पौराणिक साहित्य में गजमुखी लक्ष्मी का स्वरूप क्या है, इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है। कहा गया है कि गजमुखी लक्ष्मी ही चार भुजाओं वाली महालक्ष्मी बनी। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि पुरुषार्थ से सम्पन्न लक्ष्मी गज स्वरूपा है। उपरोक्त विनियोग पुराणों में माधवी और लक्ष्मी की कलह की कथा को हल करने में सहायक हो सकता है। लक्ष्मीनारायण संहिता के अनुसार माधवी ने विष्णु के वामपाद संवाहन का कार्य संभाला और लक्ष्मी ने दक्ष पाद का। लेकिन बाद में लक्ष्मी ने वाम पाद संवाहन का काम लेना चाहा तो कलह हो गई और लक्ष्मी शाप से गजमुखी बन गई और माधवी अश्वमुखी। |