पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(Shamku - Shtheevana)

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

 

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Shamku -  Shankushiraa  ( words like Shakata/chariot, Shakuna/omens, Shakuni, Shakuntalaa, Shakti/power, Shakra, Shankara, Shanku, Shankukarna etc. )

Shankha - Shataakshi (Shankha, Shankhachooda, Shachi, Shanda, Shatadhanvaa, Shatarudriya etc.)

Shataananda - Shami (Shataananda, Shataaneeka, Shatru / enemy, Shatrughna, Shani / Saturn, Shantanu, Shabara, Shabari, Shama, Shami etc.)

Shameeka - Shareera ( Shameeka, Shambara, Shambhu, Shayana / sleeping, Shara, Sharada / winter, Sharabha, Shareera / body etc.)

Sharkaraa - Shaaka   (Sharkaraa / sugar, Sharmishthaa, Sharyaati, Shalya, Shava, Shasha, Shaaka etc.)

Shaakataayana - Shaalagraama (Shaakambhari, Shaakalya, Shaandili, Shaandilya, Shaanti / peace, Shaaradaa, Shaardoola, Shaalagraama etc.)

Shaalaa - Shilaa  (Shaalaa, Shaaligraama, Shaalmali, Shaalva, Shikhandi, Shipraa, Shibi, Shilaa / rock etc)sciple, Sheela, Shuka / parrot etc.)

Shilaada - Shiva  ( Shilpa, Shiva etc. )

Shivagana - Shuka (  Shivaraatri, Shivasharmaa, Shivaa, Shishupaala, Shishumaara, Shishya/de

Shukee - Shunahsakha  (  Shukra/venus, Shukla, Shuchi, Shuddhi, Shunah / dog, Shunahshepa etc.)

Shubha - Shrigaala ( Shubha / holy, Shumbha, Shuukara, Shoodra / Shuudra, Shuunya / Shoonya, Shoora, Shoorasena, Shuurpa, Shuurpanakhaa, Shuula, Shrigaala / jackal etc. )

Shrinkhali - Shmashaana ( Shringa / horn, Shringaar, Shringi, Shesha, Shaibyaa, Shaila / mountain, Shona, Shobhaa / beauty, Shaucha, Shmashaana etc. )

Shmashru - Shraanta  (Shyaamalaa, Shyena / hawk, Shraddhaa, Shravana, Shraaddha etc. )

Shraavana - Shrutaayudha  (Shraavana, Shree, Shreedaamaa, Shreedhara, Shreenivaasa, Shreemati, Shrutadeva etc.)

Shrutaartha - Shadaja (Shruti, Shwaana / dog, Shweta / white, Shwetadweepa etc.)

Shadaanana - Shtheevana (Shadaanana, Shadgarbha, Shashthi, Shodasha, Shodashi etc.)

 

 

श्रावण मास के महत्त्व को समझने के लिए श्रव शब्द को समझना आवश्यक है। श्रव का सामान्य अर्थ शोर होता है। ऋग्वेद में श्रव शब्द 145 से अधिक बार प्रकट हुआ है। वैदिक निघण्टु में इस शब्द का वर्गीकरण मुख्य रूप से धन नामों में किया गया है और गौण रूप से अन्न नामों में। गौण रूप से इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि यह संदिग्ध है। किसी प्रति में है, किसी में नहीं है। लेकिन डा. गोपालकृष्ण भट्ट ने अपने शोधग्रन्थ वैदिक निघण्टु में उल्लेख किया है कि  सायणाचार्य द्वारा ऋग्वेद के मन्त्रों की जो व्याख्याएं की गई हैं, उनमें से 100 स्थानों पर इसकी व्याख्या अन्न के रूप में की गई है, 1 स्थान पर धन के रूप में तथा 39 स्थानों पर यश या कीर्ति के अर्थ में। यद्यपि वैदिक निघण्टु में श्रव का परिगणन यश या कीर्ति के रूप में नहीं किया गया है, फिर भी सायणाचार्य ने श्रव का अर्थ यश या कीर्ति क्यों किया है, इसका कारण यह है कि यास्काचार्य के निरुक्त में श्रव की व्याख्या यश या कीर्ति के रूप में ही की गई है। और कीर्ति को समझना ही श्रव को समझना भी होगा। श्रावण मास से अगला मास भाद्रपद है। भाद्रपद इसलिए कि भाद्रपद पूर्णिमा को चन्द्रमा पूर्वभाद्रपद या उत्तरभाद्रपद नक्षत्रों के निकट रहता है। इसका आध्यात्मिक अर्थ यह है कि हमें अपने परितः प्रत्येक वस्तु में अपनी चेतना के पदों को स्थापित करना है। इस ब्रह्माण्ड की कोई भी वस्तु हमारी चेतना के पदों से वञ्चित न रह जाए। वैष्णव सम्प्रदाय में इसे प्रत्येक वस्तु में तुलसी की माला बांधना कहा गया है। पाश्चात्य कथाओं में इसे इस प्रकार कहा गया है कि एक व्यक्ति था जिसमें यह गुण था कि वह जिस वस्तु को भी छू देता था, वह स्वर्ण बन जाती थी। अपनी चेतना के पद जड द्रव्य पदार्थ तक में स्थापित कर देना तब तक संभव नहीं है जब तक जड द्रव्य पदार्थ की चेतना से भी हमारा परिचय न हो जाए। वैदिक शब्दों में इसे श्रवण कहा गया है, अर्थात्  जड द्रव्य की चेतना जो तथाकथित शोर उत्पन्न कर रही है, हमें उससे भी एकाकार होना है। और यह सारा कार्य श्रावण मास में ही सम्पन्न किया जाना है। निघण्टु में श्रव शब्द का वर्गीकरण धन नामों में करके बहुत बडा संकेत दे दिया गया है। सामान्य स्थिति में हमारी चेतना से जो कुछ शोर बाहर निकल रहा है – हमारे विचार, वह हमें ऋणात्मकता की ओर ले जा रहे हैं, धनात्मकता की ओर नहीं। डा. फतहसिंह की भाषा में कह सकते हैं कि यदि वेद में श्रव शब्द बहुवचन में प्रकट हो रहा है तो वह धनात्मक नहीं होगा, ऋणात्मक होगा(इस कथन की पुष्टि अपेक्षित है)। ऋचाओं में चुपचाप थोडे से ही शब्दों में यह कह दिया गया है कि हमारे अन्दर से जो विचार बाहर निकलें, वह शोर नहीं होने चाहिएं, अपितु स्तुति, प्रार्थना, भक्ति रूप होने चाहिएं। तभी श्रव धन बन सकता है जो हमारी चेतना को ऋणात्मकता की ओर नहीं ले जाएगा।

     यह सर्वविदित है कि यदि कोई व्यक्ति पांच ज्ञानेन्द्रियों में से किसी एक से रहित है, जैसे दर्शनेन्द्रिय से, तो उसकी कोई अन्य इन्द्रिय विकसित हो जाती है जिसे छठी ज्ञानेन्द्रिय नाम दिया जाता है। कोई व्यक्ति यदि दो – तीन वर्ष की आयु में ही अन्धा हो जाता है तो उसमें यह शक्ति रहती है कि वह छठी ज्ञानेन्द्रिय को विकसित कर सके। कहा गया है कि अन्धा व्यक्ति चुटकी की ध्वनि से उत्पन्न प्रतिध्वनि को सुनकर अपने परितः स्थित वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। उसके आगे की भूमि रेतीली है या घास वाली, इसका ज्ञान प्राप्त कर लेता है। लेकिन यह सब तभी संभव है जब कोई कम आयु में ही ज्ञानेन्द्रिय से विकल हो गया हो। बडी आयु में यह संभव नहीं है। वेद में इसका रूप यह दिया गया है कि हमें शव की स्थिति प्राप्त करनी है और फिर श्रव स्थिति में जाना है। शव को समाधि की स्थिति कह सकते हैं। शव की स्थिति में जाने से गर्भ की स्थिति, कम आयु की स्थिति का साक्षात्कार किया जा सकता है, ऐसा कहा जा सकता है।

     बहुत सी ऋचाओं में श्रव शब्द का उल्लेख वाज शब्द के साथ किया गया है। वाज शब्द का वास्तव में क्या अर्थ है, यह अभी तक अज्ञात है। एकमात्र दृष्टिकोण डा. फतहसिंह का प्राप्त होता है जिसके अनुसार वाज वह बल है जो भूत और भविष्य की जानकारी देता है। सोमयाग में तृतीय सवन को ऋभुओं का सवन कहा जाता है। वेद में सुधन्वा के पुत्रों के रूप में तीन ऋभवः हैं – ऋभु, विभु व वाज। डा. फतहसिंह के अनुसार यह तीन ज्ञान, भावना व क्रिया से सम्बन्धित हैं। केवल वाज अर्थात् क्रिया पर्याप्त नहीं है। उसे ज्ञान और भावना का सहयोग मिलना आवश्यक है। फिर वह भूत और भविष्य में प्रवेश करके शकुन के रूप में सूचना देने लगेगा। ऋचाओं में श्रवों द्वारा वाज को और वाज द्वारा श्रवों को पुष्ट करने का उल्लेख है।

     शतपथ ब्राह्मण में सौत्रामणी याग के संदर्भ में संशान सामों का उल्लेख हुआ है – सं त्वा हिन्वन्ति धीतिभिः संश्रवसे, सं त्वा रिणन्ति धीतिभिः विश्रवसे, सं त्वा ततक्षुर्धीतिभिः सत्यश्रवसे। सं त्वा शिशन्ति धीतिभिः इत्यादि। इन सामों का विनियोग यजमान को आसन्दी पर विराजमान करने के लिए, उसका अभिषेक करने के लिए किया गया है। इनमें से दूसरे विश्रवसे प्रकार के श्रव की व्याख्या वाल्मीकि रामायण ७.२.३१ आदि से उपलब्ध हो जाती है। तीसरे प्रकार के श्रव में तक्षण का कार्य भावना शक्ति करती है, ऐसा उल्लेख है।

प्रथम लेखन – 25-8-2015ई.(श्रावण शुक्ल नवमी, विक्रम संवत् 2072)

श्रव

१.४.१.[२७]

स नः पृथु श्रवाय्यमिति । अदो वै पृथु यस्मिन्देवा एतच्छ्रवाय्यं यस्मिन्देवा अच्छा देव विवाससीत्यच्छ देव विवासस्येतन्नो गमयेत्येवैतदाह

२.३.४.[३१]

अथ द्विपदाः । अग्ने त्वं नो अन्तम उत त्राता शिवो भवा वरूथ्यः वसुरग्निर्वसुश्रवा अच्छा नक्षि द्युमत्तमं रयिं दाः तं त्वा शोचिष्ठ दीदिवः सुम्नाय नूनमीमहे

५.३.५.[३३]

आवित्तो इन्द्रो वृद्धश्रवा इति । क्षत्रं वा इन्द्रस्तदेनं क्षत्रायावेदयति तदस्मै सवमनुमन्यते तेनानुमतः सूयते

सोमक्रयणम् - अग्ने तव श्रवो वय इति । धूमो वा अस्य श्रवो वयः स ह्येनममुष्मिंलोके श्रावयति महि भ्राजन्ते अर्चयो विभावसविति महतो भ्राजन्तेऽर्चयः प्रभूवसवित्येतद्बृहद्भानो शवसा वाजमुक्थ्यमिति बलं वै शवो बृहद्भानो बलेनान्नमुक्थ्यम् माश ७.३.१.२९

 

वा वाजस्य संगथ इत्यन्नं वै वाजो भवान्नस्य संगथ इत्येतत्सं ते पयांसि समु यन्ति वाजा इति रसो वै पयोऽन्नं वाजाः सं ते रसाः समु यन्त्वन्नानी ......दिवि श्रवांस्युत्तमानि धिष्वेति चन्द्रमा वा अस्य दिवि श्रव उत्तमं स ह्येनममुष्मिंलोके श्रावयति द्वाभ्यामाप्याययति गायत्र्या च त्रिष्टुभा च तस्योक्तो बन्धुः – मा.श. ७.३.१.[४६]

कुश्रिर्ह वाजश्रवसोऽग्निं चिक्ये  तं होवाच सुश्रवाः कौश्यो गौतम यदग्निमचैषीः प्राञ्चमेनमचैषीः प्रत्यञ्चमेनमचैषीर्न्यञ्चमेनमचैषीरुत्तानमेनमचैषीः ।।१।। यद्यहैनं प्राञ्चमचैषीः यथा पराच आसीनाय पृष्ठतोऽन्नाद्यमुपाहरेत्तादृक्तन्न ते हविः प्रतिग्रहीष्यति ।।२।। यद्यु वा एनं प्रत्यञ्चमचैषीः  कस्मादस्य तर्हि पश्चात्पुच्छमकार्षीः ।।३।। यद्यु वा एनं न्यञ्चमचैषीः  यथा नीचः शयानस्य पृष्ठेऽन्नाद्यम् प्रतिष्ठापयेत्तादृक्तन्नैव ते हविः प्रतिग्रहीस्यति।।४।। यद्यु वा एनमुत्तानमचैषीः  न वा उत्तानं वयः स्वर्गं लोकमभिवहति न त्वा स्वर्गं लोकमभिवक्ष्यत्यस्वर्ग्य उ ते भविष्यतीति ।।५।। स होवाच  प्राञ्चमेनमचैषं प्रत्यञ्चमेनमचैषं न्यञ्चमेनमचैषमुत्तानमेनमचैषं सर्वा अनु दिश एनमचैषमिति ।।६।। स यत्प्राञ्चं पुरुषमुपदधाति  प्राच्यौ स्रुचौ तत्प्राङ्चीयतेऽथ यत्प्रत्यञ्चं कूर्ममुपदधाति प्रत्यञ्चि पशुशीर्षाणि तत्प्रत्यङ्चीयतेऽथ यन्न्यञ्चं कूर्ममुपदधाति न्यञ्चि पशुशीर्षाणि नीचीरिष्टकास्तन्न्यङ्चीयतेऽथ यदुत्तानम् पुरुषमुपदधात्युत्ताने स्रुचा उत्तानमुलूखलमुत्तानामुखां तदुत्तानश्चीयतेऽथ यत्सर्वा अनु दिशः परिसर्पमिष्टका उपदधाति तत्सर्वतश्चीयते  माश १०.५.५.[७]

 

अथ यस्मात् संशानानि(ग्रामगेय 258) नाम। एतैर्वै सामभिर्देवा इंद्रमिंद्रियाय वीर्याय समश्यन्। तथो एवैतमृत्विजो यजमानमेतैरेव सामभिरिंद्रियाय वीर्याय संश्यंति। संश्रवसे विश्रवसे सत्यश्रवसे श्रवस इति सामानि भवंति। एष्वेवैनमेतल्लोकेषु श्रावयंति। चतुर्निधनं भवति। चतस्रो वै दिशः। सर्वास्वेवैनमेतद्दिक्षु प्रतिष्ठापयंति। सर्वे निधनमुपावयंति। संविदाना एवास्मिन् श्रियं दधति॥माश १२.८.३.२६

 

अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः ।

देवो देवेभिरा गमत् ॥ १,००१.०५

मायाभिरिन्द्र मायिनं त्वं शुष्णमवातिरः ।

विदुष्टे तस्य मेधिरास्तेषां श्रवांस्युत्तिर ॥ १,०११.०७

आ घा गमद्यदि श्रवत्सहस्रिणीभिरूतिभिः ।

वाजेभिरुप नो हवम् ॥ १,०३०.०८

त्वं तमग्ने अमृतत्व उत्तमे मर्तं दधासि श्रवसे दिवेदिवे ।

यस्तातृषाण उभयाय जन्मने मयः कृणोषि प्रय आ च सूरये ॥ १,०३१.०७

त्रिर्नो रयिं वहतमश्विना युवं त्रिर्देवताता त्रिरुतावतं धियः ।

त्रिः सौभगत्वं त्रिरुत श्रवांसि नस्त्रिष्ठं वां सूरे दुहिता रुहद्रथम् ॥१,०३४.०५

अच्छा वीरं नर्यं पङ्क्तिराधसं देवा यज्ञं नयन्तु नः ॥१,०४०.०३

यो वाघते ददाति सूनरं वसु स धत्ते अक्षिति श्रवः ।१,०४०.०४

अस्मे सोम श्रियमधि नि धेहि शतस्य नृणाम् ।

महि श्रवस्तुविनृम्णम् ॥१,०४३.०७

त्वां चित्रश्रवस्तम हवन्ते विक्षु जन्तवः ।

शोचिष्केशं पुरुप्रियाग्ने हव्याय वोळ्हवे ॥१,०४५.०६

उवासोषा उच्छाच्च नु देवी जीरा रथानाम् ।

ये अस्या आचरणेषु दध्रिरे समुद्रे न श्रवस्यवः ॥१,०४८.०३

सुपेशसं सुखं रथं यमध्यस्था उषस्त्वम् ।

तेना सुश्रवसं जनं प्रावाद्य दुहितर्दिवः ॥१,०४९.०२

तक्षद्यत्त उशना सहसा सहो वि रोदसी मज्मना बाधते शवः

आ त्वा वातस्य नृमणो मनोयुज आ पूर्यमाणमवहन्नभि श्रवः ॥१,०५१.१०

त्वमेताञ्जनराज्ञो द्विर्दशाबन्धुना सुश्रवसोपजग्मुषः ।

षष्टिं सहस्रा नवतिं नव श्रुतो नि चक्रेण रथ्या दुष्पदावृणक् ॥ १,०५३.०९

त्वमाविथ सुश्रवसं तवोतिभिस्तव त्रामभिरिन्द्र तूर्वयाणम् ।

त्वमस्मै कुत्समतिथिग्वमायुं महे राज्ञे यूने अरन्धनायः ॥१,०५३.१०

स हि श्रवस्युः सदनानि कृत्रिमा क्ष्मया वृधान ओजसा विनाशयन् ।

ज्योतींषि कृण्वन्नवृकाणि यज्यवेऽव सुक्रतुः सर्तवा अपः सृजत् ॥१,०५५.०६

अस्मै भीमाय नमसा समध्वर उषो न शुभ्र आ भरा पनीयसे ।

यस्य धाम श्रवसे नामेन्द्रियं ज्योतिरकारि हरितो नायसे ॥१,०५७.०३

अस्मा इदु सप्तिमिव श्रवस्येन्द्रायार्कं जुह्वा समञ्जे ।

वीरं दानौकसं वन्दध्यै पुरां गूर्तश्रवसं दर्माणम् ॥१,०६१.०५

वि पृक्षो अग्ने मघवानो अश्युर्वि सूरयो ददतो विश्वमायुः ।

सनेम वाजं समिथेष्वर्यो भागं देवेषु श्रवसे दधानाः ॥१,०७३.०५

अग्ने वाजस्य गोमत ईशानः सहसो यहो ।

अस्मे धेहि जातवेदो महि श्रवः ॥१,०७९.०४

शूरा इवेद्युयुधयो न जग्मयः श्रवस्यवो न पृतनासु येतिरे ।

भयन्ते विश्वा भुवना मरुद्भ्यो राजान इव त्वेषसंदृशो नरः ॥१,०८५.०८

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥१,०८९.०६

आ प्यायस्व मदिन्तम सोम विश्वेभिरंशुभिः ।

भवा नः सुश्रवस्तमः सखा वृधे ॥१,०९१.१७

सं ते पयांसि समु यन्तु वाजाः सं वृष्ण्यान्यभिमातिषाहः ।

आप्यायमानो अमृताय सोम दिवि श्रवांस्युत्तमानि धिष्व ॥१,०९१.१८

सादन्यं विदथ्यं सभेयं पितृश्रवणं यो ददाशदस्मै ॥१,०९१.२०

अषाळ्हं युत्सु पृतनासु पप्रिं स्वर्षामप्सां वृजनस्य गोपाम् ।

भरेषुजां सुक्षितिं सुश्रवसं जयन्तं त्वामनु मदेम सोम ॥१,०९१.२१

उषस्तमश्यां यशसं सुवीरं दासप्रवर्गं रयिमश्वबुध्यम् ।

सुदंससा श्रवसा या विभासि वाजप्रसूता सुभगे बृहन्तम् ॥१,०९२.०८

एवा नो अग्ने समिधा वृधानो रेवत्पावक श्रवसे वि भाहि ।

तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥१,०९५.११

एवा नो अग्ने समिधा वृधानो रेवत्पावक श्रवसे वि भाहि ।

तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥१,०९६.०९

स सूनुभिर्न रुद्रेभिर्ऋभ्वा नृषाह्ये सासह्वां अमित्रान् ।

सनीळेभिः श्रवस्यानि तूर्वन्मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥१,१००.०५

उत्ते शतान्मघवन्नुच्च भूयस उत्सहस्राद्रिरिचे कृष्टिषु श्रवः ।

अमात्रं त्वा धिषणा तित्विषे मह्यधा वृत्राणि जिघ्नसे पुरन्दर ॥१,१०२.०७

तदूचुषे मानुषेमा युगानि कीर्तेन्यं मघवा नाम बिभ्रत् ।

उपप्रयन्दस्युहत्याय वज्री यद्ध सूनुः श्रवसे नाम दधे ॥१,१०३.०४

युवामिन्द्राग्नी वसुनो विभागे तवस्तमा शुश्रव वृत्रहत्ये ।

तावासद्या बर्हिषि यज्ञे अस्मिन्प्र चर्षणी मादयेथां सुतस्य ॥१,१०९.०५

क्षेत्रमिव वि ममुस्तेजनेनं एकं पात्रमृभवो जेहमानम् ।

उपस्तुता उपमं नाधमाना अमर्त्येषु श्रव इच्छमानाः ॥१,११०.०५

याभिः सुदानू औशिजाय वणिजे दीर्घश्रवसे मधु कोशो अक्षरत् ।

कक्षीवन्तं स्तोतारं याभिरावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥

क्षत्राय त्वं श्रवसे त्वं महीया इष्टये त्वमर्थमिव त्वमित्यै ।

विसदृशा जीविताभिप्रचक्ष उषा अजीगर्भुवनानि विश्वा ॥१,११३.०६ 

एकस्या वस्तोरावतं रणाय वशमश्विना सनये सहस्रा ।

निरहतं दुच्छुना इन्द्रवन्ता पृथुश्रवसो वृषणावरातीः ॥१,११६.२१ 

पुरू वर्पांस्यश्विना दधाना नि पेदव ऊहथुराशुमश्वम् ।

सहस्रसां वाजिनमप्रतीतमहिहनं श्रवस्यं तरुत्रम् ॥१,११७.०९

एतानि वां श्रवस्या सुदानू ब्रह्माङ्गूषं सदनं रोदस्योः ।

यद्वां पज्रासो अश्विना हवन्ते यातमिषा च विदुषे च वाजम् ॥१,११७.१०

कदित्था नॄंः पात्रं देवयतां श्रवद्गिरो अङ्गिरसां तुरण्यन् ।

प्र यदानड्विश आ हर्म्यस्योरु क्रंसते अध्वरे यजत्रः ॥१,१२१.०१

त्वं नो अस्या इन्द्र दुर्हणायाः पाहि वज्रिवो दुरितादभीके ।

प्र नो वाजान्रथ्यो अश्वबुध्यानिषे यन्धि श्रवसे सूनृतायै ॥१,१२१.१४

स व्राधतो नहुषो दंसुजूतः शर्धस्तरो नरां गूर्तश्रवाः ।

विसृष्टरातिर्याति बाळ्हसृत्वा विश्वासु पृत्सु सदमिच्छूरः ॥१,१२२.१०

उप क्षरन्ति सिन्धवो मयोभुव ईजानं च यक्ष्यमाणं च धेनवः ।

पृणन्तं च पपुरिं च श्रवस्यवो घृतस्य धारा उप यन्ति विश्वतः ॥१,१२५.०४

अमन्दान्स्तोमान्प्र भरे मनीषा सिन्धावधि क्षियतो भाव्यस्य ।

यो मे सहस्रममिमीत सवानतूर्तो राजा श्रव इच्छमानः ॥१,१२६.०१

पूर्वामनु प्रयतिमा ददे वस्त्रीन्युक्तां अष्टावरिधायसो गाः ।

सुबन्धवो ये विश्या इव व्रा अनस्वन्तः श्रव ऐषन्त पज्राः ॥१,१२६.०५

विश्वश्रुष्टिः सखीयते रयिरिव श्रवस्यते ।

अदब्धो होता नि षददिळस्पदे परिवीत इळस्पदे ॥१,१२८.०१ 

चकर्थ कारमेभ्यः पृतनासु प्रवन्तवे ।

ते अन्यामन्यां नद्यं सनिष्णत श्रवस्यन्तः सनिष्णत ॥१,१३१.०५ 

जहि यो नो अघायति शृणुष्व सुश्रवस्तमः ।

रिष्टं न यामन्नप भूतु दुर्मतिर्विश्वाप भूतु दुर्मतिः ॥१,१३१.०७ 

सं यज्जनान्क्रतुभिः शूर ईक्षयद्धने हिते तरुषन्त श्रवस्यवः प्र यक्षन्त श्रवस्यवः ।

तस्मा आयुः प्रजावदिद्बाधे अर्चन्त्योजसा ।१,१३२.०५

प्र बोधया पुरन्धिं जार आ ससतीमिव ।

प्र चक्षय रोदसी वासयोषसः श्रवसे वासयोषसः ॥१,१३४.०३ 

अस्या ऊ षु ण उप सातये भुवोऽहेळमानो ररिवां अजाश्व श्रवस्यतामजाश्व ।१,१३८.०४ 

अयं स होता यो द्विजन्मा विश्वा दधे वार्याणि श्रवस्या ।

मर्तो यो अस्मै सुतुको ददाश ॥१,१४९.०५

ते नो गृणाने महिनी महि श्रवः क्षत्रं द्यावापृथिवी धासथो बृहत् ।

येनाभि कृष्टीस्ततनाम विश्वहा पनाय्यमोजो अस्मे समिन्वतम् ॥१,१६०.०५

एष च्छागः पुरो अश्वेन वाजिना पूष्णो भागो नीयते विश्वदेव्यः ।

अभिप्रियं यत्पुरोळाशमर्वता त्वष्टेदेनं सौश्रवसाय जिन्वति ॥१,१६२.०३

एवेदेते प्रति मा रोचमाना अनेद्यः श्रव एषो दधानाः ।

संचक्ष्या मरुतश्चन्द्रवर्णा अच्छान्त मे छदयाथा च नूनम् ॥१,१६५.१२

आ चर्षणिप्रा वृषभो जनानां राजा कृष्टीनां पुरुहूत इन्द्रः ।

स्तुतः श्रवस्यन्नवसोप मद्रिग्युक्त्वा हरी वृषणा याह्यर्वाङ् ॥१,१७७.०१

एवा नृभिरिन्द्रः सुश्रवस्या प्रखादः पृक्षो अभि मित्रिणो भूत् ।

समर्य इष स्तवते विवाचि सत्राकरो यजमानस्य शंसः ॥१,१७८.०४

अस्मे सा वां माध्वी रातिरस्तु स्तोमं हिनोतं मान्यस्य कारोः ।

अनु यद्वां श्रवस्या सुदानू सुवीर्याय चर्षणयो मदन्ति ॥१,१८४.०४ 

जोहूत्रो अग्निः प्रथमः पितेवेळस्पदे मनुषा यत्समिद्धः ।

श्रियं वसानो अमृतो विचेता मर्मृजेन्यः श्रवस्यः स वाजी ॥२,०१०.०१

अरमयः सरपसस्तराय कं तुर्वीतये च वय्याय च स्रुतिम् ।

नीचा सन्तमुदनयः परावृजं प्रान्धं श्रोणं श्रवयन्त्सास्युक्थ्यः ॥२,०१३.१२

अस्मभ्यं तद्वसो दानाय राधः समर्थयस्व बहु ते वसव्यम् ।

इन्द्र यच्चित्रं श्रवस्या अनु द्यून्बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥२,०१३.१३

अस्मभ्यं तद्वसो दानाय राधः समर्थयस्व बहु ते वसव्यम् ।

इन्द्र यच्चित्रं श्रवस्या अनु द्यून्बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥२,०१४.१२

एवा त इन्द्रोचथमहेम श्रवस्या न त्मना वाजयन्तः ।

अश्याम तत्साप्तमाशुषाणा ननमो वधरदेवस्य पीयोः ॥२,०१९.०७

गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम् ।

ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नूतिभिः सीद सादनम् ॥२,०२३.०१

अस्माकं मित्रावरुणावतं रथमादित्यै रुद्रैर्वसुभिः सचाभुवा ।

प्र यद्वयो न पप्तन्वस्मनस्परि श्रवस्यवो हृषीवन्तो वनर्षदः ॥२,०३१.०१

एता वो वश्म्युद्यता यजत्रा अतक्षन्नायवो नव्यसे सम् ।

श्रवस्यवो वाजं चकानाः सप्तिर्न रथ्यो अह धीतिमश्याः ॥२,०३१.०७

उपक्षेतारस्तव सुप्रणीतेऽग्ने विश्वानि धन्या दधानाः ।

सुरेतसा श्रवसा तुञ्जमाना अभि ष्याम पृतनायूंरदेवान् ॥३,००१.१६

अग्निं सुम्नाय दधिरे पुरो जना वाजश्रवसमिह वृक्तबर्हिषः ।

यतस्रुचः सुरुचं विश्वदेव्यं रुद्रं यज्ञानां साधदिष्टिमपसाम् ॥३,००२.०५

साह्वान्विश्वा अभियुजः क्रतुर्देवानाममृक्तः ।

अग्निस्तुविश्रवस्तमः ॥३,०११.०६

यत्त्वा होतारमनजन्मियेधे निषादयन्तो यजथाय देवाः ।

स त्वं नो अग्नेऽवितेह बोध्यधि श्रवांसि धेहि नस्तनूषु ॥३,०१९.०५

अमन्थिष्टां भारता रेवदग्निं देवश्रवा देववातः सुदक्षम् ।

अग्ने वि पश्य बृहताभि रायेषां नो नेता भवतादनु द्यून् ॥३,०२३.०२

द्युम्नेषु पृतनाज्ये पृत्सुतूर्षु श्रवस्सु च ।

इन्द्र साक्ष्वाभिमातिषु ॥३,०३७.०७

स्वयुरिन्द्र स्वराळ् असि स्मद्दिष्टिः स्वयशस्तरः ।

स वावृधान ओजसा पुरुष्टुत भवा नः सुश्रवस्तमः ॥३,०४५.०५

स्वदस्व हव्या समिषो दिदीह्यस्मद्र्यक्सं मिमीहि श्रवांसि ।

विश्वां अग्ने पृत्सु ताञ्जेषि शत्रूनहा विश्वा सुमना दीदिही नः ॥३,०५४.२२

ससर्परीरभरत्तूयमेभ्योऽधि श्रवः पाञ्चजन्यासु कृष्टिषु ।

सा पक्ष्या नव्यमायुर्दधाना यां मे पलस्तिजमदग्नयो ददुः ॥३,०५३.१६

मित्रस्य चर्षणीधृतोऽवो देवस्य सानसि ।

द्युम्नं चित्रश्रवस्तमम् ॥३,०५९.०६

अभि यो महिना दिवं मित्रो बभूव सप्रथाः ।

अभि श्रवोभिः पृथिवीम् ॥३,०५९.०७

इन्द्रं कामा वसूयन्तो अग्मन्स्वर्मीळ्हे न सवने चकानाः ।

श्रवस्यवः शशमानास उक्थैरोको न रण्वा सुदृशीव पुष्टिः ॥४,०१६.१५

ऋभुतो रयिः प्रथमश्रवस्तमो वाजश्रुतासो यमजीजनन्नरः ।

विभ्वतष्टो विदथेषु प्रवाच्यो यं देवासोऽवथा स विचर्षणिः ॥४,०३६.०५

उत स्मैनं वस्त्रमथिं न तायुमनु क्रोशन्ति क्षितयो भरेषु ।

नीचायमानं जसुरिं न श्येनं श्रवश्चाच्छा पशुमच्च यूथम् ॥४,०३८.०५

इमा इन्द्रं वरुणं मे मनीषा अग्मन्नुप द्रविणमिच्छमानाः ।

उपेमस्थुर्जोष्टार इव वस्वो रघ्वीरिव श्रवसो भिक्षमाणाः ॥४,०४१.०९

क उ श्रवत्कतमो यज्ञियानां वन्दारु देवः कतमो जुषाते ।

कस्येमां देवीममृतेषु प्रेष्ठां हृदि श्रेषाम सुष्टुतिं सुहव्याम् ॥४,०४३.०१

हव्यवाळ् अग्निरजरः पिता नो विभुर्विभावा सुदृशीको अस्मे ।

सुगार्हपत्याः समिषो दिदीह्यस्मद्र्यक्सं मिमीहि श्रवांसि ॥५,००४.०२

आ यस्ते सर्पिरासुतेऽग्ने शमस्ति धायसे ।

ऐषु द्युम्नमुत श्रव आ चित्तं मर्त्येषु धाः ॥५,००७.०९

अग्निर्होता दास्वतः क्षयस्य वृक्तबर्हिषः ।

सं यज्ञासश्चरन्ति यं सं वाजासः श्रवस्यवः ॥५,००९.०२

चित्रा वा येषु दीधितिरासन्नुक्था पान्ति ये ।

स्तीर्णं बर्हिः स्वर्णरे श्रवांसि दधिरे परि ॥५,०१८.०४

यमग्ने वाजसातम त्वं चिन्मन्यसे रयिम् ।

तं नो गीर्भिः श्रवाय्यं देवत्रा पनया युजम् ॥५,०२०.०१

अग्ने त्वं नो अन्तम उत त्राता शिवो भवा वरूथ्यः ॥५,०२४.०१ 

वसुरग्निर्वसुश्रवा अच्छा नक्षि द्युमत्तमं रयिं दाः ॥५,०२४.०२ 

अग्निस्तुविश्रवस्तमं तुविब्रह्माणमुत्तमम् ।

अतूर्तं श्रावयत्पतिं पुत्रं ददाति दाशुषे ॥५,०२५.०५

वधूरियं पतिमिच्छन्त्येति य ईं वहाते महिषीमिषिराम् ।

आस्य श्रवस्याद्रथ आ च घोषात्पुरू सहस्रा परि वर्तयाते ॥५,०३७.०३

यदीमिन्द्र श्रवाय्यमिषं शविष्ठ दधिषे ।

पप्रथे दीर्घश्रुत्तमं हिरण्यवर्ण दुष्टरम् ॥५,०३८.०२

कथा दाशेम नमसा सुदानूनेवया मरुतो अच्छोक्तौ प्रश्रवसो मरुतो अच्छोक्तौ ।

मा नोऽहिर्बुध्न्यो रिषे धादस्माकं भूदुपमातिवनिः ॥५,०४१.१६

प्र शर्धाय मारुताय स्वभानव इमां वाचमनजा पर्वतच्युते ।

घर्मस्तुभे दिव आ पृष्ठयज्वने द्युम्नश्रवसे महि नृम्णमर्चत ॥५,०५४.०१

रथं नु मारुतं वयं श्रवस्युमा हुवामहे ।

आ यस्मिन्तस्थौ सुरणानि बिभ्रती सचा मरुत्सु रोदसी ॥५,०५६.०८

य ईं वहन्त आशुभिः पिबन्तो मदिरं मधु ।

अत्र श्रवांसि दधिरे ॥५,०६१.११

महे नो अद्य बोधयोषो राये दिवित्मती ।

यथा चिन्नो अबोधयः सत्यश्रवसि वाय्ये सुजाते अश्वसूनृते ॥५,०७९.०१

या सुनीथे शौचद्रथे व्यौच्छो दुहितर्दिवः ।

सा व्युच्छ सहीयसि सत्यश्रवसि वाय्ये सुजाते अश्वसूनृते ॥५,०७९.०२

सा नो अद्याभरद्वसुर्व्युच्छा दुहितर्दिवः ।

यो व्यौच्छः सहीयसि सत्यश्रवसि वाय्ये सुजाते अश्वसूनृते ॥५,०७९.०३

या पृतनासु दुष्टरा या वाजेषु श्रवाय्या ।

या पञ्च चर्षणीरभीन्द्राग्नी ता हवामहे ॥५,०८६.०२

पदं देवस्य नमसा व्यन्तः श्रवस्यवः श्रव आपन्नमृक्तम् ।

नामानि चिद्दधिरे यज्ञियानि भद्रायां ते रणयन्त संदृष्टौ ॥६,००१.०४

आ यस्ततन्थ रोदसी वि भासा श्रवोभिश्च श्रवस्यस्तरुत्रः ।

बृहद्भिर्वाजै स्थविरेभिरस्मे रेवद्भिरग्ने वितरं वि भाहि ॥६,००१.११

नृवद्वसो सदमिद्धेह्यस्मे भूरि तोकाय तनयाय पश्वः ।

पूर्वीरिषो बृहतीरारेअघा अस्मे भद्रा सौश्रवसानि सन्तु ॥६,००१.१२

यस्ते यज्ञेन समिधा य उक्थैरर्केभिः सूनो सहसो ददाशत् ।

स मर्त्येष्वमृत प्रचेता राया द्युम्नेन श्रवसा वि भाति ॥६,००५.०५

पीपाय स श्रवसा मर्त्येषु यो अग्नये ददाश विप्र उक्थैः ।

चित्राभिस्तमूतिभिश्चित्रशोचिर्व्रजस्य साता गोमतो दधाति ॥६,०१०.०३

नू नश्चित्रं पुरुवाजाभिरूती अग्ने रयिं मघवद्भ्यश्च धेहि ।

ये राधसा श्रवसा चात्यन्यान्सुवीर्येभिश्चाभि सन्ति जनान् ॥६,०१०.०५

ता नृभ्य आ सौश्रवसा सुवीराग्ने सूनो सहसः पुष्यसे धाः ।

कृणोषि यच्छवसा भूरि पश्वो वयो वृकायारये जसुरये ॥६,०१३.०५

तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि ।

बृहच्छोचा यविष्ठ्य ॥६,०१६.११

स नः पृथु श्रवाय्यमच्छा देव विवाससि ।

बृहदग्ने सुवीर्यम् ॥६,०१६.१२

स नो वाजाय श्रवस इषे च राये धेहि द्युमत इन्द्र विप्रान् ।

भरद्वाजे नृवत इन्द्र सूरीन्दिवि च स्मैधि पार्ये न इन्द्र ॥६,०१७.१४

पृथू करस्ना बहुला गभस्ती अस्मद्र्यक्सं मिमीहि श्रवांसि ।

यूथेव पश्वः पशुपा दमूना अस्मां इन्द्राभ्या ववृत्स्वाजौ ॥६,०१९.०३

त्रिंशच्छतं वर्मिण इन्द्र साकं यव्यावत्यां पुरुहूत श्रवस्या ।

वृचीवन्तः शरवे पत्यमानाः पात्रा भिन्दाना न्यर्थान्यायन् ॥६,०२७.०६

स गोमघा जरित्रे अश्वश्चन्द्रा वाजश्रवसो अधि धेहि पृक्षः ।

पीपिहीषः सुदुघामिन्द्र धेनुं भरद्वाजेषु सुरुचो रुरुच्याः ॥६,०३५.०४

आसस्राणासः शवसानमच्छेन्द्रं सुचक्रे रथ्यासो अश्वाः ।

अभि श्रव ऋज्यन्तो वहेयुर्नू चिन्नु वायोरमृतं वि दस्येत् ॥६,०३७.०३

तमु त्वा सत्य सोमपा इन्द्र वाजानां पते ।

अहूमहि श्रवस्यवः ॥६,०४५.१०

धीभिरर्वद्भिरर्वतो वाजां इन्द्र श्रवाय्यान् ।

त्वया जेष्म हितं धनम् ॥६,०४५.१२

न घा वसुर्नि यमते दानं वाजस्य गोमतः ।

यत्सीमुप श्रवद्गिरः ॥६,०४५.२३

इन्द्र ज्येष्ठं न आ भरं ओजिष्ठं पपुरि श्रवः ।

येनेमे चित्र वज्रहस्त रोदसी ओभे सुशिप्र प्राः ॥६,०४६.०५

यदिन्द्र सर्गे अर्वतश्चोदयासे महाधने ।

असमने अध्वनि वृजिने पथि श्येनां इव श्रवस्यतः ॥६,०४६.१३

अभि त्यं वीरं गिर्वणसमर्चेन्द्रं ब्रह्मणा जरितर्नवेन ।

श्रवदिद्धवमुप च स्तवानो रासद्वाजां उप महो गृणानः ॥६,०५०.०६

यास्ते पूषन्नावो अन्तः समुद्रे हिरण्ययीरन्तरिक्षे चरन्ति ।

ताभिर्यासि दूत्यां सूर्यस्य कामेन कृत श्रव इच्छमानः ॥६,०५८.०३

नू न इन्द्रावरुणा गृणाना पृङ्क्तं रयिं सौश्रवसाय देवा ।

इत्था गृणन्तो महिनस्य शर्धोऽपो न नावा दुरिता तरेम ॥६,०६८.०८

सोमारुद्रा वि वृहतं विषूचीममीवा या नो गयमाविवेश ।

आरे बाधेथां निर्ऋतिं पराचैरस्मे भद्रा सौश्रवसानि सन्तु ॥६,०७४.०२

ये राधांसि ददत्यश्व्या मघा कामेन श्रवसो महः ।

तां अंहसः पिपृहि पर्तृभिष्ट्वं शतं पूर्भिर्यविष्ठ्य ॥७,०१६.१०

एकं च यो विंशतिं च श्रवस्या वैकर्णयोर्जनान्राजा न्यस्तः ।

दस्मो न सद्मन्नि शिशाति बर्हिः शूरः सर्गमकृणोदिन्द्र एषाम् ॥७,०१८.११

चत्वारो मा पैजवनस्य दानाः स्मद्दिष्टयः कृशनिनो निरेके ।

ऋज्रासो मा पृथिविष्ठाः सुदासस्तोकं तोकाय श्रवसे वहन्ति ॥७,०१८.२३

उदु ब्रह्माण्यैरत श्रवस्येन्द्रं समर्ये महया वसिष्ठ ।

आ यो विश्वानि शवसा ततानोपश्रोता म ईवतो वचांसि ॥७,०२३.०१

श्रवच्छ्रुत्कर्ण ईयते वसूनां नू चिन्नो मर्धिषद्गिरः ।

सद्यश्चिद्यः सहस्राणि शता ददन्नकिर्दित्सन्तमा मिनत् ॥७,०३२.०५

प्र बाहवा सिसृतं जीवसे न आ नो गव्यूतिमुक्षतं घृतेन ।

आ नो जने श्रवयतं युवाना श्रुतं मे मित्रावरुणा हवेमा ॥७,०६२.०५

महे नो अद्य सुविताय बोध्युषो महे सौभगाय प्र यन्धि ।

चित्रं रयिं यशसं धेह्यस्मे देवि मर्तेषु मानुषि श्रवस्युम् ॥७,०७५.०२

अभूदुषा इन्द्रतमा मघोन्यजीजनत्सुविताय श्रवांसि ।

वि दिवो देवी दुहिता दधात्यङ्गिरस्तमा सुकृते वसूनि ॥७,०७९.०३

श्रवः सूरिभ्यो अमृतं वसुत्वनं वाजां अस्मभ्यं गोमतः ।

चोदयित्री मघोनः सूनृतावत्युषा उच्छदप स्रिधः ॥७,०८१.०६

अर्वन्तो न श्रवसो भिक्षमाणा इन्द्रवायू सुष्टुतिभिर्वसिष्ठाः ।

वाजयन्तः स्ववसे हुवेम यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥७,०९०.०७

अर्वन्तो न श्रवसो भिक्षमाणा इन्द्रवायू सुष्टुतिभिर्वसिष्ठाः ।

वाजयन्तः स्ववसे हुवेम यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥७,०९१.०७

उत स्या नः सरस्वती जुषाणोप श्रवत्सुभगा यज्ञे अस्मिन् ।

मितज्ञुभिर्नमस्यैरियाना राया युजा चिदुत्तरा सखिभ्यः ॥७,०९५.०४

यद्योधया महतो मन्यमानान्साक्षाम तान्बाहुभिः शाशदानान् ।

यद्वा नृभिर्वृत इन्द्राभियुध्यास्तं त्वयाजिं सौश्रवसं जयेम ॥७,०९८.०४

यदि स्तोमं मम श्रवदस्माकमिन्द्रमिन्दवः ।

तिरः पवित्रं ससृवांस आशवो मन्दन्तु तुग्र्यावृधः ॥८,००१.१५

गाथश्रवसं सत्पतिं श्रवस्कामं पुरुत्मानम् ।

कण्वासो गात वाजिनम् ॥८,००२.३८

उदानट्ककुहो दिवमुष्ट्राञ्चतुर्युजो ददत् ।

श्रवसा याद्वं जनम् ॥८,००६.४८

स प्रथमे व्योमनि देवानां सदने वृधः ।

सुपारः सुश्रवस्तमः समप्सुजित् ॥८,०१३.०२

सुपारः – प्रारब्धस्य सम्यक्परिसमापयिता - सायण

इन्द्र शविष्ठ सत्पते रयिं गृणत्सु धारय ।

श्रवः सूरिभ्यो अमृतं वसुत्वनम् ॥८,०१३.१२

स राजसि पुरुष्टुतं एको वृत्राणि जिघ्नसे ।

इन्द्र जैत्रा श्रवस्या च यन्तवे ॥८,०१५.०३

तव द्यौरिन्द्र पौंस्यं पृथिवी वर्धति श्रवः ।

त्वामापः पर्वतासश्च हिन्विरे ॥८,०१५.०८

यस्मिन्नुक्थानि रण्यन्ति विश्वानि च श्रवस्या ।

अपामवो न समुद्रे ॥८,०१६.०२

साहा ये सन्ति मुष्टिहेव हव्यो विश्वासु पृत्सु होतृषु ।

वृष्णश्चन्द्रान्न सुश्रवस्तमान्गिरा वन्दस्व मरुतो अह ॥८,०२०.२०

स न स्तवान आ भर रयिं चित्रश्रवस्तमम् ।

निरेके चिद्यो हरिवो वसुर्ददिः ॥८,०२४.०३

तं वो वाजानां पतिमहूमहि श्रवस्यवः ।

अप्रायुभिर्यज्ञेभिर्वावृधेन्यम् ॥८,०२४.१८

अश्विना स्वृषे स्तुहि कुवित्ते श्रवतो हवम् ।

नेदीयसः कूळयातः पणींरुत ॥८,०२६.१०

विशां राजानमद्भुतमध्यक्षं धर्मणामिमम् ।

अग्निमीळे स उ श्रवत् ॥८,०४३.२४

मन्द्रं होतारमृत्विजं चित्रभानुं विभावसुम् ।

अग्निमीळे स उ श्रवत् ॥८,०४४.०६

वि षु विश्वा अभियुजो वज्रिन्विष्वग्यथा वृह ।

भवा नः सुश्रवस्तमः ॥८,०४५.०८

यो दुष्टरो विश्ववार श्रवाय्यो वाजेष्वस्ति तरुता ।

स नः शविष्ठ सवना वसो गहि गमेम गोमति व्रजे ॥८,०४६.०९

आ स एतु य ईवदां अदेवः पूर्तमाददे ।

यथा चिद्वशो अश्व्यः पृथुश्रवसि कानीतेऽस्या व्युष्याददे ॥८,०४६.२१

दानासः पृथुश्रवसः कानीतस्य सुराधसः ।

रथं हिरण्ययं ददन्मंहिष्ठः सूरिरभूद्वर्षिष्ठमकृत श्रवः ॥८,०४६.२४

नेह भद्रं रक्षस्विने नावयै नोपया उत ।

गवे च भद्रं धेनवे वीराय च श्रवस्यतेऽनेहसो व ऊतयः सुऊतयो व ऊतयः ॥८,०४७.१२

यस्य त्वमिन्द्र स्तोमेषु चाकनो वाजे वाजिञ्छतक्रतो ।

तं त्वा वयं सुदुघामिव गोदुहो जुहूमसि श्रवस्यवः ॥८,०५२.०४

आदित्साप्तस्य चर्किरन्नानूनस्य महि श्रवः ।

श्यावीरतिध्वसन्पथश्चक्षुषा चन संनशे ॥८,०५५.०५

आ याहि कृणवाम त इन्द्र ब्रह्माणि वर्धना ।

येभिः शविष्ठ चाकनो भद्रमिह श्रवस्यते भद्रा इन्द्रस्य रातयः ॥८,०६२.०४

उदू षु णो वसो महे मृशस्व शूर राधसे ।

उदू षु मह्यै मघवन्मघत्तय उदिन्द्र श्रवसे महे ॥८,०७०.०९

सा द्युम्नैर्द्युम्निनी बृहदुपोप श्रवसि श्रवः ।

दधीत वृत्रतूर्ये ॥८,०७४.०९

अश्वमिद्गां रथप्रां त्वेषमिन्द्रं न सत्पतिम् ।

यस्य श्रवांसि तूर्वथ पन्यम्पन्यं च कृष्टयः ॥८,०७४.१०

हन्तो नु किमाससे प्रथमं नो रथं कृधि ।

उपमं वाजयु श्रवः ॥८,०८०.०५

अभि प्र भर धृषता धृषन्मनः श्रवश्चित्ते असद्बृहत् ।

अर्षन्त्वापो जवसा वि मातरो हनो वृत्रं जया स्वः ॥८,०८९.०४

यस्ते चित्रश्रवस्तमो य इन्द्र वृत्रहन्तमः ।

य ओजोदातमो मदः ॥८,०९२.१७

गौर्धयति मरुतां श्रवस्युर्माता मघोनाम् ।

युक्ता वह्नी रथानाम् ॥८,०९४.०१

स वृत्रहेन्द्रश्चर्षणीधृत्तं सुष्टुत्या हव्यं हुवेम ।

स प्राविता मघवा नोऽधिवक्ता स वाजस्य श्रवस्यस्य दाता ॥८,०९६.२०

मत्स्वा सुशिप्र हरिवस्तदीमहे त्वे आ भूषन्ति वेधसः ।

तव श्रवांस्युपमान्युक्थ्या सुतेष्विन्द्र गिर्वणः ॥८,०९९.०२

बट्सूर्य श्रवसा महां असि सत्रा देव महां असि ।

मह्ना देवानामसुर्यः पुरोहितो विभु ज्योतिरदाभ्यम् ॥८,१०१.१२

स दृळ्हे चिदभि तृणत्ति वाजमर्वता स धत्ते अक्षिति श्रवः ।

त्वे देवत्रा सदा पुरूवसो विश्वा वामानि धीमहि ॥८,१०३.०५

अभ्यर्ष महानां देवानां वीतिमन्धसा ।

अभि वाजमुत श्रवः ॥९,००१.०४

सना च सोम जेषि च पवमान महि श्रवः ।

अथा नो वस्यसस्कृधि ॥९,००४.०१

अभि त्यं पूर्व्यं मदं सुवानो अर्ष पवित्र आ ।

अभि वाजमुत श्रवः ॥९,००६.०३

प्र स्वानासो रथा इवार्वन्तो न श्रवस्यवः ।

सोमासो राये अक्रमुः ॥९,०१०.०१

प्र सोमासो मदच्युतः श्रवसे नो मघोनः ।

सुता विदथे अक्रमुः ॥९,०३२.०१

अस्मे धेहि द्युमद्यशो मघवद्भ्यश्च मह्यं च ।

सनिं मेधामुत श्रवः ॥९,०३२.०६

अभ्यर्ष विचक्षण पवित्रं धारया सुतः ।

अभि वाजमुत श्रवः ॥९,०५१.०५

उच्चा ते जातमन्धसो दिवि षद्भूम्या ददे ।

उग्रं शर्म महि श्रवः ॥९,०६१.१०

एते सोमा असृक्षत गृणानाः श्रवसे महे ।

मदिन्तमस्य धारया ॥९,०६२.२२

आ पवस्व सहस्रिणं रयिं सोम सुवीर्यम् ।

अस्मे श्रवांसि धारय ॥९,०६३.०१

अभ्यर्ष सहस्रिणं रयिं गोमन्तमश्विनम् ।

अभि वाजमुत श्रवः ॥९,०६३.१२

पवमान नि तोशसे रयिं सोम श्रवाय्यम् ।

प्रियः समुद्रमा विश ॥९,०६३.२३

प्र सोम याहि धारया सुत इन्द्राय मत्सरः ।

दधानो अक्षिति श्रवः ॥९,०६६.०७

पवमानस्य ते कवे वाजिन्सर्गा असृक्षत ।

अर्वन्तो न श्रवस्यवः ॥९,०६६.१०

इन्दो व्यव्यमर्षसि वि श्रवांसि वि सौभगा ।

वि वाजान्सोम गोमतः ॥९,०६७.०५

स भिक्षमाणो अमृतस्य चारुण उभे द्यावा काव्येना वि शश्रथे ।

तेजिष्ठा अपो मंहना परि व्यत यदी देवस्य श्रवसा सदो विदुः ॥९,०७०.०२

यं त्वा वाजिन्नघ्न्या अभ्यनूषतायोहतं योनिमा रोहसि द्युमान् ।

मघोनामायुः प्रतिरन्महि श्रव इन्द्राय सोम पवसे वृषा मदः ॥९,०८०.०२

एन्द्रस्य कुक्षा पवते मदिन्तम ऊर्जं वसानः श्रवसे सुमङ्गलः ।

प्रत्यङ्स विश्वा भुवनाभि पप्रथे क्रीळन्हरिरत्यः स्यन्दते वृषा ॥९,०८०.०३

एते सोमा अभि गव्या सहस्रा महे वाजायामृताय श्रवांसि ।

पवित्रेभिः पवमाना असृग्रञ्छ्रवस्यवो न पृतनाजो अत्याः ॥९,०८७.०५

स्वायुधः सोतृभिः पूयमानोऽभ्यर्ष गुह्यं चारु नाम ।

अभि वाजं सप्तिरिव श्रवस्याभि वायुमभि गा देव सोम ॥९,०९६.१६

अर्वां इव श्रवसे सातिमच्छेन्द्रस्य वायोरभि वीतिमर्ष ।

स नः सहस्रा बृहतीरिषो दा भवा सोम द्रविणोवित्पुनानः ॥९,०९७.२५

उत न एना पवया पवस्वाधि श्रुते श्रवाय्यस्य तीर्थे ।

षष्टिं सहस्रा नैगुतो वसूनि वृक्षं न पक्वं धूनवद्रणाय ॥९,०९७.५३

पवमान महि श्रवश्चित्रेभिर्यासि रश्मिभिः ।

शर्धन्तमांसि जिघ्नसे विश्वानि दाशुषो गृहे ॥९,१००.०८

य ओजिष्ठस्तमा भर पवमान श्रवाय्यम् ।

यः पञ्च चर्षणीरभि रयिं येन वनामहै ॥९,१०१.०९

येना नवग्वो दध्यङ्ङपोर्णुते येन विप्रास आपिरे ।

देवानां सुम्ने अमृतस्य चारुणो येन श्रवांस्यानशुः ॥९,१०८.०४

अभ्यभि हि श्रवसा ततर्दिथोत्सं न कं चिज्जनपानमक्षितम् ।

शर्याभिर्न भरमाणो गभस्त्योः ॥९,११०.०५

त्वे सोम प्रथमा वृक्तबर्हिषो महे वाजाय श्रवसे धियं दधुः ।

स त्वं नो वीर वीर्याय चोदय ॥९,११०.०७

यदा वज्रं हिरण्यमिदथा रथं हरी यमस्य वहतो वि सूरिभिः ।

आ तिष्ठति मघवा सनश्रुत इन्द्रो वाजस्य दीर्घश्रवसस्पतिः ॥१०,०२३.०३

अयं यो वज्रः पुरुधा विवृत्तोऽवः सूर्यस्य बृहतः पुरीषात् ।

श्रव इदेना परो अन्यदस्ति तदव्यथी जरिमाणस्तरन्ति ॥१०,०२७.२१

एतानि भद्रा कलश क्रियाम कुरुश्रवण ददतो मघानि ।

दान इद्वो मघवानः सो अस्त्वयं च सोमो हृदि यं बिभर्मि ॥१०,०३२.०९

कुरुश्रवणमावृणि राजानं त्रासदस्यवम् ।

मंहिष्ठं वाघतामृषिः ॥१०,०३३.०४

यस्य प्रस्वादसो गिर उपमश्रवसः पितुः ।

क्षेत्रं न रण्वमूचुषे ॥१०,०३३.०६

प्र याः सिस्रते सूर्यस्य रश्मिभिर्ज्योतिर्भरन्तीरुषसो व्युष्टिषु ।

भद्रा नो अद्य श्रवसे व्युच्छत स्वस्त्यग्निं समिधानमीमहे ॥ १०,०३५.०५

उप ह्वये सुहवं मारुतं गणं पावकमृष्वं सख्याय शम्भुवम् ।

रायस्पोषं सौश्रवसाय धीमहि तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे ॥ १०,०३६.०७

स नः क्षुमन्तं सदने व्यूर्णुहि गोअर्णसं रयिमिन्द्र श्रवाय्यम् ।

स्याम ते जयतः शक्र मेदिनो यथा वयमुश्मसि तद्वसो कृधि ॥ १०,०३८.०२

पृथक्प्रायन्प्रथमा देवहूतयोऽकृण्वत श्रवस्यानि दुष्टरा ।

न ये शेकुर्यज्ञियां नावमारुहमीर्मैव ते न्यविशन्त केपयः ॥१०,०४४.०६

आ तं भज सौश्रवसेष्वग्न उक्थउक्थ आ भज शस्यमाने ।

प्रियः सूर्ये प्रियो अग्ना भवात्युज्जातेन भिनददुज्जनित्वैः ॥१०,०४५.१०

सामन्नु राये निधिमन्न्वन्नं करामहे सु पुरुध श्रवांसि ।

ता नो विश्वानि जरिता ममत्तु परातरं सु निर्ऋतिर्जिहीताम् ॥१०,०५९.०२

अधा न्वस्य जेन्यस्य पुष्टौ वृथा रेभन्त ईमहे तदू नु ।

सरण्युरस्य सूनुरश्वो विप्रश्चासि श्रवसश्च सातौ ॥१०,०६१.२४

हव एषामसुरो नक्षत द्यां श्रवस्यता मनसा निंसत क्षाम् ।

चक्षाणा यत्र सुविताय देवा द्यौर्न वारेभिः कृणवन्त स्वैः ॥१०,०७४.०२

इन्द्राणीमासु नारिषु सुभगामहमश्रवम् ।

नह्यस्या अपरं चन जरसा मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१०,०८६.११

ऐषु द्यावापृथिवी धातं महदस्मे वीरेषु विश्वचर्षणि श्रवः ।

पृक्षं वाजस्य सातये पृक्षं रायोत तुर्वणे ॥१०,०९३.१०

प्र ते रथं मिथूकृतमिन्द्रोऽवतु धृष्णुया ।

अस्मिन्नाजौ पुरुहूत श्रवाय्ये धनभक्षेषु नोऽव ॥१०,१०२.०१

उद्नो ह्रदमपिबज्जर्हृषाणः कूटं स्म तृंहदभिमातिमेति ।

प्र मुष्कभारः श्रव इच्छमानोऽजिरं बाहू अभरत्सिषासन् ॥१०,१०२.०४

व्यर्य इन्द्र तनुहि श्रवांस्योज स्थिरेव धन्वनोऽभिमातीः ।

अस्मद्र्यग्वावृधानः सहोभिरनिभृष्टस्तन्वं वावृधस्व ॥१०,११६.०६

त्वं मायाभिरनवद्य मायिनं श्रवस्यता मनसा वृत्रमर्दयः ।

त्वामिन्नरो वृणते गविष्टिषु त्वां विश्वासु हव्यास्विष्टिषु ॥ १०,१४७.०२

परीमे गामनेषत पर्यग्निमहृषत ।

देवेष्वक्रत श्रवः क इमां आ दधर्षति ॥(विश्वेदेवा) १०,१५५.०५