पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Shamku - Shtheevana) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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श्रावण मास के कृत्य श्रावण मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा श्रवण नक्षत्र के निकट रहता है। अतः इस मास का नाम श्रावण है। श्रवण नक्षत्र का लक्षण है – पृच्छमाना परस्तात्, पन्था अवस्तात्। अर्थात् जिन लोगों को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हो गई है, उनके लिए दूसरे चरण में मार्गदर्शन होने ही वाला है। अथवा कह सकते हैं कि जहां चाह है, वहां राह है(इस सूत्र में उत्तर कौन देता है, यह निश्चित नहीं किया गया है)। लोक में प्रचलित श्रावण मास के कृत्यों में एक प्रमुख कृत्य है – सूत्र या यज्ञोपवीत धारण। इस पर्व पर पुराने यज्ञोपवीत को निकाल कर नया सूत्र धारण करते हैं। लोक में तो यही व्यवहार प्रचलन में है। लेकिन शास्त्रीय दृष्टि से यह पूरा मास ही सूत्र के निर्माण से सम्बन्धित है। सबसे पहले तन्तुओं को लेकर सूत्र को काता जाता है। तन्तु स्वर्ण के, चन्द्रिका के, कार्पास के, रेशम के या शण के हो सकते हैं। साधना का जैसा स्तर होगा, उसी के अनुसार तन्तु का द्रव्य होगा। कहा गया है कि यह संसार एक वस्त्र की भांति है। वस्त्र का मूलभूत द्रव्य कपास के तन्तु हैं। लेकिन यह तन्तु हमें दिखाई नहीं देते। केवल वस्त्र दिखाई देता है। ऐसे ही संसार में कार्य तो दिखाई देता है, उसके पीछे छिपा कारण दिखाई नहीं देता। तन्तु कारण का प्रतीक है। वस्त्र के पीछे छिपे तन्तु को, कारण को देखना ही उपयुक्त होगा। और इस तन्तु को, कारण को, छोटा अथवा क्षणिक नहीं होना चाहिए, अपितु हमें इसका विस्तार करके इसे सूत्र का रूप देना चाहिए। तन्तु का विस्तार केवल लम्बाई में ही नहीं होगा, अपितु काल के अनुदिश भी होना चाहिए। उपनिषदों में यज्ञोपवीत को ज्ञान, ओंकार संज्ञा दी गई है। हमारा ज्ञान प्रत्येक कार्य के पीछे कारण बन जाए, यह अपेक्षित है। कोई भी कार्य हमसे अज्ञान में न हो। उपनिषदों में कठोरता से कहा गया है कि बाह्य यज्ञोपवीत को त्याग कर अन्दर का यज्ञोपवीत धारण करो। यह भी कहा गया है कि एक यज्ञोपवीत नहीं, दोनों यज्ञोपवीत होने चाहिएं। इन कारणों को, तन्तुओं को दिव्य रूप देने की आवश्यकता है। कहा गया है कि इन तन्तुओं में सूर्य की रश्मियों का प्रवेश होना चाहिए। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि सूर्य की रश्मियां ही तन्तु रूप, कारण रूप हो जानी चाहिएं। तन्तु अन्धकार रूप नहीं रह जाने चाहिएं। फिर इन तन्तुओं को परस्पर मिलाकर सूत्र का निर्माण किया जा सकता है। यह भी कहा गया है कि जिस प्रकार मकडी(ऊर्णनाभि) तन्तुओं का जाल बुनती रहती है, लेकिन उस जाल से वह स्वयं निर्लिप्त रहती है, इसी प्रकार हमें भी इस कार्य – कारण जाल से निर्लिप्त रहना चाहिए। एक संदर्भ (तैत्तिरीय ब्राह्मण) में यज्ञ के ऋत्विजों को तन्तु कहा गया है। एक उपनिषद में ब्रह्म को जगत रूपी वस्त्र का तन्तु कहा गया है। तन्तु शब्द का मूल है – तत, विस्तार करना। बाह्य तन्तु में एक से दूसरा अणु एकल दिशा में जुडता चला जाता है। शास्त्रीय तन्तु में यह ततन या विस्तार काल के सापेक्ष भी होगा। तभी वह भूत – भविष्य से सम्बन्धित कारण बन सकता है। स्थूल रूप में, इस विश्व में जड वस्तुओं के तन्तु किसी घटना का कारण बनते हों, ऐसा उदाहरण ध्यान में नहीं आता। वनस्पति जगत में तन्तुओं के कारण बनने के उदाहरण दिए जा सकते हैं। वनस्पति द्वारा कौन से तत्त्व अवशोषित किए जाएंगे, इसका निर्णय उसके तन्तुओं द्वारा ही होता है। प्राण के स्तर पर तन्तुओं के कारण बनने का उदाहरण खोजा जा सकता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में यदि कोई व्याधि हो जाए तो अंग विशेष की बायोप्सी की जाती है, अंग विशेष की कोशिकाओं को निकाल कर उनको सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखा जाता है कि विकृति कहां है। यह वस्त्र के एक तन्तु को निकाल कर वस्त्र के गुण को परखने का एक उदाहरण है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में गठिया रोग का कारण यह बताया गया है कि शरीर में एक कोशिका लगभग 28 बार विभाजित होकर नई कोशिका बनाती है। इसके पश्चात् यह कोशिका मर जाती है। गठिया रोग की स्थिति में कोशिका का विभाजन घटकर 17 – 18 की संख्या तक पहुंच जाता है। ऐसी स्थिति में गठिया रोग हो जाता है। एक कोशिका के विभाजन की क्षमता जितनी अधिक होगी, उतनी ही आयु दीर्घ होती चली जाएगी। यह एक उदाहरण है जहां तन्तु में काल निहित है। शास्त्रों में सूत्र को त्रिवृत, तिहरा लेने का निर्देश है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में पाया गया है कि डी एन ए की दो शृंखलाएं परस्पर लिपटी रहती हैं। यह एक दूसरे के गुणों को आच्छादित किए रहती हैं। कुछ ऐसे रसायन हैं जो इस लिपटने को समाप्त कर दोनों शृंखलाओं को अलग – अलग खडा कर देते हैं। तब इनका परीक्षण सरल हो जाता होगा। हमारे शास्त्रों में तो दो नहीं, तीन लपेट हैं। अतः यह अन्वेषणीय है कि सूत्र को त्रिवृत् कहने से क्या तात्पर्य है। एक मन्त्र(ऋ. 2.28.5) में कहा गया है कि मा तन्तुश्छेदि वयतो धियं मे। अर्थात् हे परमात्मा, जब तुम मेरी धी, बुद्धि के ताने – बाने को बुन रहे होते हो, उस समय तन्तु को छिन्न न करना। इस मन्त्र के संदर्भ में प्रश्न उठाया जा सकता है कि बुद्धि एक तन्तु से बनती है अथवा बहुत से तन्तुओं से। मन्त्र में तो केवल एक अच्छिन्न तन्तु का ही उल्लेख आ रहा है जबकि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार मस्तिष्क को बहुसंख्यक तन्तुओं से निर्मित माना जाता है। शरीर में मस्तिष्क को संवेदना पहुंचाने वाली बहुत सी नाडियां या दीर्घतन्तु होते हैं जिनमें कैल्शियम तत्त्व के माध्यम से सूचनाओं का संचार होता है। मधुमेह की चरम स्थिति में इन नाडियों का बाहरी आवरण किन्हीं कारणों से नष्ट होने लगता है। ऐसी स्थिति में वह अंग संवेदना – शून्य होने लगता है। इसका उपाय यह बताया गया है कि दुग्ध के कैल्शियम का अधिक से अधिक उपयोग किया जाए। एक मन्त्र में कहा गया है कि जैसे दूर्वा के तन्तु होते हैं, ऐसे ही मेरी दुर्मति को दूर करो। दूर्वा का अर्थ होता है – दुर् – वाति, जो दुःख को दूर करे। इसका व्यावहारिक उदाहरण अन्वेषणीय है। श्री सुबोध कुमार जी के अनुसार गौ के गोबर में लगभग 10 प्रतिशत तन्तु ऐसे होते हैं जिनको दीमक नहीं खाती। अतः यह प्रस्ताव है कि इन तन्तुओं को निकाल कर कागज में मिला दिया जाए जिससे कागज दीमक – रोधी बन सके। इस मास की प्रत्येक तिथि को उस तिथि के देवता के लिए पवित्रक अर्पित किया जाता है। पवित्रक बनाने के लिए जिस सूत्र की आवश्यकता होती है, उसको स्वयं कातने का, या ब्राह्मणी द्वारा काते जाने का या कन्या द्वारा काते जाने का निर्देश है। पवित्रक बनाने के लिए निश्चित दैर्घ्य का सूत्र लेकर उसको तिहरा करने का निर्देश है और फिर उसमें निश्चित मात्रा में ग्रन्थियां लगानी होती है। सूत्र का परिमाण अलग – अलग संदर्भों में अलग – अलग बताया गया है। एक परिमाण 96 + 12 अंगुल है। इसमें 96 परिमाण मनुष्य का उच्छ्राय 96 अंगुल होने के कारण है। प्राणों का परिमाण इन 96 से भी आगे 12 अंगुल और अधिक होता है। इस प्रकार कुल परिमाण 108 अंगुल हो गया। ग्रन्थियों को प्रकृति का रूप कहा गया है। रक्षाबन्धन के उत्सव में इन ग्रन्थियों ने मणि का रूप धारण कर लिया है। ऋग्वेद 2.3.6 में तन्तु को बुनने वाली शक्ति के रूप में सरस्वती का निर्देश है। श्रावण मास का दूसरा महत्त्वपूर्ण कृत्य है – कोकिला व्रत, कोकिला पक्षी का निर्माण, कोकिला वाणी का निर्माण। कोकिल को गौरी का, प्रकृति के सर्वश्रेष्ठ रूप का प्रतीक कहा गया है। इसका शास्त्रीय पक्ष है कौकिल सौत्रामणी। आख्यान आता है कि किसी यज्ञ में इन्द्र ने बिना बुलाए ही आकर सोमरस का पान कर लिया। इस पर वह सोम रस उसकी विभिन्न इन्द्रियों से सिंह, व्याघ्र आदि आरण्यक पशुओं के रूप में स्रवित हुआ। कौकिल सौत्रामणी याग के माध्यम से इन्द्र की चिकित्सा की जाती है कि इन्द्र का जो बल आरण्यक पशुओं के रूप में स्रवित होकर नष्ट हो गया है, उसको इन्द्र में पुनः स्थापित किया जाए। इन्द्र इन्द्रियों का स्वामी बन जाए। इस चिकित्सा कर्म में तीन देवता योगदान देते हैं – प्रातःसवन में अश्विनौ, माध्यन्दिन सवन में इन्द्र व तृतीय सवन में सरस्वती। कोकिला पक्षी के दो पक्ष बनाए जाते हैं। एक पक्ष पयः, दुग्ध द्वारा बनता है। यह दैवी पक्ष है। दूसरा पक्ष सुरा द्वारा, मदिरा द्वारा बनता है। यह आसुरी पक्ष है। हमारी इन्द्रियां जिस ऊर्जा को प्राप्त करके कार्य करती हैं, उसका विज्ञान यह है कि हमारे द्वारा भक्षित अन्न पहले ग्लूकोज या शर्करा में बदलता है। शर्करा का विघटन सुरा में होता है और सुरा का विघटन कार्बन डाई आक्साईड व जल में। सुरा के विघटन से ऊष्मा का जनन होता है जो हमारी सारी इन्द्रियों को प्राप्त होती है। जो आत्मा का बल है, उसको अन्तस्थ कहते हैं, वह रासायनिक क्रियाएं जिनमें ऊर्जा बाहर नहीं निकलती, उल्टे अवशोषित होती है। कौकिल सौत्रामणी में जो पयः वाले पक्ष का शोधन किया जाता है, वह पवित्र या यज्ञोपवीत द्वारा किया जाता है। जो सुरा का शोधन किया जाता है, वह सौ छेदों वाली छलनी से किया जाता है। ऐसा आभास होता है कि रक्षाबन्धन पर्व के निकट जो घेवर नाम वाले मिष्टान्न पदार्थ के निर्माण का प्रचलन है, वह इस सौ छेद वाली छलनी का प्रतीक है। सामान्य जीवन के सुरा यज्ञ और सौत्रामणी याग के सुरा यज्ञ में सबसे स्पष्ट अन्तर यह है कि सौत्रामणी में जिस अंकुरित धान्य से सुरा का सन्धान किया जाता है, उस धान्य का क्रय सीसे के बदले एक क्लीब व्यक्ति से किया जाता है। तीन रात्रि तक सुरा का सन्धान किया जाता है। प्रथम रात्रि में अश्विनौ के लिए, द्वितीय में इन्द्र के लिए और तीसरी में सरस्वती के लिए। यह स्पष्ट नहीं है कि कोकिल के दोनों पक्ष प्रवर्ग्य के अंग हैं या केवल एक।
प्रथम लेखन – 13-8-2015ई.(श्रावण कृष्ण चतुर्दशी, विक्रम संवत् 2072) |