पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Shamku - Shtheevana) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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षोडशी टिप्पणी : पुराणों में कृष्ण - प्रेयसी राधा को षोडशी कहा जाता है । चन्द्रमा के १६ कलाओं से युक्त होने का उल्लेख भी प्रायः आता है । प्रायः एक पक्ष की प्रतिपदा आदि १५ तिथियों को ही चन्द्रमा की १५ कलाएं माना जाता है । लेकिन १६वी कला कौन सी है, यह स्पष्ट नहीं है । पुराणों में अमावास्या के संदर्भ में प्रायः उल्लेख आते हैं कि अमावास्या की रात्रि को चन्द्रमा १५ कलाओं से क्षीण हो जाता है और अवशिष्ट १६वी कला के रूप में ओषधियों आदि में प्रवेश कर जाता है और फिर प्रतिपदा को एक नए रूप में जन्म लेता है । चूंकि अमावास्या को ओषधियों में चन्द्रमा का वास रहता है, अतः निर्देश है कि इस दिन ओषधियों, वनस्पतियों आदि को न तोडे । ऐसा ही कथन शतपथ ब्राह्मण १४.४.३.२२ में भी प्राप्त होता है । पुराणों के इस कथन का विस्तृत रूप षड्-विंश ब्राह्मण ५.६.२ में प्राप्त होता है जहां कहा गया है कि आदित्य गण द्यौ रूपी पात्र द्वारा चन्द्रमा की प्रथम ५ कलाओं का भक्षण करते हैं । फिर रुद्रगण अन्तरिक्ष पात्र द्वारा चन्द्रमा की द्वितीय ५ कलाओं का भक्षण करते हैं । फिर वसुगण पृथिवी पात्र द्वारा चन्द्रमा की तृतीय ५ कलाओं का भक्षण करते हैं । षोडशी कला शेष रह जाती है । वह ओषधियों, वनस्पतियों, गायों, पशुओं, आदित्य, ब्रह्म व ब्राह्मण में प्रवेश कर जाती है । चन्द्रमा को प्रलय की ओर जाते देख कर देवगण उस रात्रि में उसमें वास करते हैं, यही अमावास्या नाम का कारण है । षड्-विंश ब्राह्मण के इस कथन को अग्निहोत्र के संदर्भ में प्राप्त जैमिनीय ब्राह्मण १.७ के आधार पर समझा जा सकता है । यहां कहा गया है कि अस्त होता हुआ आदित्य इस पृथिवी में ६ प्रकार से प्रवेश करता है । फिर रात भर यह आदित्य गर्भ रूप में रहता है और प्रातःकाल के अग्निहोत्र द्वारा आदित्य के इस नए रूप को प्राप्त किया जाता है । यह ध्यान देने योग्य है कि आदित्य सायंकाल पृथिवी में किस रूप में अस्त होता है । ब्राह्मण में श्रद्धा रूप से, पशुओं में पयः रूप में, अग्नि में तेजस् रूप में, ओषधियों में ऊर्क् रूप से, आपः में रस रूप से और वनस्पतियों में स्वधा रूप से । सायंकाल के अग्निहोत्र में इस आदित्य का संभरण इन्हीं वस्तुओं से किया जाता है । प्रातःकाल अग्निहोत्र में ब्राह्मण द्वारा जो पात्र को चमकाया जाता है, उससे ब्राह्मण में श्रद्धा रूप से प्रविष्ट हुए सूर्य को प्राप्त किया जाता है । अग्निहोत्र हेतु पशुओं से जो पयः का दोहन किया जाता है, उसके द्वारा पयः में प्रविष्ट आदित्य को प्राप्त किया जाता है । जो अङ्गारों का निरूहण किया जाता है, उससे अग्नि में प्रविष्ट आदित्य का संभरण किया जाता है । अग्निहोत्र में जो तृण का अवज्योतन किया जाता है, उसके द्वारा ओषधियों में प्रविष्ट सूर्य को प्राप्त किया जाता है । अग्निहोत्र हेतु जो जल लाया जाता है, उसके द्वारा आपः में रस रूप में प्रविष्ट सूर्य को प्राप्त किया जाता है । अग्निहोत्र में जो समिधा का प्रयोग किया जाता है, उसके द्वारा वनस्पतियों में स्वधा रूप में प्रविष्ट सूर्य को प्राप्त किया जाता है ( व्यावहारिक रूप में इसको इस प्रकार लिया जा सकता है कि साधक आरम्भ में ६ विधाओं में से किसी भी एक की ओर ध्यान केन्द्रित कर सकता है ) । आदित्य के संदर्भ में तो विस्तृत कथन उपलब्ध है कि वह पृथिवी पर किस वस्तु में किस रूप में प्रवेश करता है, लेकिन चन्द्रमा की १६वी कला ओषधियों आदि में किस रूप में प्रवेश करती है, यह कथन प्राप्त नहीं है । प्रश्न यह उठता है कि सूर्य और चन्द्रमा को इस प्रकार पृथिवी में या ओषधियों या अन्य द्रव्यों में प्रवेश की क्या आवश्यकता है ? जड पदार्थों के संदर्भ में इसका स्थूल उत्तर हाल ही में श्री जे.ए.गोवान द्वारा प्रस्तावित किया गया है कि यदि यह विश्व केवल सूक्ष्म ऊर्जा से बना हो, स्थूल पदार्थ का अस्तित्व न हो तो यह ऊर्जा सूर्य की किरणों के रूप में सारे ब्रह्माण्ड में प्रकाश की गति से अपना विस्तार करती है । इस विस्तार के कारण अव्यवस्था में, एण्ट्रांपी में वृद्धि होती है । ऊर्जा को अधिक काल तक सुरक्षित रखने के लिए यह आवश्यक था कि ऊर्जा अपने को जड पदार्थ में रूपान्तरित करे जिससे अव्यवस्था में वृद्धि की दर कम हो जाए ( तापगतिकी के दूसरे नियम के अनुसार इस विश्व की एण्ट्रांपी में वृद्धि हो रही है, सारा विश्व अव्यवस्था की ओर अग्रसर हो रहा है ) । अतः इस विश्व में जड पदार्थ का निर्माण हुआ । लेकिन विज्ञानकर्मियों ने इस निर्माण में एक त्रुटि का अनुमान लगाया गया । एक सिद्धान्त के अनुसार सूर्य से चारों ओर फैलने वाली ऊर्जा सममित है, दिशाओं से रहित है जबकि जड पदार्थ दिशाओं से युक्त है, असममित है । श्री गोवान द्वारा प्रस्ताव रखा गया है कि जड पदार्थ में जो आवेश युक्त कण पाए जाते हैं, वह उसी मूलभूत ऊर्जा की सममिति का प्रतीक है । यह तो जड पदार्थ के संदर्भ में कहा गया । अब हम पृथिवी पर प्राणी जगत के आविर्भाव पर विचार करते हैं । ऐसा अनुमान है कि यद्यपि इस विश्व की एण्ट्रांपी में वृद्धि हो रही है, लेकिन प्राणी जगत इस प्रकृति को एण्ट्रांपी में ह्रास की ओर उन्मुख करता है । ऐसा माना जाता है कि जड पृथिवी में प्राणों का संचार उसमें सूर्य के प्रवेश के कारण होता है । प्राण सूर्य का रूप हैं । लेकिन जड पदार्थ में प्राणों का संचार होते ही प्राण तृष्णा, क्षुधा, निद्रा आदि से ग्रस्त होते हुए पाए जाते हैं । प्राणों को क्षुधा तृप्ति के लिए अन्न चाहिए । अन्न प्रदान करने का कार्य चन्द्रमा द्वारा समझा जाता है । इस प्रकार जड पदार्थ का निर्माण होने पर असममिति की जो समस्या रह गई थी, उसकी पूर्ति प्राणी जगत में सूर्य और चन्द्रमा द्वारा होती है । क्षुधा आदि विकारों को सममिति के विपरीत असममित कहा जा सकता है जबकि क्षुधा की तृप्ति को सममिति प्राप्ति कहा जा सकता है । अतः जब अग्निहोत्र के संदर्भ में पृथिवी में सूर्य का प्रवेश कहा जाता है तो उससे तात्पर्य जड जगत में प्राणों के संचार से हो सकता है और जब चन्द्रमा का प्रवेश कहा जाता है तो उससे तात्पर्य प्राणों को तृप्त करने से, सममिति प्राप्त करने से हो सकता है । यह उल्लेखनीय है कि जड पदार्थों के संदर्भ में असममिति की पूर्ति के लिए एक प्रति - पदार्थ की कल्पना की गई है और अनुमान लगाया जाता है कि एक ऐसा विश्व है जो केवल प्रति - पदार्थ से बना है । वैदिक साहित्य में षोडशी शब्द मुख्य रूप से तीन संदर्भों में प्रकट होता है । पृष्ठ्य षडह नामक ६ दिनों के यज्ञ में चतुर्थ अह में षोडशी ग्रह की प्रतिष्ठा होती है । इसी अह के अन्त में उक्थ्य स्तोत्रों के पश्चात् गौरीवितम् नामक षोडशी स्तोत्र का गान किया जाता है । षोडशी ग्रह प्रतिष्ठा के मन्त्र वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता ८.३३-३७, तैत्तिरीय संहिता १.४.३७.१ - १.४.४२.१, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.९.५(यस्मान्न इति) आदि में प्राप्त होते हैं । इन मन्त्रों में से एक पद ''त्रीणि ज्योतींषि सचते स षोडशी'' को सार्वत्रिक रूप से उद्धृत किया जाता है ( उदाहरणार्थ, तैत्तिरीय आरण्यक १०.१०.२, वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता ३२.५) । मन्त्र की इस पंक्ति का पहला पद ''प्रजापति: प्रजया संरराण:'' या ''प्रजापति: प्रजया संविदानः'' है । यह तीन ज्योतियां कौन सी होंगी, इस संदर्भ में सायणाचार्य का विचार है कि अग्नि, आदित्य व चन्द्रमा तीन ज्योतियां हैं । प्रजापति की प्रजा को १५ कलाओं का रूप माना जा सकता है । पौराणिक साहित्य में षोडशी त्रिपुरसुन्दरी का उल्लेख आता है । यहां त्रिपुरसुन्दरी शब्द में शेष १५ कलाएं निहित हो सकती हैं । मन्त्र से स्पष्ट है कि जिस स्थान पर तीन ज्योतियों का मिलन हो जाए, वह षोडशी कहलाने योग्य है । योग विज्ञान में इडा, पिङ्गला व सुषुम्ना का योग महत्त्वपूर्ण कहा गया है जहां इडा चन्द्र रूप व पिङ्गला सूर्य रूप समझी जाती है । जब अमावास्या को चन्द्रमा की षोडशी कला का पृथिवी पर ओषधियों में प्रवेश कहा जाता है तो यह समझा जा सकता है कि ओषधियों में अग्नि व सूर्य ज्योतियां तो पहले से ही विद्यमान हैं और तीसरी ज्योति के रूप में चन्द्रमा का प्रवेश होने से षोडशी का आविर्भाव संभव हो जाता है । षोडशी और उसकी शेष १५ कलाओं के संदर्भ में, वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से संवत्सर रूप प्रजापति को १६ कलाओं से युक्त कहा गया है ( उदाहरण के लिए, शतपथ ब्राह्मण १४.४.३.२२/बृहदारण्यक उपनिषद १.३.२२) । कहा गया है कि रात्रियां इसकी १५ कलाएं हैं । ध्रुवा इसकी १६वी कला है । वह रात्रियों के द्वारा ही क्षीण होता और आप्यायित होता है । अमावास्या की रात्रि में यह षोडशी कला के द्वारा सभी प्राणधारियों में प्रवेश करता है और फिर प्रातःकाल जन्म लेता है । अतः इस रात्रि में प्राणधारियों के प्राणों का विच्छेदन न करे । इससे आगे कहा गया है कि जो १५ कलाएं हैं, वह इस संवत्सर रूप पुरुष प्रजापति का वित्त हैं । आत्मा इसकी षोडशी कला है । वह वित्त के द्वारा ही आपूरित होता है और अपक्षीण होता है । शतपथ ब्राह्मण ६.२.२.९ के कथन में उपरोक्त कथन से थोडा अंतर है । यहां पुरुष को सप्तदश कहा गया है । यह सप्तदश १० प्राणों, ४ अंगों, १५वी आत्मा, १६वी ग्रीवा और १७वें शिर से मिलकर बना है । ऐतरेय ब्राह्मण ५.२६ आदि में अग्निहोत्री गौ से प्राप्त पयः को आहुति देने योग्य बनाने के लिए १६ चरणों का उल्लेख है । इस उल्लेख के अनुसार गौ में स्थित पयः रुद्र देवतात्मक है । उपावसृष्टमान पयः वायव्य है । दुह्यमान आश्विन्, दोहन के पश्चात् सौम्य, अधिश्रित वारुण, उदन्त पौष्ण, विष्यन्दमान मारुत, बिन्दुमत् वैश्वदेव, शरोगृहीत मैत्र, उद्वासित द्यावापृथिवीय, प्रक्रान्त सावित्र, ह्रियमाण वैष्णव, उपसन्न बार्हस्पत्य, पूर्वाहुति अग्न्यात्मक, उत्तराहुति प्राजापत्यात्मक तथा हुत ऐन्द्र है । इस उल्लेख का व्यावहारिक महत्त्व यह है कि हमारे शरीर में स्थित पयः की परिणति भी उपरोक्त प्रकार से होती है अथवा हो सकती है । शतपथ ब्राह्मण १०.४.१.१७ में १६ कलाओं के रूप में लोम के २ अक्षर, त्वक् के २, असृक् के २, मेद के २, मांस के २, स्नायु के २, अस्थि के २, मज्जा के २ अक्षरों का उल्लेख है । और इनके मध्य जो प्राण संचार करता है, वह १७वां प्रजापति है । इस प्राण के लिए यह १६ कलाएं अन्न का आहरण करती हैं । शतपथ ब्राह्मण ११.१.६.३६ में षोडशकल पुरुष/यज्ञ हेतु १६ आहुतियों का उल्लेख आता है । भाष्य में इन १६ आहुतियों के रूप में दर्श - पूर्णमास याग में प्रयुक्त ५ प्रयाज, २ आज्यभाग, स्विष्टकृत, इडा, ३ अनुयाज, ४ पत्नीसंयाज का उल्लेख है । शतपथ ब्राह्मण ७.२.२.१७ में षोडशकल प्रजापति/अग्नि हेतु षोडशविध अन्न प्राप्त करने के लिए षोडश सीताओं के सम्पादन का निर्देश है जिससे इन सीताओं से आत्मसम्मित अन्न प्राप्त हो सके । इनमें से ४ सीताओं का कर्षण यजुओं द्वारा किया जाता है जिससे ४ दिशाओं में स्थित अन्न की प्राप्ति हो सके ( अन्यत्र इन सीताओं को अकृष्टा कहा गया है ) । इसके पश्चात् १२ सीताओं का कर्षण तूष्णीं किया जाता है । १२ ही संवत्सर के मास होते हैं । इसके द्वारा स्वयं/आत्मानं का कर्षण किया जाता है जिससे संवत्सर में स्थित अन्न को प्राप्त किया जा सके । वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता ९.३४ तथा तैत्तिरीय संहिता १.७.११.१ में वाजपेय याग के संदर्भ में १७ उज्जितियों का कथन किया गया है । अग्नि ने एकाक्षर द्वारा प्राण का उदजयन किया, अश्विनौ ने द्वयक्षर द्वारा द्विपद मनुष्यों का, विष्णु ने द्वयक्षर द्वारा तीन लोकों का, सोम ने चतुरक्षरों द्वारा चतुष्पद पशुओं का, पूषा ने पञ्चाक्षरों द्वारा पांच दिशाओं का, सविता ने षडक्षरों द्वारा ६ ऋतुओं का, मरुतों ने सप्ताक्षरों द्वारा सात ग्राम्य पशुओं का, बृहस्पति ने अष्टाक्षरों द्वारा गायत्री का, मित्र ने नवाक्षरों द्वारा त्रिवृत् स्तोम का, वरुण ने दशाक्षरों द्वारा विराज का, इन्द्र ने एकादशाक्षरों द्वारा त्रिष्टुप् का, विश्वेदेवों ने द्वादशाक्षरों द्वारा जगती का, वसुओं ने त्रयोदशाक्षरों द्वारा त्रयोदश स्तोम का, रुद्रों ने चतुर्दशाक्षरों द्वारा चतुर्दश स्तोम का, आदित्यों ने पञ्चदशाक्षरों द्वारा पञ्चदश स्तोम का, अदिति ने षोडशाक्षरों द्वारा षोडश स्तोम का और प्रजापति ने सप्तदशाक्षरों द्वारा सप्तदश स्तोम का । तैत्तिरीय संहिता में उपरोक्त कथन से अंतर यह है कि अग्नि ने एकाक्षर द्वारा वाक् की उज्जिति की, अश्विनौ ने द्वयक्षर द्वारा प्राणापानौ की, - - - पूषा ने पञ्चाक्षरों द्वारा पंक्ति की, धाता ने षडक्षरों द्वारा षड्- ऋतुओं की, मरुतों ने सप्ताक्षरों द्वारा सप्तपदा शक्वरी की । नारद पुराण १.६५.२८ में चन्द्रमा की १६ कलाओं के नाम इस प्रकार प्रकट होते हैं : अमृता, मानदा, पूषा, तुष्टि, पुष्टि, रति, धृति, शशिनी, चन्द्रिका, कान्ति, ज्योत्स्ना, श्री, प्रीति, अङ्गदा, पूर्णा व पूर्णामृता । दुर्गा सप्तशती में आता है कि 'या देवी सर्वभूतानां क्षुधा रूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ।। या देवी सर्वभूतानां निद्रा रूपेण संस्थिता । - - - - । अतः जब नारद पुराण चन्द्रमा की कलाओं के रूप में तुष्टि, पुष्टि आदि का उल्लेख करता है तो इससे तात्पर्य क्षुधा आदि की तृप्ति हो सकता है । यह उल्लेखनीय है कि षोडशी ग्रह के मन्त्र में प्रजापति के प्रजा के साथ होने का उल्लेख आता है । ऐसा हो सकता है कि अन्य १५ कलाएं प्रजा रूप हैं । जैमिनीय ब्राह्मण २.२२० में उल्लेख आता है कि सब ऋषियों ने स्वर्ग को प्राप्त कर लिया लेकिन अगस्त्य ऋषि नहीं कर पाए । तब उन्होंने अपनी प्रजा का त्याग किया और षोडश स्तोम द्वारा स्वर्ग को प्राप्त किया । यह कथन षोडशी ग्रह के मन्त्र के विपरीत प्रतीत होता है । पृष्ठ्य षडह के चतुर्थ अह में उक्थ्य स्तोत्रों के अन्त में षोडशी स्तोत्र के संदर्भ में, उक्थ्यों को पशु, अन्न, प्राण आदि कहा जाता है । जैसा कि उक्थ की टिप्पणी में कहा जा चुका है, उक्थ्य से तात्पर्य उन प्राणों से हो सकता है जो सोए हुए हैं और जिन्हें विशेष प्रयास द्वारा जगाने की आवश्यकता होती है । उक्थ्य से पूर्व यज्ञ के कृत्य जाग्रत प्राणों से सम्बन्ध रखते हैं । जब उक्थ्य स्तोत्रों द्वारा प्राण रूप पशु जाग जाते हैं तो उनको नियन्त्रित करने के लिए षोडशी स्तोत्र रूपी वज्र की आवश्यकता होती है ( जैमिनीय ब्राह्मण २.३६४) । कहा गया है कि षोडशी वज्र द्वारा पशुओं से अन्नाद्य प्राप्त किया जाता है । ताण्ड्य ब्राह्मण १९.६.१ आदि का कथन है कि पशु षोडशकलाओं से युक्त होते हैं । उक्थ षोडशिमान् होता है । षोडशी रूपी वज्र से पशुओं का परिग्रहण किया जाता है जिससे वह भाग न जाएं । इस संदर्भ से ऐसा भी प्रतीत होता है कि उक्थ्य व षोडशी से केवल ग्राम्य पशुओं का परिग्रहण संभव हो पाता है, आरण्यक पशुओं का नहीं । आरण्यक पशुओं के परिग्रहण के लिए षोडशी से अगले चरण अतिरात्र की आवश्यकता होती है । यह उल्लेखनीय है कि सोमयाग के तीन सवनों द्वारा भी पशुओं को प्राप्त किया जाता है । उदाहरण के लिए, प्रातः सवन द्वारा आग्नेय पशुओं पर आधिपत्य प्राप्त किया जाता है । उक्थ्यों द्वारा ऐन्द्राग्न प्रकृति के पशुओं पर आधिपत्य प्राप्त करने का उल्लेख है( तैत्तिरीय ब्राह्मण १.३.४.१) तथा षोडशी द्वारा ऐन्द्र प्रकृति के पशुओं पर । जैमिनीय ब्राह्मण २.२२३, २.२२४ व २.२२६ में षोडश को अच्छावाक् ऋत्विज से सम्बद्ध कहा गया है । अच्छावाक् ऋत्विज इन्द्राग्नि देवता से सम्बन्धित होता है । यद्यपि पृष्ठ्य षडह के अन्य अहों में भी उक्थ्यों का सम्पादन किया जाता है लेकिन षोडशी ग्रह व स्तोत्र का विधान केवल चतुर्थ अह में ही क्यों किया गया है, यह अभी अनुत्तरित है (आयुष्कामनवरात्रसोमयाग के नवम अह में भी षोडशीस्तोत्र का गान किया गया है)। ऐतरेय ब्राह्मण ४.३ में षोळशी को सब छन्दों से निर्मित कहा गया है । ऐतरेय ब्राह्मण ४.४ में षोडशी को सब सवनों से निर्मित कहा गया है । ऐसी षोडशियों द्वारा राधन करना संभव हो पाता है । वैदिक मन्त्रों में राध: शब्द व्यापक रूप से प्रकट होता है । इसके अतिरिक्त, राधन शब्द का प्राकट्य क्रिया रूप में भी हुआ है, जैसे 'राध्नोति' । वैदिक निघण्टु में राध: शब्द की परिगणना धन नामों के अन्तर्गत की गई है । धन शब्द के बारे में ऐसा अनुमान है कि जो घटना एण्ट्रांपी को, अव्यवस्था को कम करे वह धन कहलाती है । इसके विपरीत, ऐसी घटनाओं से जिनसे अव्यवस्था में वृद्धि होती हो, ऋण कहलाती हैं । ताण्ड्य ब्राह्मण १२.१३.१२ में कामना अनुसार षोडशी स्तोत्र के छन्द का चयन करने का विधान है । वज्र रूप प्राप्ति के लिए शक्वरी, वाक् के अतिवादन के वर्जन के लिए अनुष्टुप् और अन्नाद्य प्राप्ति की कामना के लिए विराट् छन्द का विधान है । ताण्ड्य ब्राह्मण ६.१.५, जैमिनीय ब्राह्मण १.६७ आदि में षोडशी स्तोत्र का गान करने वाले ऋत्विज को अश्वतरी दक्षिणा रूप में देने का निर्देश है । कहा गया है कि षोडशी अतिरिक्त है और इसी प्रकार अश्वतरी भी अतिरिक्त है । अश्वतर पशु प्रजा उत्पादन नहीं कर सकता । अतिरिक्त कहने से क्या तात्पर्य है, यह स्पष्ट नहीं है । जैमिनीय ब्राह्मण २.२२३, २.२२४ व २.२२६ में षोडश को अच्छावाक् ऋत्विज से जोडा गया है । कहा गया है कि इन्द्रिय वीर्य षोडशी है । इन्द्रिय वीर्य के षोडशी होने का उल्लेख ताण्ड्य ब्राह्मण २१.५.१ - ६ में भी है । शतपथ ब्राह्मण १२.२.२.७ के अनुसार उक्थ्य षोडशिमान् है । अन्न उक्थ्य हो सकता है और वीर्य षोडशी है । तैत्तिरीय संहिता ६.६.११.१ में षोडशी ग्रह के संदर्भ में कहा गया है कि प्रजापति ने देवों को यज्ञों का उपदेश दिया । उसने स्वयं को रिरिचान पाया । उसने यज्ञों का षोडशधा इन्द्रिय वीर्य स्वयं में धारण किया ?( समक्खिदत्~ ) । तब षोडशी हुआ । यह जो षोडशी ग्रह का ग्रहण किया जाता है, इससे इन्द्रिय वीर्य को यजमान स्वयं में धारण करता है । ऐसा संभव है कि मनुष्य में वीर्य का संचय चन्द्रमा का निर्माण करता हो जो क्षुधा आदि विकारों से तृप्त कर देता है । तैत्तिरीय संहिता ५.३.५.२ में ओज को षोडश कहा गया है । वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता १८.२५ में वसुधारा होम के संदर्भ में कहा गया है कि ''षोडश॑ च मे॒ षोड॑श च मे'' । यहां प्रथम षोडश शब्द में ष व ड अक्षर उदात्त हैं जबकि दूसरे षोडश में केवल ष अक्षर उदात्त है । ऐसा अन्तर वैदिक साहित्य में अन्यत्र नहीं मिला है । इन दोनों रूपों के भावों का अन्तर अन्वेषणीय है । हो सकता है कि यह षोडशी स्तोत्र और षोडशी शस्त्र से सम्बन्धित हों जिनका उल्लेख तैत्तिरीय संहिता ६.६.११.१ में आता है ।
षोडशी स्तोत्र : मूल तृच : इन्द्र जुषस्व प्रवहा याहि शूर हरिह । पिबा सुतस्य मतिर्न मधोश्चकानश्चारुर्मदाय ।। इन्द्र जठरं नव्यं न पृणस्व मधोर्दिवो न । अस्य सुतस्य स्वा३र्नोप त्वा मदास्सुवाचो अस्थु: ।। इन्द्रस्तुराषाण्मित्रो न जघान वृत्रं यतिर्न । बिभेद बलं भृगुर्न ससाहे शत्रून्मदे सोमस्य ।। स्तोत्र : इन्द्र । जुषाऽ३ । स्वप्रवहा ।। आयाहिशूरहरिहाऽ२३ । पाइवासुताऽ३१२३ । स्यमतिर्नाऽ५मधो: ।। चाकानश्चाऽ३१२३ । रुर्मोवा । दाऽ५योऽ६हाइ । श्री: ।। इन्द्र जठाऽ३रन्नव्यन्ना ।। पृणस्वमधोर्दिवोनाऽ२३ । आस्यसुताऽ३१२३ । स्यस्वर्नाऽ५उपा ।। त्वामदास्सू ऽ३१२३ ।। वाचोवा । आऽ५स्थोऽ६हाइ । श्री: ।। इन्द्र: । तुराऽ३ । षण्मित्रोना ।। जघान वृत्रं यतिर्नाऽ२३ । बाइभेदवाऽ३१२३ । लंभृगुर्नाऽ५ससा ।। हशत्रून्माऽ३१२३ ।। देसोवा । माऽ५स्योऽ६हाइ ।। अतिरात्र यज्ञ के सुत्या अह में इस स्तोत्र का गान सूर्यास्त से पूर्व मन्द्र स्वर में, सूर्यास्त के समय मध्यम स्वर में तथा सूर्यास्त के पश्चात् उच्च स्वर में किया जाता है।
ब्रह्मवादिनो वदन्ति । नाग्निष्टोमो नोक्थ्यः । न षोडशी नातिरात्रः । अथ कस्माद्वाजपेये सर्वे यज्ञक्रतवोऽवरुध्यन्त इति । पशुभिरिति ब्रूयात् । आग्नेयं पशुमालभते । अग्निष्टोममेव तेनावरुन्धे । ऐन्द्राग्नेनोक्थ्यम् । ऐन्द्रेण षोडशिनः स्तोत्रम् । सारस्वत्यातिरात्रम् १।मारुत्या बृहतः स्तोत्रम् । एतावन्तो वै यज्ञक्रतवः । तान्पशुभिरेवावरुन्धे । आत्मानमेव स्पृणोत्यग्निष्टोमेन । प्राणापानावुक्थ्येन । वीर्यꣳ षोडशिनः स्तोत्रेण । वाचमतिरात्रेण । प्रजां बृहतः स्तोत्रेण । इममेव लोकमभिजयत्यग्निष्टोमेन । अन्तरिक्षमुक्थ्येन २। सुवर्गं लोकꣳ षोडशिनः स्तोत्रेण । देवयानानेव पथ आरोहत्यतिरात्रेण । ना-कꣳ रोहति बृहतः स्तोत्रेण । तेज एवात्मन्धत्त आग्नेयेन पशुना । ओजो बलमैन्द्रा ग्नेन । इन्द्रि यमैन्द्रे ण । वाचꣳ सारस्वत्या । उभावेव देवलोकं च मनुष्यलोकं चाभिजयति मारुत्या वशया । सप्तदश प्राजापत्यान्पशूनालभते । सप्तदशः प्रजापतिः – तैब्रा १.३.४.१
Puraanic
texts refer Raadhaa as Shodashi. Moon is also often referred to having 16
phases, but proper identification of these 16 has hardly been done. Generally,
the 15 days of a fortnight are considered as the 15 phases of moon. But what is
the nature of the 16th phase, it is difficult to find out. It is
generally mentioned in puraanic texts that at the night of no – moon day, the
moon gets devoid of 15 phases and the remaining 16th phase inters
into herbs and then it is born in a new form on new moon day. This statement of
puraanic texts has been quoted in a wider perspective in one Braahmanic texts.
Here it is mentioned that the first 5 phases of moon are eaten by sun, the next
5 by Rudras, the next 5 by Vasus and the remaining 16th phase enters
into herbs, trees, cows, animals, sun, Brahma and braahmin. A similar type of
statement is found in context of Agnihotra
where the sun enters into braahmin (as faith), animals(as milk), fire(as
luster), herbs(as energy), water(as taste) and trees ( as Swadhaa) at sunset.
One has to regain these elements for performing the ritual of Agnihotra.
Ironically, a similar broad statement is not available about moon. On practical
side, it can be said that a devotee can start by concentrating on any one of
these. Such type of mythological statements that sun or moon enters the earth seem to be vague at first sight. But J.A.Gowan has provided a ray of hope by proposing his theory of creation of universe. According to him, the matter was created out of pure energy for the purpose of preventing increase in entropy. The increase in entropy in a universe of pure energy will take place at the rate of velocity of light, the rate at which the universe will expand itself. When energy gets converted into matter, matter helps prevent increase in entropy by sucking the expanding universe through it’s gravitational force. Gowan proposes that when energy was converted into matter, the symmetry was not conserved, as matter is non- symmetric, opposite to the case of energy. Therefore, a conjecture was made that there should exist a universe whose symmetry is opposite to our universe. Only then the symmetry can be conserved. He further proposes that the charge available on particles in the matter represents the residual symmetry of the initial universe. The conjectures of Gowan may or may not be true, but it has opened an area in mythology to explain the fact of entering of sun or moon in the earth.
According to universal second law of thermodynamics, the entropy of this
world is increasing with time. There is a thinking that the existence of living
creatures in this world leads to decrease in entropy. Or the birth of living
creatures out of gross matter may be compensating for the absence of symmetry in
the matter, making matter more symmetrical, with no need for a conjecture of
antimatter. Now, it is a common knowledge that production of life from matter is
a result of introduction of sun rays into matter. As far as symmetry in life is
concerned, we all know that the life gets in trouble due to hunger etc. This may
be taken as a lack of symmetry in life. Mythology has proposed that this lack of
symmetry can be compensated by introduction of moon in the matter, or in life
forces. It is strange that only the 16th phase has been stated to be
able to enter the matter. Regarding the other 15 phases, it is a guess that
these are connected with how to satisfy hunger etc. Different statements of
mythology indicate that the development of moon is possible
by preservation of semen also..
In yaaga rituals, shodashi act appears mainly in three forms. On the
fourth day of a 6-day yaaga, shodashi vessel is ceremoniously received. One of
the mantras recited at this occasion mentions that shodashi contains 3 lights
and moreover, also contains the progeny. These 3 lights can be explained in
different ways. In yoga, there are 3 veins called Idaa, Pingalaa and Shushumnaa.
The confluence of these three is important. Or these 3 lights can be called as
fire, sun and moon. In case of
herbs, it can be said that herbs already contain fire and sun and the third
light enters them in the form of moon which makes the development of 16th
phase possible.
There is a reference of Shodashi
Tripurasundari. Here Tripursundari can be taken to mean as the remaining 15
phases, because these 15 phases can be divided into 3 abodes of 5 each, as has
been stated above. There is a reference when one has to leave these 15 phases
for attainment of heaven.
The fourth day, on which the Shodashi vessel is received, also contains
the ritual of chanting of Shodashi saama which takes place after the ritual of
Ukthya. It has been stated in braahmanical texts that through Ukthya, one
obtains animals while by Shodashi, one controls these animals. It can be said
that these animals are praanaas or lifeforces whose control is achieved by
Shodashi. In a way the whole Soma yaaga is the ritual of gaining control over
the animals and different parts of it provide control over different types of
animals. It seems that Shodashi provides control over pet animals while for
gaining control of wild animals, another ritual called Atiraatra is required.
Why Shodashi is performed only on fourth day, is not clear.
It has been stated that the man in the form of year also has 16 phase.
The 16th is his Atman while the remaining 15 are his wealth. The 16th
is non- decaying.
Regarding the 15 phases of moon, these can be understood on the basis of
various statements available. At one place, there is mention of 16 phases for
boiling of milk to be offered as oblation for gods. Different elements of human
body like hair, skin, blood, flesh, muscles, bones and bone marrow have also
been classified into 16 phases. All these are controlled by the 17th
praana.
The benefit of Shodashi has been stated that one is able to produce the
effect of Raadha. Raadha can be understood on the basis that whatever event
leads to wealth, to decrease of entropy, decrease of disorder, is Raadhan. Pictorial
view of goddess Shodashi
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