पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Shamku - Shtheevana) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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शिशु पुराणेषु सार्वत्रिकरूपेण कथनमस्ति यत् अस्याः पृथिव्याः द्व्यांशः शशः/चन्द्रः अस्ति, द्व्यांशः पिप्पलः। अथवा एकांशः शशः अस्ति, त्र्यांशः पिप्पलः (पद्म ३.३.१६(यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः । एवं सुदर्शनो द्वीपो दृश्यते चक्रमंडलः। द्विरंशे पिप्पलस्तस्य द्विरंशे च शशो महान् )। एका संभावना अस्ति यत् यः शशः अस्ति, सैव केनापि प्रकारेण शिशुः अस्ति। सोमयागस्य अन्तिमचरणः त्रयाणां उक्थसंज्ञकानां स्तोत्राणां गायनस्य भवति। यथा उक्थशब्दस्य टिप्पण्यां कथितमस्ति, सम्पूर्ण सोमयागेनापि ये प्राणाः सुप्ताः एव भवन्ति, तेषां उत्थापनाय उक्थ्यसंज्ञकः कृत्यः अस्ति, अयं अनुमानमस्ति। एतेषां प्राणानां संज्ञा वेदमन्त्रेषु शशमानाः अस्ति। वेदमन्त्रेषु उल्लेखमस्ति यत् शशमानस्य शक्तिः शमी अस्ति - पिपीळे अंशुर्मद्यो न सिन्धुरा त्वा शमी शशमानस्य शक्तिः। अस्मद्र्यक्छुशुचानस्य यम्या आशुर्न रश्मिं तुव्योजसं गोः॥ (ऋ. ४.०२२.०८)। पुराणेषु प्रसिद्धमस्ति यत् शमी-उपरि अश्वत्थस्य वर्धनं भवति। यः शशः अस्ति, तत् पौर्णमासस्य रूपमस्ति। पौर्णमासः अर्थात् मनसः चेतनतमः रूपः, निरुक्ततमः रूपः। सैव पूर्णिमा दिवसे आकाशे दृश्यते। पुराणेषु प्रसिद्धमस्ति यत् पुरूरवा राजा अरण्ये शमी एवं अश्वत्थस्य दर्शनं करोति एवं ताभ्यां अधरारण्याः एवं ऊर्ध्वारण्याः निर्माणं कृत्वा अरणिमन्थनं करोति। मन्थनेन यस्याः अग्न्याः जननं भवति, तस्याः त्रयः विभागाः सन्ति – गार्हपत्यः, अन्वाहार्यपचन एवं आहवनीयः। संभवतः मन्थनेन आयुसंज्ञकस्य पुत्रस्य जननं अपि भवति। कर्मकाण्डे, सोमयागे पदे पदे अग्निमन्थनं कृत्यं सम्पाद्यन्ते। मन्थनेन यस्य अग्न्याः जननं भवति, तं आहवनीयअग्न्याः साकं मिश्रीकुर्वन्ति। यस्याग्न्याः जननं भवति, तस्याः संज्ञा जातः अथवा शिशुः अस्ति (ऐतरेय ब्राह्मण १.१६)। वेदमन्त्रेषु सार्वत्रिकरूपेण शिशोः द्वयोः रूपयोः उल्लेखः अस्ति – एकः अग्निः अस्ति, एकः सोमः अस्ति(पूर्वापरं चरतो माययैतौ शिशू क्रीडन्तौ परि यातोऽर्णवम् । विश्वान्यो भुवना विचष्ट ऋतूंरन्यो विदधज्जायसे नवः ॥शौअ १४.१.२३॥)। अस्य प्रहेलिकायाः विश्लेषणः अपेक्षितमस्ति। सामवेदे ग्रामगेयः ४७३ सामः शैशवानि – च्यावनानि संज्ञकः अस्ति यस्य योनिः असाव्यंशुर्मदायाप्सु दक्षो गिरिष्ठाः । श्येनो न योनिमासदत् ॥ ( ऋ. ९.६२.४) अस्ति। अत्र अनुमानमस्ति यत् यजुर्वेदे अंशूनां रूपान्तरं अदाभ्यां वाचि अपेक्षितमस्ति। अंशूनां रूपान्तरणाय सर्वेषां प्रकाराणां अपसां (पुण्यानां) - दैवीनां - मानुषाणां आवश्यकता भवति(अप्सु दक्षो गिरिष्ठाः)। तदोपरि श्येनस्य स्थित्याः, शिप्रगत्याः प्राप्तिः भवति (श्येनो न योनिमासदत)। एकः शिशुपालः अस्ति, अन्यः शिशुमारः। शिशुपालः जन्मकाले चतुर्भुजः आसीत्। तस्य द्वयोः भुजयोः पतनं तदा भवति यदा कृष्णः तं स्वांके धारयति। कालान्तरे शिशुपालः कृष्णस्य निन्दां करोति एवं कृष्णः सुदर्शनचक्रेण तस्य कण्ठं छेदयति। कथनमस्ति यत् जय-विजयसंज्ञकौ यौ द्वारपालौ स्तः, तौ एव द्वापरकाले शापवशेन शिशुपाल –दन्तवक्त्र रूपेण प्रकटितौ आस्ताम्। शिशुपालः द्वेषतः कृष्णं भजति, येन कारणेन सः मुक्तिं लभति (गोप्यः कामाद्भयात्कंसो द्वेषाच्चैद्यादयो नृपाः। सम्बन्धाद्वृष्णयः स्नेहाद्यूयं भक्त्या वयं विभो।। - भागवतपुराणम् ७.१.३२)। अन्यः शिशुमारः अस्ति यस्य देहे सर्वेषां दिविभवानां ज्योतिषां विद्यमानता अस्ति।
ऋग्वेदे बहुवचने शिशुशब्दस्य उल्लेखं मरुद्भ्यः अस्ति – अत्यासो न ये मरुतः स्वञ्चो यक्षदृशो न शुभयन्त मर्याः। ते हर्म्येष्ठाः शिशवो न शुभ्रा वत्सासो न प्रक्रीळिनः पयोधाः॥ ७.०५६.१६
शिशुपाल टिप्पणी : शिशुपाल के पौराणिक स्वरूप को समझने के लिए वैदिक साहित्य में शिशु के स्वरूप को समझना होगा । सोम याग में एक याग दिवस में विभिन्न अवसरों पर अरणि मन्थन करके अग्नि को उत्पन्न किया जाता है और फिर इस अग्नि को आहवनीय अग्नि में मिला दिया जाता है । यह एक जिज्ञासा रही है कि जब सोमयाग में सभी अग्नियां पहले ही उपस्थित रहती हैं तो अरणि मन्थन द्वारा पुनः - पुनः अग्नि को उत्पन्न करने की क्या आवश्यकता है ? अरणि मन्थन द्वारा उत्पन्न इस अग्नि को जातः या शिशु कहते हैं और कहा गया है कि इस अग्नि का स्वाभाविक स्थान आहवनीय है ( ऐतरेय ब्राह्मण १.१६) । अतः इसे आहवनीय में मिलाया जाता है । आहवनीय का नाम जातवेदा है - जो जातः को जानती है । इस कृत्य के पीछे यह भाव प्रतीत होता है कि जड भूतों में चेतना का, प्राणों का संचार करना है । यह कार्य अरणि मन्थन द्वारा होता है । एक अरणि मन्थन स्वाभाविक रूप में हमारे अन्दर श्वास - प्रश्वास के रूप में भी चल रहा है । श्वास - प्रश्वास का उद्देश्य यह है कि जड पदार्थ में प्राणों का संचार हो । वायु जो जड रूप में है, उसके आक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन आदि अवयव भी प्राणों का रूप धारण करे, वह जीवन धारक कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन आदि का रूप धारण करे । जड पदार्थ में प्राणों के संचार का एक रूप जठराग्नि के रूप में देखा जा सकता है । यदि प्रयत्न किया जाए तो उत्पन्न हुई जठराग्नि को पूरे शरीर में फैलाया जा सकता है और जड पडे शरीर में चेतना का विकास किया जा सकता है । ऐसा अनुमान है कि जब ऋग्वेद १०.१.२, तैत्तिरीय संहिता ४.१४.२ आदि में तमस् को दूर करने वाले चित्र शिशु रूपी अग्नि का उल्लेख आता है तो वह यही जठराग्नि होगी जो पहली बार तमस को दूर करके चित्र - विचित्र रूप धारण करती है । वैदिक साहित्य में निर्देश है कि इस चित्र या हरि या हर्यत अग्नि/सोम का मार्जन करना है ( अथर्ववेद १३.२.११, ऋग्वेद ९.९६.१७, ९.१०९.१२) । ऋग्वेद ९.१०४.१, ९.१०५.१, जैमिनीय ब्राह्मण ३.१९४ के अनुसार शिशु को यज्ञों से परिभूषित करना है, यज्ञों का रूप देना है , इसका सम्यक् लालन - पालन करना है । विशेषतः पौराणिक साहित्य में इस कथन को शिशुमार के रूप में चरितार्थ किया गया है । शिशुमार की देह में विभिन्न ज्योतियों का न्यास किया जाता है जिसे भागवत पुराण स्कन्ध ५ आदि में देखा जा सकता है । पुराणों में शिशुपाल के संदर्भ में, शिशुपाल को शिशु रूपी चेतना या अग्नि का पालन करने वाले के रूप में समझा जा सकता है । एक बार शिशु रूपी चेतना उत्पन्न हो गई तो उसे जीवित रखना है । वैदिक साहित्य में यह कार्य विभिन्न देवियों द्वारा किया जाता है । ऋग्वेद १.९६.५, तैत्तिरीय संहिता ४.१.१०.४, ४.६.५.२, ४.७.१२.३ में नक्त और उषा देवी - द्वय एक शिशु का मिलकर पालन करती हैं ( यहां नक्त - रात्रि और उषा से तात्पर्य समाधि और उससे व्युत्थान की अवस्था हो सकती है ) । पुराणों के शिशुपाल के चरित्र को समझने की यह कुंजी है । अथर्ववेद १४.१.२३, तैत्तिरीय ब्राह्मण २.७.१२.२, २.८.९.३ आदि में यज्ञ में शुक्रामन्थी ग्रह - द्वय के संदर्भ में मन्थी ग्रह की पुरोनुवाक्या रूप में जिस मन्त्र का उच्चारण किया जाता है, उसमें उल्लेख आता है कि एक शिशु तो विश्व भुवनों का केवल ( निरपेक्ष भाव से) अवलोकन करता है जबकि दूसरा शिशु ऋतुओं के अनुसार पुनः - पुनः उत्पन्न होता है – पूर्वापरं चरतो माययैतौ शिशू क्रीडन्तौ परि यातोऽर्णवम् । विश्वान्यो भुवना विचष्ट ऋतूंरन्यो विदधज्जायसे नवः ॥ यह वैसा ही मन्त्र है जैसा द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया इत्यादि है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब मन्थन से शिशु रूपी चेतना उत्पन्न होती है तो वह उपरोक्त दो प्रकार की होती है । इन्हीं दो प्रकारों को पुराणों में शिशुपाल के चरित्र के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है । कृष्ण की गोद में जाते ही शिशुपाल का तीसरा नेत्र व दो बाहुएं अदृश्य हो जाती हैं । डा. फतहसिंह के अनुसार ४ बाहुएं अन्नमय, प्राणमय, मनोमय व विज्ञानमय कोशों की प्रतीक हैं । तीसरा नेत्र व २ बाहुएं अदृश्य होने का अर्थ होगा कि शिशु की जो उच्चतर चेतना है, वह कृष्ण की गोद में जाते ही मुक्त हो जाती है । लेकिन जो जड चेतना है, वह बनी रहती है, वह मुक्त नहीं होती । वह कृष्ण रूपी परमात्मा के महत्त्व को स्वीकार नहीं करती । उसको मुक्त होने के लिए सुदर्शन चक्र के रूप में सम्यक् दर्शन की, अन्तर्मुखी होने की आवश्यकता है । सुबालोपनिषद ९.११ में शिशु के उत्पन्न होने से पूर्व व पश्चात् की कुछ अवस्थाओं का उल्लेख है । इस संदर्भ के अनुसार मन से आरम्भ करके चन्द्र पर अस्त होता है, चन्द्र से आरम्भ करके शिशु पर, शिशु से आरम्भ करके श्येन पर, श्येन से आरम्भ करके विज्ञानमय पर । यही अमृत है । आधुनिक विज्ञान के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि यह विकास भ्रमि का कक्षा में क्रमिक विकास है । अंग्रेजी में इसे स्पिन व ओरबिट कहते हैं । पृथिवी अपनी धुरी पर भी घूमती है और सूर्य के परितः परिक्रमा भी करती है । अपनी धुरी पर घूमने से उसमें जिस ऊर्जा का संचय होता है, उसे आत्म - केन्द्रित ऊर्जा, अहंकार की ऊर्जा कहा जा सकता है । आवश्यकता इस बात की है कि इस ऊर्जा को क्रमिक रूप से सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करने वाली ऊर्जा में बदला जाए । अरणि मन्थन में भी एक दण्ड केवल अपनी धुरी पर ही घुमाया जाता है । बृहदारण्यक उपनिषद २.२.१ में प्रश्न उठाया गया है कि शिशु के आधान, प्रत्याधान, स्थूणा और दाम को कौन जानता है । फिर आंशिक रूप में उत्तर दिया गया है कि मध्यम प्राण शिशु है, प्राण स्थूणा है और अन्न दाम/रस्सी है । यह स्पष्ट नहीं है कि यह संदर्भ अरणि मन्थन के संदर्भ में है या उसके बाद की किसी अवस्था के लिए । डा. फतहसिंह के अनुसार मध्यम प्राण मन है । इसका कारण यह है कि अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोशों का एक त्रिक् है और मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोशों का एक त्रिक् । इन दोनों के बीच मन उभयनिष्ठ है । वह निम्नतर त्रिक् में भी है, उच्चतर त्रिक् में भी । अतः वह मध्यम प्राण है । सुबालोपनिषद ९ में चेतना के विकास का आरम्भ मन से किया गया है । यह उल्लेखनीय है कि वैदिक साहित्य में शिशु के रूप में अग्नि का भी उल्लेख है और सोम का भी । उदाहरण के लिए, ऋग्वेद ६.४९.२ में दिव: शिशु के रूप में अग्नि का और १०.४.३ में शिशु के रूप में अग्नि का उल्लेख है । दूसरी ओर, ऋग्वेद ९.३३.५, ९.३८.५ में दिव: शिशु के रूप में सोम का उल्लेख है । ऋग्वेद ९.८६.३१ व ९.८६.३६ में क्रमशः मतियां व ७ स्वसाएं माताओं के रूप में एक शिशु का पालन करती हैं । अथर्ववेद ७.८६.१ में शिशु - द्वय को सूर्य व चन्द्रमा का रूप दिया गया है । ऋग्वेद ९.१०२.१ में प्रथम पद क्राणा शिशुर्महीनाम् का रूपान्तर जैमिनीय ब्राह्मण ३.१२८, ३.२२७ व ताण्ड्य ब्राह्मण १३.५.३ में प्राणा शिशुर्महीनां प्राप्त होता है और ताण्ड्य ब्राह्मण में इसे सिम:, डा. फतहसिंह के शब्दों में सेमी, अर्ध अवस्था का प्रतीक कहा गया है । ताण्ड्य ब्राह्मण १४.७.२ में द्वादशाह यज्ञ में ७ वें दिन शिशु के जन्म तथा ८वें दिन उसके मार्जन का उल्लेख है । इसके अतिरिक्त, पांचवें दिन के लक्षणों में से एक शिशुमत् है । पांचवां दिन शक्वर साम का होता है जिसमें महानाम्नी साम द्वारा जातः का नामकरण किया जाता है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.१०२ के अनुसार यह शान्ति कर्म होता है । भागवत ११.२.४६ का श्लोक है : ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च । प्रेम मैत्री कृपोपेक्षा यः करोति स मध्यम: ।। पुराणों का कथन है कि शिशुपाल ने द्वेष द्वारा मुक्ति प्राप्त की ( कंस ने भय से, रावण ने शत्रुता से आदि ) । भागवत के श्लोक के अनुसार द्वेषियों की उपेक्षा की आवश्यकता है । वैदिक साहित्य में उपेक्षा का अर्थ लौकिक रूप में लिया जाने वाला अर्थ समत्व भाव आदि नहीं है । यहां उपेक्षा से अर्थ उप - ईक्षण, अन्तर्मुखी होकर सम्यक् दर्शन का प्रयास करना है । भागवत के श्लोक में द्वेष से पहले बाल शब्द है । बाल का अर्थ बालक भी होता है और शरीर के परितः आभामण्डल भी, बिखरी हुई ऊर्जा भी । बाल अवस्था के पश्चात् पुराणों में शिशुपाल के रूप में शिशु अवस्था को प्रस्तुत किया गया है । ESOTERIC ASPECT OF BABY IN VEDIC AND PURAANIC LITERATURE There is a story in puraanic texts of lord Krishna annihilating king Shishupaala by his wheel. Shishu – paala means one who brings up a baby. The esoteric aspect of this story can be understood if one understands the concept of baby in vedic literature. In a single day of a Soma yaga, fire is kindled several times through churning of woods and then the fire thus produced is mixed with the main fire of the sacrifice. The fire produced has been stated to be a baby which has to be brought up properly. The natural place of this fire is the main fire of yaga. That is why this is mixed with that. In vedic mantras it has been instructed to glorify the baby fire with yagas. The purpose behind the churning of woods can be understood on the assumption that consciousness has to be produced inside the rigid matter. At the first stage, this is naturally being done inside us by taking breath in and out. This creates a fire inside us which has been stated to be multicolored. If one tries, this fire can spread throughout the body. This is the first fire which removes darkness inside us. At later stages, puraanic texts mention a divine crocodile which is full of light and this has been given the name as one who kills the baby. The mystery of story of king Shishupaala can be understood on the basis of a vedic mantra which states that there are two babies out of which one only observes and the other is born again and again with season. On the other hand, there is a baby which is brought up by more than one mothers. This indicates that the baby inside Shishupaala has two parts – one which gets salvation on being put in the lap of lord Krishna and the one which resists this salvation. This second one can get salvation only by being annihilated by a wheel of light. Thus Shishupaala is a combination of higher and lower consciousness. Vedic texts indicate that the evolution starting from a baby to higher levels of consciousness may involve conversion of spin energy into orbital energy. It has been indicated in puraanic texts that Shishupaala got salvation by hate, Kamsa by fear etc. There is a famous mantra of Bhaagavata puraana which instructs that one should see hate with equanimity. The meaning of equanimity in Sanskrit is to see inside, to peep inside oneself, self retrospection. The mantra indicates that the state of baby is lower than that of a boy.
संदर्भाः नक्तोषासा वर्णमामेम्याने धापयेते शिशुमेकं समीची। द्यावाक्षामा रुक्मो अन्तर्वि भाति देवा अग्निं धारयन्द्रविणोदाम्॥ १.०९६.०५ कृष्णप्रुतौ वेविजे अस्य सक्षिता उभा तरेते अभि मातरा शिशुम्। प्राचाजिह्वं ध्वसयन्तं तृषुच्युतमा साच्यं कुपयं वर्धनं पितुः॥ १.१४०.०३ अस्माकमग्ने मघवत्सु दीदिह्यध श्वसीवान्वृषभो दमूनाः। अवास्या शिशुमतीरदीदेर्वर्मेव युत्सु परिजर्भुराणः॥ १.१४०.१० तमिद्गच्छन्ति जुह्वस्तमर्वतीर्विश्वान्येकः शृणवद्वचांसि मे। पुरुप्रैषस्ततुरिर्यज्ञसाधनोऽच्छिद्रोतिः शिशुरादत्त सं रभः॥ १.१४५.०३ उत नोऽहिर्बुध्न्यो मयस्कः शिशुं न पिप्युषीव वेति सिन्धुः। येन नपातमपां जुनाम मनोजुवो वृषणो यं वहन्ति॥ १.१८६.०५ उत न ईं मतयोऽश्वयोगाः शिशुं न गावस्तरुणं रिहन्ति। तमीं गिरो जनयो न पत्नीः सुरभिष्टमं नरां नसन्त॥ १.१८६.०७ स ईं वृषाजनयत्तासु गर्भं स ईं शिशुर्धयति तं रिहन्ति। सो अपां नपादनभिम्लातवर्णोऽन्यस्येवेह तन्वा विवेष॥ २.०३५.१३ उद्गातेव शकुने साम गायसि ब्रह्मपुत्र इव सवनेषु शंससि। वृषेव वाजी शिशुमतीरपीत्या सर्वतो नः शकुने भद्रमा वद विश्वतो नः शकुने पुण्यमा वद॥ २.०४३.०२ अवर्धयन्सुभगं सप्त यह्वीः श्वेतं जज्ञानमरुषं महित्वा। शिशुं न जातमभ्यारुरश्वा देवासो अग्निं जनिमन्वपुष्यन्॥ ३.००१.०४ तमर्वन्तं न सानसिमरुषं न दिवः शिशुम्। मर्मृज्यन्ते दिवेदिवे॥ ४.०१५.०६ ममच्चन त्वा युवतिः परास ममच्चन त्वा कुषवा जगार। ममच्चिदापः शिशवे ममृड्युर्ममच्चिदिन्द्रः सहसोदतिष्ठत्॥ ४.०१८.०८ उत स्म यं शिशुं यथा नवं जनिष्टारणी। धर्तारं मानुषीणां विशामग्निं स्वध्वरम्॥ ५.००९.०३ मातुष्पदे परमे शुक्र आयोर्विपन्यवो रास्पिरासो अग्मन्। सुशेव्यं नमसा रातहव्याः शिशुं मृजन्त्यायवो न वासे॥ ५.०४३.१४ अत्यं हविः सचते सच्च धातु चारिष्टगातुः स होता सहोभरिः। प्रसर्स्राणो अनु बर्हिर्वृषा शिशुर्मध्ये युवाजरो विस्रुहा हितः॥ ५.०४४.०३ क्रत्वा हि द्रोणे अज्यसेऽग्ने वाजी न कृत्व्यः। परिज्मेव स्वधा गयोऽत्यो न ह्वार्यः शिशुः॥ ६.००२.०८ त्वां विश्वे अमृत जायमानं शिशुं न देवा अभि सं नवन्ते। तव क्रतुभिरमृतत्वमायन्वैश्वानर यत्पित्रोरदीदेः॥ ६.००७.०४ आ यं हस्ते न खादिनं शिशुं जातं न बिभ्रति। विशामग्निं स्वध्वरम्॥ ६.०१६.४० विशोविश ईड्यमध्वरेष्वदृप्तक्रतुमरतिं युवत्योः। दिवः शिशुं सहसः सूनुमग्निं यज्ञस्य केतुमरुषं यजध्यै॥ ६.०४९.०२ स्वाध्यो वि दुरो देवयन्तोऽशिश्रयू रथयुर्देवताता। पूर्वी शिशुं न मातरा रिहाणे समग्रुवो न समनेष्वञ्जन्॥ ७.००२.०५ अत्यासो न ये मरुतः स्वञ्चो यक्षदृशो न शुभयन्त मर्याः। ते हर्म्येष्ठाः शिशवो न शुभ्रा वत्सासो न प्रक्रीळिनः पयोधाः॥ ७.०५६.१६ स वावृधे नर्यो योषणासु वृषा शिशुर्वृषभो यज्ञियासु। स वाजिनं मघवद्भ्यो दधाति वि सातये तन्वं मामृजीत॥ ७.०९५.०३ अनु ते शुष्मं तुरयन्तमीयतुः क्षोणी शिशुं न मातरा। विश्वास्ते स्पृधः श्नथयन्त मन्यवे वृत्रं यदिन्द्र तूर्वसि॥ ८.०९९.०६ अभीममघ्न्या उत श्रीणन्ति धेनवः शिशुम्। सोममिन्द्राय पातवे॥ ९.००१.०९ अभि ब्रह्मीरनूषत यह्वीर्ऋतस्य मातरः। मर्मृज्यन्ते दिवः शिशुम्॥ ९.०३३.०५ एष स्य मद्यो रसोऽव चष्टे दिवः शिशुः। य इन्दुर्वारमाविशत्॥ ९.०३८.०५ शिशुर्न जातोऽव चक्रदद्वने स्वर्यद्वाज्यरुषः सिषासति। दिवो रेतसा सचते पयोवृधा तमीमहे सुमती शर्म सप्रथः॥ ९.०७४.०१ नाके सुपर्णमुपपप्तिवांसं गिरो वेनानामकृपन्त पूर्वीः। शिशुं रिहन्ति मतयः पनिप्नतं हिरण्ययं शकुनं क्षामणि स्थाम्॥ ९.०८५.११ प्र रेभ एत्यति वारमव्ययं वृषा वनेष्वव चक्रदद्धरिः। सं धीतयो वावशाना अनूषत शिशुं रिहन्ति मतयः पनिप्नतम्॥ ९.०८६.३१ सप्त स्वसारो अभि मातरः शिशुं नवं जज्ञानं जेन्यं विपश्चितम्। अपां गन्धर्वं दिव्यं नृचक्षसं सोमं विश्वस्य भुवनस्य राजसे॥ ९.०८६.३६ सं मातृभिर्न शिशुर्वावशानो वृषा दधन्वे पुरुवारो अद्भिः। मर्यो न योषामभि निष्कृतं यन्सं गच्छते कलश उस्रियाभिः॥ ९.०९३.०२ शिशुं जज्ञानं हर्यतं मृजन्ति शुम्भन्ति वह्निं मरुतो गणेन। कविर्गीर्भिः काव्येना कविः सन्सोमः पवित्रमत्येति रेभन्॥ ९.०९६.१७ क्राणा शिशुर्महीनां हिन्वन्नृतस्य दीधितिम्। विश्वा परि प्रिया भुवदध द्विता॥ ९.१०२.०१ सखाय आ नि षीदत पुनानाय प्र गायत। शिशुं न यज्ञैः परि भूषत श्रिये॥ ९.१०४.०१ तं वः सखायो मदाय पुनानमभि गायत। शिशुं न यज्ञैः स्वदयन्त गूर्तिभिः॥ ९.१०५.०१ शिशुं जज्ञानं हरिं मृजन्ति पवित्रे सोमं देवेभ्य इन्दुम्॥ ९.१०९.१२ सोमः पुनानो अव्यये वारे शिशुर्न क्रीळन्पवमानो अक्षाः। सहस्रधारः शतवाज इन्दुः॥ ९.११०.१० ९.११२ शिशुराङ्गिरसः। दे. पवमानः सोमः। पङ्क्तिः।
स जातो गर्भो असि रोदस्योरग्ने चारुर्विभृत ओषधीषु। चित्रः शिशुः परि तमांस्यक्तून्प्र मातृभ्यो अधि कनिक्रदद्गाः॥ १०.००१.०२ शिशुं न त्वा जेन्यं वर्धयन्ती माता बिभर्ति सचनस्यमाना। धनोरधि प्रवता यासि हर्यञ्जिगीषसे पशुरिवावसृष्टः॥ १०.००४.०३ ऋतायिनी मायिनी सं दधाते मित्वा शिशुं जज्ञतुर्वर्धयन्ती। विश्वस्य नाभिं चरतो ध्रुवस्य कवेश्चित्तन्तुं मनसा वियन्तः॥ १०.००५.०३ सप्त क्षरन्ति शिशवे मरुत्वते पित्रे पुत्रासो अप्यवीवतन्नृतम्। उभे इदस्योभयस्य राजत उभे यतेते उभयस्य पुष्यतः॥ १०.०१३.०५ किमङ्ग त्वा मघवन्भोजमाहुः शिशीहि मा शिशयं त्वा शृणोमि। अप्नस्वती मम धीरस्तु शक्र वसुविदं भगमिन्द्रा भरा नः॥ १०.०४२.०३ अधासु मन्द्रो अरतिर्विभावाव स्यति द्विवर्तनिर्वनेषाट्। ऊर्ध्वा यच्छ्रेणिर्न शिशुर्दन्मक्षू स्थिरं शेवृधं सूत माता॥ १०.०६१.२० अभि त्वा सिन्धो शिशुमिन्न मातरो वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनवः। राजेव युध्वा नयसि त्वमित्सिचौ यदासामग्रं प्रवतामिनक्षसि॥ १०.०७५.०४ अयं वेनश्चोदयत्पृश्निगर्भा ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने। इममपां संगमे सूर्यस्य शिशुं न विप्रा मतिभी रिहन्ति॥ १०.१२३.०१
पूर्वापरं चरतो माययैतौ शिशू क्रीडन्तौ परि यातोऽर्णवम् ।
पूर्वापरं चरतो माययैतौ शिशू क्रीडन्तौ परि यातोऽर्णवम् ।
पूर्वापरं चरतो माययैतौ शिशू क्रीडन्तौ परि यातोऽर्णवम् । आ यं हस्ते न खादिनमिति (६.०१६.४०) हस्ताभ्यां ह्येनं मन्थन्ति शिशुं जातमिति शिशुरिव वा एष प्रथमजातो यदग्निः – ऐब्रा १.१६ मन एवाप्येति यो मन एवास्तमेति मन्तव्यमेवाप्येति यो मन्तव्यमेवास्तमेति चन्द्रमेवाप्येति यश्चन्द्रमेवास्तमेति शिशुमेवाप्येति यः शिशुमेवास्तमेति श्येनमेवाप्येति यः श्येनमेवास्तमेति विज्ञानमेवाप्येति तदमृतमभयमशोकमनन्तनिर्बीजमेवाप्येतीति होवाच ॥ सुबालोपनिषत् ९.११ ॥ यो ह वै शिशुं साधानं सप्रत्याधानं सस्थूणं सदामं वेद सप्त ह द्विषतो भ्रातृव्यानवरुणद्धि । अयं वाव शिशुर्योऽयं मध्यमः प्राणः । तस्येदमेवाधानमिदं प्रत्याधानं प्राणः स्थूणान्नं दाम ॥बृहदारण्यकोप. २,२.१ ॥ प्राणा शिशुर् महीनाम् इति पशुरूपम् एवैतद् उपागच्छन्ति। पशूनां वै शिशुर् भवति। तासु क्रोशं, भ्रातृव्यहा सेन्द्रं साम। हन्ति द्विषन्तं भ्रातृव्यम् आस्येन्द्रो हवं गच्छति य एवं वेद। तद् ऐळं भवति पशवो वा इळा। पशव एतद् अहः - पशूनाम् एवावरुद्ध्यै॥जैब्रा ३.१२८ प्राणा शिशुर्महीनाम्"इति सिमानां रूपं मह्यो हि सिमाः स्वेनैवैनास्तद्रूपेण समर्धयति- तांब्रा १३.५.३ शिशुं जज्ञानं हर्यतं मृजन्ति"इत्यष्टमस्याह्नः प्रतिद्भवति। शिशुरिव वा एष सप्तमेनाह्ना जायते तमष्टमेनाह्ना मृजन्ति – तांब्रा १४.७.२ यत् सोम चित्रम् उक्थ्यम् इति चित्रवतीर् भवन्ति - चित्ररूपा वै पशवः। पशव एतद् अहः - पशूनाम् एवावरुद्ध्यै। तद् आहुर् यन्ति वा एते त्रिष्टुभः पवमानान्ताद् ये गायत्रीष्व् अन्त्यं कुर्वन्तीति। वृषण्वतीर् भवन्ति। वृषण्वद् वै त्रिष्टुभो रूपम्। तेन त्रिष्टुभः पवमानान्तान् न यन्ति॥ तासु शैशवम्। शान्तिर् वै शैशवम्। यच् छैशवेन स्तुवन्ति शान्त्या एव। अथो आहुश् शैशवेन वा इन्द्रो वृत्रं पर्याकारं शक्वरीभिर् अहन्न् इति। तद् व् एव शैशवस्य शैशवत्वम्। तद् उ भ्रातृव्यहा । हन्ति द्विषन्तं भ्रातृव्यं य एवं वेद। प्रजापतेर् अक्ष्य् अश्वयत्। तत् परापतत्। सो ऽकामयत - पुनर् मा चक्षुर् आविशेद् इति। स एतत् सामापश्यत्। तेनास्तुत। ततो वै तं चक्षुः पुनर् आविशत्। अश्व एव शुचिर् भूत्वैनं पुनर् आविशत्। तज्ज्योतिर् वै चक्षुः। ज्योतिर् वावैनं तद् आविशत्। तद् एतच् चक्षुष्यं साम। अजरसं हास्य चक्षुर् न व्येति य एवं वेद॥जैब्रा ३.१०२
शश यश्चिद्धि त इत्था भगः शशमानः पुरा निदः। अद्वेषो हस्तयोर्दधे॥ १.०२४.०४ दे. सविता या वः शर्म शशमानाय सन्ति त्रिधातूनि दाशुषे यच्छताधि। अस्मभ्यं तानि मरुतो वि यन्त रयिं नो धत्त वृषणः सुवीरम्॥ १.०८५.१२ शशमानस्य वा नरः स्वेदस्य सत्यशवसः। विदा कामस्य वेनतः॥ १.०८६.०८ यच्चित्रमप्न उषसो वहन्तीजानाय शशमानाय भद्रम्। तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.११३.२० त्वमग्ने शशमानाय सुन्वते रत्नं यविष्ठ देवतातिमिन्वसि। तं त्वा नु नव्यं सहसो युवन्वयं भगं न कारे महिरत्न धीमहि॥ १.१४१.१० घृतवन्तमुप मासि मधुमन्तं तनूनपात्। यज्ञं विप्रस्य मावतः शशमानस्य दाशुषः॥ १.१४२.०२ यो वां यज्ञैः शशमानो ह दाशति कविर्होता यजति मन्मसाधनः। उपाह तं गच्छथो वीथो अध्वरमच्छा गिरः सुमतिं गन्तमस्मयू॥ १.१५१.०७ यस्ते स्तनः शशयो यो मयोभूर्येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि। यो रत्नधा वसुविद्यः सुदत्रः सरस्वति तमिह धातवे कः॥ १.१६४.४९ यः सुन्वन्तमवति यः पचन्तं यः शंसन्तं यः शशमानमूती। यस्य ब्रह्म वर्धनं यस्य सोमो यस्येदं राधः स जनास इन्द्रः॥ २.०१२.१४ स नो युवेन्द्रो जोहूत्रः सखा शिवो नरामस्तु पाता। यः शंसन्तं यः शशमानमूती पचन्तं च स्तुवन्तं च प्रणेषत्॥ २.०२०.०३ उच्छोचिषा सहसस्पुत्र स्तुतो बृहद्वयः शशमानेषु धेहि। रेवदग्ने विश्वामित्रेषु शं योर्मर्मृज्मा ते तन्वं भूरि कृत्वः॥ ३.०१८.०४ आ धेनवो धुनयन्तामशिश्वीः सबर्दुघाः शशया अप्रदुग्धाः। नव्यानव्या युवतयो भवन्तीर्महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥ ३.०५५.१६ इन्द्रः सु पूषा वृषणा सुहस्ता दिवो न प्रीताः शशयं दुदुह्रे। विश्वे यदस्यां रणयन्त देवाः प्र वोऽत्र वसवः सुम्नमश्याम्॥ ३.०५७.०२ यस्तुभ्यमग्ने अमृताय दाशद्दुवस्त्वे कृणवते यतस्रुक्। न स राया शशमानो वि योषन्नैनमंहः परि वरदघायोः॥ ४.००२.०९ त्वमग्ने वाघते सुप्रणीतिः सुतसोमाय विधते यविष्ठ। रत्नं भर शशमानाय घृष्वे पृथु श्चन्द्रमवसे चर्षणिप्राः॥ ४.००२.१३ इन्द्रं कामा वसूयन्तो अग्मन्स्वर्मीळ्हे न सवने चकानाः। श्रवस्यवः शशमानास उक्थैरोको न रण्वा सुदृशीव पुष्टिः॥ ४.०१६.१५ पिपीळे अंशुर्मद्यो न सिन्धुरा त्वा शमी शशमानस्य शक्तिः। अस्मद्र्यक्छुशुचानस्य यम्या आशुर्न रश्मिं तुव्योजसं गोः॥ ४.०२२.०८ कथा सबाधः शशमानो अस्य नशदभि द्रविणं दीध्यानः। देवो भुवन्नवेदा म ऋतानां नमो जगृभ्वाँ अभि यज्जुजोषत्॥ ४.०२३.०४ उत स्मा सद्य इत्परि शशमानाय सुन्वते। पुरू चिन्मंहसे वसु॥ ४.०३१.०८ इन्द्रा ह रत्नं वरुणा धेष्ठेत्था नृभ्यः शशमानेभ्यस्ता। यदी सखाया सख्याय सोमैः सुतेभिः सुप्रयसा मादयैते॥ ४.०४१.०३ ता घा ता भद्रा उषसः पुरासुरभिष्टिद्युम्ना ऋतजातसत्याः। यास्वीजानः शशमान उक्थैः स्तुवञ्छंसन्द्रविणं सद्य आप॥ ४.०५१.०७ नवग्वासः सुतसोमास इन्द्रं दशग्वासो अभ्यर्चन्त्यर्कैः। गव्यं चिदूर्वमपिधानवन्तं तं चिन्नरः शशमाना अप व्रन्॥ ५.०२९.१२ य ओहते रक्षसो देववीतावचक्रेभिस्तं मरुतो नि यात। यो वः शमीं शशमानस्य निन्दात्तुच्छ्यान्कामान्करते सिष्विदानः॥ ५.०४२.१० ऋधद्यस्ते सुदानवे धिया मर्तः शशमते। ऊती ष बृहतो दिवो द्विषो अंहो न तरति॥ ६.००२.०४ ईजे यज्ञेभिः शशमे शमीभिर्ऋधद्वारायाग्नये ददाश। एवा चन तं यशसामजुष्टिर्नांहो मर्तं नशते न प्रदृप्तिः॥ ६.००३.०२ संवत्सरं शशयाना ब्राह्मणा व्रतचारिणः। वाचं पर्जन्यजिन्वितां प्र मण्डूका अवादिषुः॥ ७.१०३.०१ 8.9 शशकर्णः काण्वः। दे. अश्विनौ। वयं त इन्द्र स्तोमेभिर्विधेम त्वमस्माकं शतक्रतो। महि स्थूरं शशयं राधो अह्रयं प्रस्कण्वाय नि तोशय॥ ८.०५४.०८ न यं दुध्रा वरन्ते न स्थिरा मुरो मदे सुशिप्रमन्धसः। य आदृत्या शशमानाय सुन्वते दाता जरित्र उक्थ्यम्॥ ८.०६६.०२ ऋधगित्था स मर्त्यः शशमे देवतातये। यो नूनं मित्रावरुणावभिष्टय आचक्रे हव्यदातये॥ ८.१०१.०१ उत माता बृहद्दिवा शृणोतु नस्त्वष्टा देवेभिर्जनिभिः पिता वचः। ऋभुक्षा वाजो रथस्पतिर्भगो रण्वः शंसः शशमानस्य पातु नः॥ १०.०६४.१० इन्द्रे भुजं शशमानास आशत सूरो दृशीके वृषणश्च पौंस्ये। प्र ये न्वस्यार्हणा ततक्षिरे युजं वज्रं नृषदनेषु कारवः॥ १०.०९२.०७ उत्ते शुष्मा जिहतामुत्ते अर्चिरुत्ते अग्ने शशमानस्य वाजाः। उच्छ्वञ्चस्व नि नम वर्धमान आ त्वाद्य विश्वे वसवः सदन्तु॥ १०.१४२.०६
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