पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(Shamku - Shtheevana)

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

 

Home

 

Shamku -  Shankushiraa  ( words like Shakata/chariot, Shakuna/omens, Shakuni, Shakuntalaa, Shakti/power, Shakra, Shankara, Shanku, Shankukarna etc. )

Shankha - Shataakshi (Shankha, Shankhachooda, Shachi, Shanda, Shatadhanvaa, Shatarudriya etc.)

Shataananda - Shami (Shataananda, Shataaneeka, Shatru / enemy, Shatrughna, Shani / Saturn, Shantanu, Shabara, Shabari, Shama, Shami etc.)

Shameeka - Shareera ( Shameeka, Shambara, Shambhu, Shayana / sleeping, Shara, Sharada / winter, Sharabha, Shareera / body etc.)

Sharkaraa - Shaaka   (Sharkaraa / sugar, Sharmishthaa, Sharyaati, Shalya, Shava, Shasha, Shaaka etc.)

Shaakataayana - Shaalagraama (Shaakambhari, Shaakalya, Shaandili, Shaandilya, Shaanti / peace, Shaaradaa, Shaardoola, Shaalagraama etc.)

Shaalaa - Shilaa  (Shaalaa, Shaaligraama, Shaalmali, Shaalva, Shikhandi, Shipraa, Shibi, Shilaa / rock etc)

Shilaada - Shiva  ( Shilpa, Shiva etc. )

Shivagana - Shuka (  Shivaraatri, Shivasharmaa, Shivaa, Shishupaala, Shishumaara, Shishya/desciple, Sheela, Shuka / parrot etc.)

Shukee - Shunahsakha  (  Shukra/venus, Shukla, Shuchi, Shuddhi, Shunah / dog, Shunahshepa etc.)

Shubha - Shrigaala ( Shubha / holy, Shumbha, Shuukara, Shoodra / Shuudra, Shuunya / Shoonya, Shoora, Shoorasena, Shuurpa, Shuurpanakhaa, Shuula, Shrigaala / jackal etc. )

Shrinkhali - Shmashaana ( Shringa / horn, Shringaar, Shringi, Shesha, Shaibyaa, Shaila / mountain, Shona, Shobhaa / beauty, Shaucha, Shmashaana etc. )

Shmashru - Shraanta  (Shyaamalaa, Shyena / hawk, Shraddhaa, Shravana, Shraaddha etc. )

Shraavana - Shrutaayudha  (Shraavana, Shree, Shreedaamaa, Shreedhara, Shreenivaasa, Shreemati, Shrutadeva etc.)

Shrutaartha - Shadaja (Shruti, Shwaana / dog, Shweta / white, Shwetadweepa etc.)

Shadaanana - Shtheevana (Shadaanana, Shadgarbha, Shashthi, Shodasha, Shodashi etc.)

 

 

 

शरभङ्ग मुनि की कथा के माध्यम से आत्मज्ञान द्वारा निष्कामी मन के दृष्टि - परिवर्तन का चित्रण

- राधा गुप्ता

     वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड के पांचवं सर्ग में शरभंग मुनि की छोटी सी कथा इस प्रकार है -

कथा का स्वरूप

     विराध का वध करके जब राम अनुज लक्ष्मण एवं सीता के साथ शरभंग मुनि के आश्रम पर गए, तब उन्होंने यह अद्भुत दृश्य देखा कि देवताओं के साथ एक सुन्दर रथ पर आरूढ हुए इन्द्र शरभंग मुनि से बात कर रहे हैं। राम आगे बढे किन्तु राम को देखते ही इन्द्र शरभंग मुनि से विदा लेकर तुरन्त स्वर्गलोक को चले गए। राम ने मुनि के समीप पहुँचकर उनसे इन्द्र के आगमन का कारण पूछा। मुनि ने बताया कि इन्द्र उन्हें स्वर्गलोक ले जाना चाहते थे परन्तु वे आपका दर्शन किए बिना स्वर्गलोक अथवा ब्रह्मलोक जाना नहीं चाहते थे। शरभंग मुनि ने तप से प्राप्त हुए लोकों को राम को देना चाहा परन्तु राम ने सब लोकों की प्राप्ति कराने का आश्वासन देकर मुनि से अपने निवास के लिए स्थान माँगा। शरभंग ने कहा कि सुतीक्ष्ण मुनि ही आपके निवास की व्यवस्था करेंगे। ऐसा कहकर शरभंग मुनि ने राम के देखते - देखते अग्नि को प्रज्वलित करके उसमें प्रवेश किया र अपने पुराने शरीर का परित्याग करके वे एक तेजस्वी कुमार के रूप में प्रकट होकर सभी लोकों को लांघकर ब्रह्मलोक में पहुँच गए।

कथा की प्रतीकात्मकता

पहले कथा के प्रतीकों को समझना उपयोगी होगा।

1.शरभंग मुनि -

शरभंग शब्द शर तथा भंग नामक दो शब्दों के मेल से बना है। शर शब्द क्षर का ही तद्भव स्वरूप प्रतीत होता है जिसका अर्थ है - विनाशशील तथा भंग का अर्थ है - विनाश। अतः शरभंग का अर्थ हुआ - विनाशशील का विनाश। मुनि शब्द पौराणिक साहित्य में मन का वाचक है। अतः शरभंग मुनि के रूप में ऐसे मन को इंगित किया गया है जिसने समस्त विनाशशील पदार्थों का विनाश कर दिया हो अर्थात् जो समस्त विनाशशील पदार्थों के प्रति कामना से रहित हो गया हो। एक शब्द में यदि कहा जाए तो निष्कामी, निःस्पृही मन को ही यहाँ शरभंग मुनि कहकर संकेतित किया जा सकता है। इस शरभंग मुनि अर्थात् निःस्पह, निष्कामी मन को समझाने के लिए ही कथा के अन्दर इन्द्र के आगमन की अवान्तर घटना का समावेश किया गया है।

     इन्द्र का देवताओं के साथ रथ पर आरूढ होकर शरभंग मुनि के समीप आना, शरभंग मुनि से स्वर्गलोक चलने के लिए आग्रह करना परन्तु शरभंग मुनि का इन्द्र के साथ स्वर्गलोक में न जाकर राम के दर्शन के प्रति उत्सुक होना यह संकेत करता है कि निष्कामी मन किसी भी नश्वर पदार्थ में नहीं अटकता। वह केवल आत्मज्ञान (स्वस्वरूप का ज्ञान) के आगमन के प्रति उत्सुक होता है।

2-शरभंग मुनि का प्रज्वलित अग्नि में प्रवेश -

प्रज्वलित अग्नि जाग्रत चेतना को इंगित करती है। चेतना की दो स्थितियां होती हैं। एक प्रसुप्त (सोई हुई) तथा दूसरी जाग्रत(जागी हुई)। सोई हुई चेतना की स्थिति में किसी भी प्रकार का रूपान्तरण सम्भव नहीं है। अर्थात् कुछ भी श्रेष्ठ पाने के लिए तत्सम्बन्धित प्रबल इच्छा और तैयारी (पात्रता) का होना अनिवार्य है।

3 - शरभंग मुनि द्वारा पुराने वृद्ध शरीर का परित्याग तथा नूतन कुमार के रूप में प्राकट्य

     पुराना वृद्ध शरीर देह दृष्टि को तथा नूतन कुमार शरीर आत्म दृष्टि को इंगित करता है। यहाँ यह संकेतित किया गया है कि कामनायुक्त मन कामना रहित (निष्काम) होने तक चूंकि शरीर भाव (मैं शरीर हूँ - इस संकल्प में रहना) में ही विद्यमान रहता है, अतः शरीर भाव से शरीर दृष्टि का निर्मित होना सहज और स्वाभाविक है। परन्तु कामना रहित मन को जैसे ही आत्मज्ञान, आत्मस्वरूप का ज्ञान (राम का दर्शन) हो जाता है - वैसे ही पुरानी देहदृष्टि भी आत्मदृष्टि में परिवर्तित हो जाती है। चूंकि अनेक जन्मों की यात्रा में एक शरीर को छोडने तथा दूसरा शरीर धारण करने के कारण निर्मित हुई शरीर - दृष्टि बहुत पुरानी है, इसलिए उसे कथा में वृद्ध कहकर इंगित किया गया है। इसके विपरीत आत्म - दृष्टि एकदम नई है, इसलिए उसे कथा में नूतन कुमार के रूप में इंगित किया गया है।

 4 - शरभंग मुनि का सब लोकों को लांघकर ब्रह्मलोक में पहुँचना -

     लोक शब्द पौराणिक साहित्य में दृष्टि का वाचक है। मनुष्य अपानी साधना में जेसे - जैसे प्रगति करता है, वैसे - वैसे उसके भीतर दया दृष्टि, शुभ - दृष्टि, परमार्थ - दृष्टि, प्रेम - दृष्टि तथा करुणा - दृष्टि आदि अनेक प्रकार की दृष्टियों का निर्माण होता जाता है। ये ही विभिन्न लोक हैं। परन्तु आत्म दृष्टि के फलस्वरूप ब्रह्मदृष्टि(परमात्म दृष्टि) के विकसित होने पर साधक द्वारा उपर्युक्त वर्णित सभी दृष्टियों का लंघन हो जाता है।

कथा का अभिप्राय

     जीवन को देखने की दो ही दृष्टियाँ हैं। एक है - देह दृष्टि तथा दूसरी है - आत्मदृष्टि। जब मनुष्य स्वयं को शरीर मात्र मानता है, तब इसी विचार या संकल्प के अनुसार उसकी भावनाएं भी निर्मित होती हैं। समस्त भावनाएँ मिलकर उसके दृष्टिकोण (वृत्ति) को बनाती हैं। दृष्टिकोण के आधार पर मनुष्य कार्य करता है और कर्म की बार - बार आवृत्ति से उसके भीतर देह - दृष्टि का निर्माण हो जाता है। अतः देहदृष्टि के निर्माण में मनुष्य को पृथक् से कुछ नहीं करना पडता। देह के विचार का संकल्प (मैं शरीर हूँ - यह विचार) के आधार पर ही धीरे - धीरे देहदृष्टि का निर्माण हो जाता है।

     इसके ठीक विपरीत, इस विचार या संकल्प को धारण करने पर कि मैं शरीर मात्र नहीं, अपितु शरीर को चलाने वाली एक शक्ति - एक आत्मा हूँ - तब उपर्युक्त वर्णित शृंखला (विचार - भाव - दृष्टिको - कर्म - आदत - दृष्टि) के आधार पर ही मनुष्य में आत्म - दृष्टि का निर्माण होता है और मनुष्य स्वयं को आत्मरूप देखता हुआ धीरे - धीरे दूसरों को भी आत्मस्वरूप देखने लगता है।

     अतः देह-दृष्टि से आत्म - दृष्टि में रूपान्तरण का एकमात्र मूल आधार है - मनुष्य का यह विचार या संकल्प कि मैं आत्मा हूँ - शरीर नहीं। परन्तु आत्मा के विचार में स्थित होना भी तभी सहज होता है जब मन निष्काम हो। कामनाओं से भरा हुआ मन आत्मा के विचार को धारण करने में समर्थ नहीं होता। प्रस्तुत कथा के माध्यम से दो महत्त्वपूर्ण संकेत किए गए हैं।

     पहला संकेत यह है कि जो मन विनाशशील पदार्थों की कामना में उलझा हुआ है, उसके लिए आत्मस्वरूपता का विचार या संकल्प सम्भव नहीं है। इसके विपरीत, निःस्पृह, निष्कामी अर्थात् कामनाओं से मुक्त हो चुके मन के लिए इस विचार या संकल्प को धारण करना कि मैं आत्मा हूँ - अत्यन्त सहज है। अथवा ऐसा भी कह सकते हैं कि निःस्पृह - निष्कामी मन के समक्ष आत्मज्ञान (आत्मस्वरूप) स्वतः प्रकट होता है, जिसे कथा में शरभंग मुनि के आश्रम में राम का प्रविष्ट होना कहा गया है।

     दूसरा महत्त्वपूर्ण संकेत यह है कि निःस्पृहता - निष्कामता (जिसे शरभंग मुनि कहा गया है) यद्यपि अत्यन्त श्रेष्ठ स्थिति है, परन्तु सम्पूर्ण या पर्याप्त नहीं है। निष्कामी मन (मनुष्य) को भी आत्मज्ञान में स्थित होना अनिवार्य है। आत्मज्ञान अर्थात् स्वः स्वरूप में स्थित होकर ही देह - दृष्टि का आत्म - दृष्टि में रूपान्तरण सम्भ है और फिर आत्मदृष्टि ही शनैः - शनैः विकसित होकर ब्रह्मदृष्टि या परमात्मदृष्टि बन जाती है. जिसे कथा में शरभंग मुनि का पहले वृद्ध से कुमार बन जाना और फिर ब्रह्मलोक में स्थित हो जाना कहा गया है।

     प्रकारान्तर से कथा का तात्पर्य यह है कि विश्व के प्रति प्रेम भाव में विद्यमान होना जीवन का आनन्द है और उद्देश्य भी। परन्तु इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए पहले आत्मदृष्टि का निर्माण होना आवश्यक है और आत्मदृष्टि का निर्माण आत्मज्ञान (मैं सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा हूँ - इस विचार या संकल्प में नित्य स्थित) में अवस्थित हुए बिना सम्भव नहीं है। आत्मज्ञान में अवस्थिति तभी सम्भव है जब मन निष्काम हो अर्थात् सभी क्षर (विनाशशील) पदार्थों के प्रति कामना से रहित हो गया हो और आत्मज्ञान हेतु उत्सुक हो।

प्रथम लेखन - 1-8-2014ई.(श्रावण शुक्ल पञ्चमी, विक्रम संवत् 2071)

 

Change of perception of a detached mind through the story of sage Sharabhanga

 - Radha Gupta

 

After burying demon Viradh, Rama with Lakshmana and Sita reached to the hermitage of sage Sharbhanga> There he saw Indra communicating with Sharbhanga> But  as soon as Rama reached, Indra immediately disappeared.

          Rama asked sage Sharbhanga the reason for coming of Indra.Sharbhanga told that Indra had come to take him to heaven bjt he refused as he was only interested in seeing you. Rama asked Sharbhanga for the place to stay but Sharbhanga requested him to go to sage Suteekshna.

          In presence of Rama, sage Sharbhanga produced fire, entered that fire, came out of that fire as a young one and proceeded to Brahmaloka>

          The story is symbolic and related to the change of perception of a detached mind symbolized as sage Sharbhanga. The story describes four aspects of the detached mind as under -

1. This detached mind develops many qualities which is symbolized as obtaining of different lokas by Sharabhanga.

2. This detached mind is eligible for Self knowledge that Self knowledge itself descends symbolized as coming of Rama in the hermitage of sage Sharbhanga.

3. - A detached mind is quite virtuous but still perceives everything through the body. Hence as soon as it knows and realizes Self, the old body - perception changes into new soul - perception symbolized as the transformation of sage Sharbhanga from old age to young.

4. This new soul - perception also expands and becomes one with God. This is the ultimate goal of life and now nothing is needed. This is symbolized as sage Sharbhanga going to Brahmaloka crossing all the lokas.

 

शरभङ्ग की कथा का वैदिक स्वरूप

-    विपिन कुमार

 

विष्णु पुराण १.२२.७३ में यह उल्लेख कि विष्णु के शर ज्ञान व कर्म मयी इन्द्रियों के प्रतीक हैं, को शर शब्द समझने की कुञ्जी कहा जा सकता है। जैसा कि राधा ने उल्लेख किया है, शर शब्द का पूर्व रूप क्षर प्रतीत होता है तथा शर शब्द की निरुक्ति के रूप में शॄ – हिंसायाम् धातु को उद्धृत किया जाता है क्योंकि शर या बाण हिंसा ही तो करते हैं। मनुष्य को प्राप्त होने वाली ऊर्जा को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक ऊर्जा तो वह है जो ब्रह्मशक्ति बन जाती है तथा दूसरी वह है जो बहिर्मुखी होकर हमारी इन्द्रियों को प्राप्त होती है, हमें सारे संसार में कार्य करने की ओर उन्मुख करती है। इसे क्षरित होने वाली ऊर्जा कहा जा सकता है जिसके लिए शॄ – हिंसायाम् धातु अथवा क्षरण अर्थ उपयुक्त है।

ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है कि शर राजन्य का या क्षत्रिय का वज्र है। अथर्ववेद में कहा गया है कि शर के उद्गम स्थान को, इसके पिता को और इसकी माता को जानो और इस प्रकार जो बाल या वाल या बिखरने वाली ऊर्जा है, उसका नाश करो। इसका अर्थ हुआ कि इन्द्रियों को मिलने वाली जो ऊर्जा है, उसका भी केन्द्रीयकरण करके उसको शर बनाया जा सकता है, बाण का रूप दिया जा सकता है। जब विष्णु पुराण कहता है कि विष्णु के शर ज्ञान व कर्ममयी इन्द्रियों के प्रतीक हैं, तो उससे यही तात्पर्य हो सकता है। जब महाभारत में भीष्म को शरशय्या पर लेटा हुआ कहा जाता है तो उसका भी यही अर्थ हो सकता है कि अब कोई भी ऊर्जा वाल के रूप में बिखर नहीं रही है, इन्द्रियों को मिलने वाली सारी शक्ति अब केन्द्रित होकर शर बन गई है, सारा शरीर ही शर बन गया है। और जब रामायण में शरभङ्ग ऋषि का उल्लेख आता है तो उसका तात्पर्य यह हो सकता है कि मनुष्य को मिलने वाली ऊर्जा का जो दो प्रकार से विभाजन हो रहा था – एक भाग ब्राह्मण को और एक भाग क्षत्रिय को जा रहा था, उसमें से शरभङ्ग मुनि ने क्षत्रिय भाग को समाप्त कर दिया है। अब सारी ऊर्जा ब्राह्मण भाग के पोषण में, ब्रह्मशक्ति का विकास करने में लग रही है। लेकिन कथा में एक और वाक्य जोड दिया गया है कि शरभङ्ग मुनि इन्द्र से वार्तालाप कर रहा था और जैसे ही राम का आगमन हुआ, इन्द्र अदृश्य हो गया। इन्द्र को इन्द्रियों का स्वामी कहा जाता है। इसका अर्थ हुआ कि राम के प्रकट हुए बिना क्षत्र भाग को मिलने वाली ऊर्जा को बिल्कुल समाप्त नहीं किया जा सकता।

राम को शरभङ्ग ऋषि के निकट जाने की प्रेरणा देने वाला रामायण में विराध राक्षस है। विराध कौन है, यह समझने से पहले राध को या राधा को समझना होगा। यह आश्चर्यजनक है कि सभी प्राचीन संस्कृतियों में रा का अर्थ सूर्य की किरण किया गया है। जो सूर्य की किरण को, सूर्य के तेज को धारण करने में समर्थ हो जाए, वह राधा है(कहा जाता है कि गौ पशु अपने ककुद् के माध्यम से सूर्य की किरणों को धारण करने में समर्थ हो जाता है। ओषधि जगत में इक्षु सर्वाधिक सूर्य किरणों का उपयोग कर पाता है)। और जो धारण करने में, उसका सम्यक् रूप से उपयोग करने में समर्थ न हो सके, जो सौर ऊर्जा का उपयोग अन्यत्र भौतिक सिद्धियों के लिए करने के लिए प्रयत्नशील हो (जैसा आजकल सौर ऊर्जा से विद्युत उत्पन्न करने के प्रयास चल रहे हैं), वह विराध है। अथर्ववेद का कथन है –

(.१.४ ) उपहूतो वाचस्पतिरुपास्मान् वाचस्पतिर्ह्वयताम् ।

(.१.४ ) सं श्रुतेन गमेमहि मा श्रुतेन वि राधिषि ॥४॥

इस मन्त्र का सामान्य अर्थ यह है जब हम वाचस्पति का आह्वान करें तो वाचस्पति भी हमारा आह्वान करे।  हम श्रुत के अनुसार आचरण करें, श्रुत से विराध या विरोध न करें। यद्यपि मन्त्र में वि – राध प्रकट हो रहा है, लेकिन इनको एक शब्द के रूप में विराध भी मान सकते हैं। जो श्रुत ज्ञान के अनुसार आचरण न कर सके, जिसे अपने जीवन में स्मृतियों के अनुसार आचरण करना पडे, जो वेदवचनों का स्वयं निर्वचन न कर सके, जिसे वेदवचनों का निर्वचन करने के लिए पुराणों का या अन्य शास्त्रों का सहारा लेना पडे, वह विराध कहलाएगा। विराध की शक्ति वाल रूप में, इन्द्रियों के रूप में नष्ट हो रही है। जब विराध पर नियन्त्रण हो जाए, वही राम को बता सकता है कि अब शरभङ्ग से मिलने का समय आ गया है, अब शर को, क्षत्र गुण को धारण करने की कोई आवश्यकता नहीं है, अब सीधे ब्रह्मज्ञान में प्रवेश किया जा सकता है। यह ध्यान देने योग्य है कि पुराणों में जिन्हें सूर्य रश्मियां कहा जाता है, हमारे शरीर में वह इन्द्रियों का रूप है।

प्रथम लेखन – 5-8-2014ई.(श्रावण शुक्ल नवमी, विक्रम संवत् 2071)

 

संदर्भ

*(१.२.१ ) विद्मा शरस्य पितरं पर्जन्यं भूरिधायसम् ।

(१.२.१ ) विद्मो ष्वस्य मातरं पृथिवीं भूरिवर्पसम् ॥१॥

*(१.२.३ ) वृक्षं यद्गावः परिषस्वजाना अनुस्फुरं शरमर्चन्त्यृभुम् ।

(१.२.३ ) शरुमस्मद्यावय दिद्युमिन्द्र ॥३॥

*(१.३.१ ) विद्मा शरस्य पितरं पर्जन्यं शतवृष्ण्यम् ।

(१.३.१ ) तेना ते तन्वे शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ॥१॥

*(१.३.२ ) विद्मा शरस्य पितरं मित्रं शतवृष्ण्यम् ।

(१.३.२ ) तेना ते तन्वे शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ॥२॥

*(१.३.३ ) विद्मा शरस्य पितरं वरुणं शतवृष्ण्यम् ।

(१.३.३ ) तेना ते तन्वे शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ॥३॥

*(१.३.४ ) विद्मा शरस्य पितरं चन्द्रं शतवृष्ण्यम् ।

(१.३.४ ) तेना ते तन्वे शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ॥४॥

*(१.३.५ ) विद्मा शरस्य पितरं सूर्यं शतवृष्ण्यम् ।

(१.३.५ ) तेना ते तन्वे शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ॥५॥

*(१.१९.३ ) यो नः स्वो यो अरणः सजात उत निष्ट्यो यो अस्मामभिदासति ।

(१.१९.३ ) रुद्रः शरव्ययैतान् ममामित्रान् वि विध्यतु ॥३॥

*(४.३०.५ ) अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ ।

*(३.१९.८ ) अवसृष्टा परा पत शरव्ये ब्रह्मसंशिते ।

(३.१९.८ ) जय अमित्रान् प्र पद्यस्व जह्येषां वरंवरं मामीषां मोचि कश्चन ॥८॥

*(४.७.४ ) वि ते मदं मदावति शरमिव पातयामसि ।

*(४.७.४ ) प्र त्वा चरुमिव येषन्तं वचसा स्थापयामसि ॥४॥

*(४.३०.५ ) अहं जनाय समदं कृणोमि अहं द्यावापृथिवी आ विवेश ॥५॥

*(५.१८.९ ) तीक्ष्णेषवो ब्राह्मणा हेतिमन्तो यामस्यन्ति शरव्यां न सा मृषा ।

(५.१८.९ ) अनुहाय तपसा मन्युना चोत दुरादव भिन्दन्त्येनम् ॥९॥

*(६.६५.१ ) अव मन्युरवायताव बाहू मनोयुजा ।

(६.६५.१ ) पराशर त्वं तेषां पराञ्चं शुष्ममर्दयाधा नो रयिमा कृधि ॥१॥

*(६.६५.२ ) निर्हस्तेभ्यो नैर्हस्तं यं देवाः शरुमस्यथ ।

६.६५.२ ) वृश्चामि शत्रूणां बाहून् अनेन हविषाऽहम् ॥२॥

*(८.३.१२ ) यदग्ने अद्य मिथुना शपातो यद्वाचस्तृष्टं जनयन्त रेभाः ।

*(८.३.१२ ) मन्योर्मनसः शरव्या जायते या तया विध्य हृदये यातुधानान् ॥१२॥

*(८.३.१४ ) पराद्य देवा वृजिनं शृणन्तु प्रत्यगेनं शपथा यन्तु सृष्टाः ।

(८.३.१४ ) वाचास्तेनं शरव ऋछन्तु मर्मन् विश्वस्यैतु प्रसितिं यातुधानः ॥१४॥

*(८.८.४ ) परुषान् अमून् परुषाह्वः कृणोतु हन्त्वेनान् वधको वधैः ।

(८.८.४ ) क्षिप्रं शर इव भजन्तां बृहज्जालेन संदिताः ॥४॥

*(१०.५.४८ ) यदग्ने अद्य मिथुना शपतो यद्वाचस्तृष्टं जनयन्त रेभाः ।

(१०.५.४८ ) मन्योर्मनसः शरव्या जायते या तया विध्य हृदये यातुधानान् ॥४८॥

*(११.१०[१२].६ ) शितिपदी सं द्यतु शरव्येयं चतुष्पदी ।

(११.१०[१२].६ ) कृत्येऽमित्रेभ्यो भव त्रिषन्धेः सह सेनया ॥६॥

*(१२.५.२४ ) सेदिरुपतिष्ठन्ती मिथोयोधः परामृष्टा ॥२४॥

(१२.५.२५ ) शरव्या मुखेऽपिनह्यमान ऋतिर्हन्यमाना ॥२५॥

*(१२.५.५९ ) मेनिः शरव्या भवाघादघविषा भव ॥५९॥ - शौनकीय अथर्ववेद

 

वेदिकाकरणम्

*१.२.४.[१]

इन्द्रो ह यत्र वृत्राय वज्रं प्रजहार । स प्रहृतश्चतुर्धाऽभवत्तस्य स्फ्यस्तृतीयं वा यावद्वा यूपस्तृतीयं वा यावद्वा रथस्तृतीयं वा यावद्वाथ यत्र प्राहरत्तच्छकलोऽशीर्यत स पतित्वा शरोऽभवत्तस्माच्छरो नाम यदशीर्यतैवमु स चतुर्धा वज्रोऽभवत्

*१.२.४.[२]

ततो द्वाभ्यां ब्राह्मणा यज्ञे चरन्ति द्वाभ्यां राजन्यबन्धवः संव्याधे यूपेन च स्फ्येन च ब्राह्मणा रथेन च शरेण च राजन्यबन्धवः

*३.१.३.[१३]

शरेषीकयानक्ति । वज्रो वै शरो विरक्षस्तायै सतूला भवत्यमूलं वा इदमुभयतः परिच्छिन्नं रक्षोऽन्तरिक्षमनुचरति यथायं पुरुषोऽमूल उभयतः परिच्छिन्नोऽन्तरिक्षमनुचरति तद्यत्सतूला भवति विरक्षस्तायै

*शरमयम् बर्हिः शृणात्य् एवैनम् । वैभीदक इध्मो भिनत्त्य् एवैनम् ॥ -तै.सं. 2.1.5.7

*इन्द्रः वृत्राय वज्रम् प्राहरत् । स त्रेधा व्यभवत् स्फ्यस् तृतीयम्̇ रथस् तृतीयं यूपस् तृतीयम् । ये ऽन्तःशरा अशीर्यन्त ताः शर्करा अभवन् । तच् छर्कराणाम्̇ शर्करत्वम् । - तै.सं. 5.2.6.1

*अङ्गिरसः सुवर्गं लोकं यन्त ऊर्जं व्यभजन्त ततो यद् अत्यशिष्यत ते शरा अभवन्न् ऊर्ग् वै शरा यच् छरमयी  मेखला भवत्य् ऊर्जम् एवाव रुन्द्धे – तै.सं. 6.1.3.3

*इन्द्रो वृत्राय वज्रम् प्राहरत् स त्रेधा व्यभवत् स्फ्यस् तृतीयम्̇ रथस् तृतीयं यूपस् तृतीयम् ॥  ये ऽन्तःशरा अशीर्यन्त ते शरा अभवन् तच् छराणाम्̇ शरत्वम् ।

 *वज्रो वै शराः क्षुत् खलु वै मनुष्यस्य भ्रातृव्यो यच् छरमयी मेखला भवति वज्रेणैव साक्षात् क्षुधम् भ्रातृव्यम् मध्यतो ऽप हते – तै.सं. 6.1.3.5

*मैत्रः शरो गृहीतः (प्रवर्ग्यः) – तै.आ. 5.11.4