पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Shamku - Shtheevana) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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शमी शतपथब्राह्मणे दर्शपूर्णमासयागसंदर्भे येषां दशमिथुनानां परिगणनं अस्ति, तेषां शम्या-कृष्णाजिनं प्रथमं मिथुनमस्ति। किन्तु शम्यायाः कृष्णाजिनेन सह मिथुनं केन प्रकारेण अस्ति, अस्य विवेचनं न कुत्रापि लभ्यते। निघण्टुमध्ये शमीशब्दस्य परिगणनं कर्मनामेषु अस्ति। अयं संकेतमस्ति यत् ये कारणाः सन्ति, ते शम्याः शमनावस्थायां उपद्रवं कर्तुं समर्थाः सन्ति। एवं न भवेत्, अतएव कारणानां परिहाराय दीक्षितः कृष्णाजिनं धारयति, अयं अनुमानः। यागे वेदिनिर्माणकाले आहवनीयादिखराणां स्थाननिर्धारणं शम्याप्रक्षेपणेन भवति। यत्र शंक्वाकारा शम्या पतति, तत्र। कथनमस्ति - एते ह वै स्वर्गस्य लोकस्य विक्रमा यत् शम्यापरासाः- जै २.२९८। अतएव, शम् अवस्थायाः, शमस्तराणां उपलब्धिः केतिकस्तरतः प्रापणीयः अस्ति, अयं साधकोपरि निर्भरः अस्ति। पौराणिकवाङ्मये शमीवृक्षस्योपरि अश्वत्थस्य आरोहणस्य आख्यानाः सन्ति। अश्वत्थः शमीमध्ये रेतसः सिंचनं करोति येन शम्यां गर्भस्य धारणं भवति। यथा भगवद्गीतायां कथितमस्ति, पापपूर्णअश्वत्थस्य आरोहणं ऊर्ध्वदिशायां भवति, पुण्यअश्वत्थस्य अधोदिशायां। पुण्यअश्वत्थस्य मूलः ऊपरि भवति, शाखादि अधः। उल्लेखमस्ति यत् यजमानः यं कृष्णाजिनं उत्तरीयवस्त्ररूपे धारयति, अवभृथस्नान काले सः गजोपरि आरोहयित्वा तस्य अजिनस्य क्षेपणं करोति। गजः सूर्यस्य पृथिव्योपरि रूपः अस्ति यः स्वकिरणेभ्यः पृथिवीतः रसस्य कर्षणं कर्तुं शक्तः अस्ति। अयं संकेतमस्ति यत् यदा गजस्य स्थित्याः प्रापणं भवति, तदा कृष्णाजिनस्य आवश्यकता न भवति। यागकाले वेद्यां यः कोपि कृत्यः भवेत्, तर्हि पृथिव्योपरि कृष्णाजिनस्य स्तरणं अनिवार्यं अस्ति। कारणं, ये कृत्याः करणीयाः सन्ति, तेभ्यः पृथिव्याः क्षतं न भवेत्। अयं संकेतमस्ति यत् साधनाकाले ये व्रतादयः सन्ति, तेभिः देहरूपी पृथिव्याः क्षयं न भवेत्।
टिप्पणी : जो कुछ भी हमारे जीवन के उपद्रवों का शमन करता हो, वह सब शमी के अन्तर्गत आना चाहिए। सबसे अधिक प्रत्यक्ष रूप में तो भोजन हमारी क्षुधा का शमन करता है, अतः भोजन शमी होना चाहिए। भोज्य द्रव्यों की उत्पत्ति ओषधियों से होती है और ओषधियां सोम आदि को प्राप्त करके, उसे अनुरूप रूपान्तरित करके अपने बीज आदि उत्पन्न करती हैं जो हमारा भोजन बनता है। इस प्रकार हम अपनी क्षुधा का शमन प्रथम स्रोत से नहीं, अपितु द्वितीय स्रोत से कर रहे हैं। एक बार भोजन से तृप्ति भी हो गई, उसके पश्चात् भी बहुत से उपद्रव होते हैं जो हमारे तन-मन में अशान्ति उत्पन्न करते हैं। मन तो सर्वदा अशान्त रहता ही है। इन उपद्रवों को शान्त करने का क्या उपाय हो सकता है, यह वैदिक शमी का लक्ष्य हो सकता है। ऋग्वेद ४.३३.४ में तीन शमियों का उल्लेख है – एक तो गौ की रक्षा करना, दूसरे मा का पेषण करना और तीसरे भास का भरण करना(यत्संवत्समृभवो गामरक्षन्यत्संवत्समृभवो मा अपिंशन् ।यत्संवत्समभरन्भासो अस्यास्ताभिः शमीभिरमृतत्वमाशुः) ॥। गौ का अर्थ यह लिया जा सकता है कि गौ सूर्य की किरणों को ग्रहण करके उन्हें सुरक्षित रखना जानती है। द्वितीय शमी के रूप में मा के पेषण के संदर्भ में पिष्ट शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है जहां शतपथ ब्राह्मण १.२.१.२० (तद्यदेवं पिनष्टि । जीवं वै देवानां हविरमृतममृतानामथैतदुलूखलमुसलाभ्यां दृषदुपलाभ्यां हविर्यज्ञं घ्नन्ति ) के आधार पर कहा गया है कि पेषण करते समय कहा जाता है कि प्राणाय त्वा, उदानाय त्वा इत्यादि। इसका अर्थ हुआ कि जिस द्रव्य को पीसा जा रहा है, उसमें प्राण, उदान आदि का समावेश करके उसको शमी बनाया जा रहा है। मा का अर्थ अहंकार हो सकता है। तीसरे उपाय के संदर्भ में, मैत्रायणी संहिता १.६.१२ (..ताम् उखायामवादधात् , सोऽश्वत्थ आरोहोऽभवत् , योखा सा शमी) का यह कथन कि जो उखा है, वही शमी है, शमी का रहस्योद्घाटन करता है। कर्मकाण्ड में उखा नामक पात्र का निर्माण मृदा में आपः तथा अन्य द्रव्यों को मिलाकर किया जाता है। उखा निर्माण के लिए जिस मृदा की आवश्यकता होती है, उसे विशेष रूप से पृथिवी से खोदकर कृष्णाजिन पर रखा जाता है और तीन पशुओं अश्व, रासभ व अज पर लाद कर लाया जाता है। उखा को उषा के रूप में समझा जा सकता है, शमी को उपद्रवों का शमन करने वाली के रूप में। इस प्रकार उखा व शमी दोनों के अर्थ एक दूसरे के पूरक हैं। जो जड द्रव्य है, उसमें उषा का, अग्नि का विकास खोजना आवश्यक है। जिस द्रव्य में उषा का, चेतना का विकास हो जाएगा, वही द्रव्य हमारे उपद्रवों को शान्त कर सकता है। ओषधि को हम भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं। वह हमारी क्षुधा की तृप्ति करती हैं। ओषधि का अर्थ होता है जो ऊष को, उषा को धारण करे। जिस प्रकार का उपद्रव होगा, उसी के अनुरूप उषा का चयन करना होगा।
एक बार उखा का निर्माण हो जाए, उसके पश्चात् उसमें अग्नि की स्थापना की जाती
है। और यह अग्नि शिक्य या छींके में रखी हुई होती है। कहा गया है कि यह शिक्य
अहोरात्र, मास आदि का प्रतीक है। इस अग्नि का पांच चितियों में चयन भी किया जाता
है। चयन का उद्देश्य यह हो सकता है कि चयन के अन्त में अग्नि एक गरुड का रूप धारण
करके उडने में समर्थ हो जाए। पुराणों में तो शमीगर्भ में अश्वत्थ की स्थिति की
कल्पना की गई है जो अग्नि का रूपान्तर है। अथर्ववेद
६.११.१ में इसी कथन का रूपान्तर यह है कि अश्वत्थ शमी पर आरूढ होकर उसमें
पुंसुवन करता है जिससे शमी गर्भ धारण करती है(शमीमश्वत्थ
आरूढस्तत्र पुंसुवनं कृतम् । वैदिक निघण्टु में शमी का परिगणन कर्म नामों के अन्तर्गत किया गया है। ऋग्वेद ९.७४.७(धिया शमी सचते सेमभि प्रवद्दिवस्कवन्धमव दर्षदुद्रिणम् ॥), १०.४०.१(प्रातर्यावाणं विभ्वं विशेविशे वस्तोर्वस्तोर्वहमानं धिया शमि ॥) व १०.९२.१२(सूर्यामासा विचरन्ता दिविक्षिता धिया शमीनहुषी अस्य बोधतम् ॥) में शमी के साथ धी शब्द तृतीया विभक्ति ( धिया) में प्रकट हुआ है। धी और शमी का क्या सम्बन्ध हो सकता है, यह अन्वेषणीय है। धी शब्द का परिगणन भी वैदिक निघण्टु में कर्म नामों के अन्तर्गत ही किया गया है। ऋग्वेद १.११०.४(विष्ट्वी शमी तरणित्वेन वाघतो मर्तासः सन्तो अमृतत्वमानशुः ।) व ३.६०.३(सौधन्वनासो अमृतत्वमेरिरे विष्ट्वी शमीभिः सुकृतः सुकृत्यया ॥) में शमी के साथ विष्ट्वी शब्द प्रकट हुआ है जिसका अर्थ अस्पष्ट है। विष्ट्वी शब्द की परिगणना भी कर्म नामों के अन्तर्गत ही की गई है। प्रथम लेखन : २९-१०-२०१२(आश्विन् पूर्णिमा, विक्रम संवत् २०६९)
संदर्भ *य इन्द्रा॑य वचो॒युजा॑ तत॒क्षुर्मन॑सा॒ हरी॑। शमी॑भिर्य॒ज्ञमा॑शत॥(दे. ऋभवः) - ऋ. १.२०.२ *यदी॒मिन्द्रं॒ शम्यृक्वा॑ण॒ आश॒तादिन्नामा॑नि य॒ज्ञिया॑नि दधिरे॥ - ऋ. १.८७.५ *वि॒ष्ट्वी शमी॑ तरणि॒त्वेन॑ वा॒घतो॒ मर्ता॑सः॒ सन्तो॑ अमृत॒त्वमा॑नशुः॥(दे. ऋभवः) - ऋ. १.११०.४ श्री सायणाचार्य द्वारा विष्ट्वी का अर्थ विस्तार वाली, विस्तृत किया गया है। विष्टि शब्द की परिगणना वैदिक निघण्टु में कर्म नामों के अन्तर्गत की गई है। विष्टि का उचित अर्थ भविष्य पुराण ४.११७.१४ के आधार पर खोजा जा सकता है जहां सूर्य व छाया की पुत्री विष्टि को बालव, तैतिल, वणिज, बव आदि करणों को भार्या रूप में दे दिया गया। साधारण भाषा में विष्टि बेगार में काम कराने को, काम कराने के पश्चात् उसके वेतन का भुगतान न करने को कहते हैं। ज्योतिष के अनुसार ३० घटिकाओं में से विष्टि की पुच्छ में स्थित ३ घटिकाओं में कार्य का शुभ फल प्राप्त होता है, अन्यथा विष्टि में किया गया कार्य नाश की ओर ले जाता है। विष्टि को करणों के अन्तर्गत रखा जाना यह संकेत करता है कि यह कारण से सम्बन्धित है। जहां कर्म करने से कारण न उत्पन्न होता हो, वह विष्टि की अवस्था है। यह शमी का एक प्रकार है जो अमृतत्व की ओर ले जाएगा। *त्रि॒त ऋ॑भु॒क्षाः सवि॒ता चनो॑ दधे॒ ऽपां नपा॑दाशु॒हेमा॑ धि॒या शमि॑॥ - ऋ. २.३१.६ धी के द्वारा शमी अवस्था किस प्रकार प्राप्त की जा सकती है, इस संदर्भ में तैत्तिरीय संहिता ६.१.७.४ का यह कथन उद्धृत किया जा सकता है कि वाक् ही धी है। जो कुछ मन ध्यान करता है, वह वाक् के द्वारा कहता है। तैत्तिरीय संहिता १.८.२२.१ का कथन है कि सरस्वती धियों की अवित्री/रक्षा करने वाली है। शतपथ ब्राह्मण ६.३.१.१३ में प्राणों को धियः कहा गया है। वैदिक निघण्टु में धी का परिगणन भी कर्म नामों के अन्तर्गत किया गया है। *वि मे॑ पुरु॒त्रा प॑तयन्ति॒ कामाः॒ शम्यच्छा॑ दीद्ये पू॒र्व्याणि॑। - ऋ. ३.५५.३ *सौ॒ध॒न्व॒नासो॑ अमृत॒त्वमेरि॑रे वि॒ष्ट्वी शमी॑भिः सु॒कृतः॑ सुकृ॒त्यया॑॥ - ऋ. ३.६०.३ *वयं ह्या ते॑ चकृ॒मा स॒बाध॑ आ॒भिः शमी॑भिर्म॒हय॑न्त इन्द्र॥ - ऋ. ४.१७.१८ *पि॒पी॒ळे अं॒शुर्मद्यो॒ न सिन्धु॒रा त्वा॒ शमी॑ शशमा॒नस्य श॒क्तिः। - ऋ. ४.२२.८ *यत् सं॒वत्स॑मृ॒भवो गामर॑क्ष॒न् यत् सं॒वत्स॑मृ॒भवो॒ मा अपिं॑शन्। यत् सं॒वत्स॒मभ॑र॒न् भासो॑ अस्या॒स्ताभिः॒ शमी॑भिरमृत॒त्वमा॑शुः॥ - ऋ. ४.३३.४ *यो वः॒ शमीं॑ शशमा॒नस्य॒ निन्दा॑त् तु॒च्छ्यान् कामा॑न् करते सिष्विदा॒नः॥ - ऋ. ५.४२.१० *स तो॒कम॑स्य पीपर॒च्छमी॑भि॒रनू॑र्ध्वभासः॒ सद॒मित् तु॑तुर्यात्॥ - ऋ. ५.७७.४ *ईजे य॒ज्ञेभिः॑ शश॒मे शमी॑भिर्ऋ॒धद्वा॑राया॒ग्नये॑ ददाश। - ऋ. ६.३.२ * न तद् दि॒वा न पृ॑थि॒व्यानु॑ मन्ये॒ न य॒ज्ञेन॒ नोत शमी॑भिरा॒भिः। - ऋ. ६.५२.१ *स॒त्यं तत् तु॒र्वशे॒ यदौ॒ विदा॑नो अह्नवा॒य्यम्। व्या॑नट् तु॒र्वणे॒ शमि॑॥ - ऋ. ८.४५.२७ *यस्याजु॑षन्नम॒स्विनः॒ शमी॒मदु॑र्मखस्य वा। तं घेद॒ग्निर्वृ॒धाव॑ति॥ - ऋ. ८.७५.१४ *धि॒या शमी॑ सचते॒ सेम॒भि प्र॒वद् दि॒वस्कव॑न्ध॒मव॑ दर्षदु॒द्रिण॑म्॥ - ऋ. ९.७४.७ *ए॒ते शमी॑भिः सु॒शमी॑ अभूव॒न् ये हि॑न्वि॒रे त॒न्व१॒॑ः सोम॑ उ॒क्थैः। - ऋ. १०.२८.१२ *प्रा॒त॒र्यावा॑णं वि॒भ्वं॑ वि॒शेवि॑शे॒ वस्तो॑र्वस्तो॒र्वह॑मानं धि॒या शमि॑॥(दे. अश्विनौ) - ऋ. १०.४०.१ *सूर्या॒मासा॑ वि॒चर॑न्ता दिवि॒क्षिता॑ धि॒या श॑मीनहुषी अ॒स्य बो॑धतम्॥ - ऋ. १०.९२.१२ *श॒मीम॑श्व॒त्थ आरू॑ढ॒स्तत्र॑ पुं॒सुव॑नं कृ॒तम्। तद् वै पु॒त्रस्य॒ वेद॑नं॒ तत् स्त्री॒ष्वा भ॑रामसि॥ - शौ.अ. ६.११.१ *दे॒वा इ॒मं मधु॑ना॒ संयु॑तं॒ यवं॒ सर॑स्वत्या॒मधि॑ म॒णाव॑चर्कृषुः। इन्द्र॑ आसी॒त् सीर॑पतिः श॒तक्र॑तुः की॒नाशा॑ आसन् म॒रुतः॑ सु॒दान॑वः॥ यस्ते॒ मदो॑ऽवके॒शो वि॑के॒शो येना॑भि॒हस्यं॒ पुरु॑षं कृ॒णोषि॑। आ॒रात् त्वद॒न्या वना॑नि वृक्षि॒ त्वं श॑मि श॒तव॑ल्शा॒ वि रो॑ह॥ बृह॑त्पलाशे॒ सुभ॑गे॒ वर्ष॑वृद्ध॒ ऋता॑वरि। मा॒तेव॑ पु॒त्रेभ्यो॑ मृड॒ केशे॑भ्यः शमि॥ - शौ.अ. ६.३०.१-३ *प्रजापतिरग्निमसृजत सो ऽबिभेत्प्र मा धक्ष्यतीति तँँ शम्याशमयत्। तच्छम्यै शमित्वम्। - तै.ब्रा. १.१.३.११ *यया ते सृष्टस्याग्नेः। हेतिमशमयत्प्रजापतिः। तामिमामप्रदाहाय शमीँँ शान्त्यै हराम्यहम्। - तै.ब्रा. १.२.१.६-७ *प्रेतकर्म -- श॒मि श॒मया॒स्मद॒घा द्वेषाँ॑ँसि। य॒व य॒वया॒स्मद॒घा द्वेषाँ॑ ँसि (इति शमीशाखां पश्चात्, यवं दक्षिणतो) – तै.आ. ६.९.२ *तँँ (अग्निम् प्रजापतिः) शम्या समैन्धत्, तमशमयत्, तं शम्याः शमीत्वम् – मै.सं. १.६.५ *आधानम् - तस्मा (पुरूरवाय) अग्निर्यज्ञियां त३न्वं प्रायछत्, - - तामुखायामवादधात्, सोऽश्वत्थ आरोहोऽभवद्, योखा सा शमी – मै.सं. १.६.१२ *आधानम् - तस्य (वरुणस्य) जायाँँ (अग्निः) समभवत् - - , (अग्नेः) यद्रेता आसीत् सोऽश्वत्थ आरोहोऽभवद् यदुल्बँँ सा शमी, तस्मादेतौ यज्ञावचरौ पुण्यजन्मानौ हि – मै.सं. १.६.१२ *यद्वै प्रजा वरुणो (=हेमन्तो) गृह्णाति शम्यं चैव यवं चापि न गृह्णाति।- - - शमीपर्णानि भवन्ति शन्त्वाय - मै.सं. १.१०.१२, काठ.सं. ३६.५ *वनस्पतीन् वा उग्रो देव उदौषत्, तँँ शम्या अध्यशमयँँस्तच् शम्याः शमीत्वँँ, यच् शमीशाखया वत्सानपाकरोति शान्त्यै। - मै.सं. ४.१.१ *अग्निं वै सृष्टं प्रजापतिस्तँँ शम्याग्रे समैन्द्ध – काठ.सं. ८.२ *शमीमयीम् शान्त्यै – काठ.सं. २१.९ *तान् (पशून्) अयं देवो (रुद्रो) ऽभ्यमन्यत, तँ शम्याशमयत्, तच्छम्याश्शमीत्वम् – काठ.सं. ३०.१०, क. ४६.८ *शमीपर्णानि भवन्ति शन्त्वाय – काठ.सं. ३६.६ *स वा आरण्यमेवाश्नीयात्। - - - -व्रीहियवयोर्वा ऽ एतदुपजं यच्छमीधान्यम् – मा.श. १.१.१.१० *वरुणप्रघासपर्व – तयोरुभयोरेव (पयस्ययोः) शमीपलाशान्यावपति। कं वै प्रजापतिः प्रजाभ्यः शमीपलाशैरकुरुत। शम्वेवैष एतत् प्रजाभ्यः कुरुते। - मा.श. २.५.२.१२ *स वै शमीमयीं प्रथमामादधाति। - - - -स एतां शमीमपश्यन्। तथैनमशमयन्। तद्यदेतंँँ (अग्निं) शम्याऽशमयन्। तस्माच्छमी – मा.श. ९.२.३.३७ *पुरूरवा-उर्वशी आख्यानम् -- तिरोभूतं योऽग्निः अश्वत्थं तं, या स्थाली शमीं ताम्। स ह पुनर्गन्धर्वानेयाय। ते होचुः - - - - - - आश्वत्थीमेवोत्तरारणिं कुरुष्व, शमीमयीमधरारणिम्। स यस्ततोऽग्निर्जनिता, स एव स भवितेति। ते होचुः - परोऽक्षमिव वा एतत्। आश्वत्थीमेवोत्तरारणिं कुरुष्व, आश्वत्थीमधरारणिम्। - - मा.श. ११.५.१.१३ *शमीमयम् (शङ्कुम्) उत्तरतः, शं मे ऽसदिति – मा.श. १३.८.४.१ *स्विष्टकृतः पुरोनुवाक्या – यस्याजु॑षन्नम॒स्विनः॒ शमी॒मदु॑र्मखस्य वा। तं घेद॒ग्निर्वृ॒धाऽव॑ति॥ - तै.सं. २.६.११.३ *उख्यस्य जननम् – शमी॒मयी॒मा द॑धाति॒ शान्त्यै॒ – तै.सं. ५.१.९.६ *चितौ वह्निक्षेपविधिः – ताँँ स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यस्य चि॒त्रामिति॑ शमी॒मयीँ॒ँ शान्त्या॑ – तै.सं. ५.४.७.४ *जिह्वैव शम्या – माश १.२.१.१७ *वज्रश् शम्या – क ४७.५ *एते ह वै स्वर्गस्य लोकस्य विक्रमा यत् शम्यापरासाः- जै २.२९८
*अश्वमेधः -- ऋ॒तव॑स्तऽ ऋतु॒था पर्व॑ शमि॒तारो॒ विशा॑सतु। सं॒व॒त्स॒रस्य॒ तेज॑सा श॒मीभिः॑ शम्यन्तु त्वा॥ अ॒र्द्ध॒मा॒साः परूं॑षि ते॒ मासा॒ ऽ आ च्छ्य॑न्तु॒ शम्य॑न्तः। अ॒हो॒रा॒त्राणि॑ म॒रुतो॒ विलि॑ष्टँँ सूदयन्तु ते॥ दैव्या॑ऽअध्व॒र्यवस्त्वाच्छ्य॑न्तु॒ वि च॑ शासतु। गात्रा॑णि पर्व॒शस्ते॒ सिमाः॑ कृण्वन्तु॒ शम्य॑न्तीः॥ - मा.सं. २३.४०
शमी वृक्ष का उपरोक्त चित्र निम्नलिखित वैबपृष्ठ से साभार ग्रहण किया गया है -
Lalithamba द्वारा चित्रांकित शमी का उपरोक्त चित्र निम्नलिखित वैबपृष्ठ से साभार ग्रहण किया गया है: http://www.flickr.com/photos/45835639@N04/5453607818/in/photostream/
श्री भारती राजा द्वारा अंकित उखा का उपरोक्त चित्र निम्नलिखित वैबपृष्ठ से साभार ग्रहण किया गया है -
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