पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Shamku - Shtheevana) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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In
puraanic literature, there is a universal statement that one should maintain his
wisdom and senses like a bird in a cage by cutting the root of all desires and
actions. There is also mention that at the time of sixth month, a fetus in the
womb acts like a bird in the cage. He is able to remember his past deeds which
makes him uneasy. Then at seventh moth, he is able to get wisdom. There is a
hymn in Rigveda which is centered on auspicious speaking of a bird from all
outside the universe and speaking auspicious from all inside the universe. In
vedic literature, there is mention of a he –bird and a she – bird. In a
particular yaga, both are supposed to copulate. It appears that this is the
copulation of praana/life force or mind with wisdom. It is stated that she –
bird can suck all poison and make one free from all poison. The bird in question
may be the good and bad omens with which we are familiar.
What the sacred texts may mean when these talk of a bird which is
confined in space? It is expected that this may indicate the principle of
uncertainty in modern physics. If variation in one of the two dependent
functions is confined within limits, then the other function may have broad
value range., so that the multiplication of the two may have a constant value.
This may lead to decrease in uncertainty, decrease in chance. शकुन्त टिप्पणी : पौराणिक व वैदिक साहित्य में शकुन्तों का यदा - कदा उल्लेख आता है । महाभारत स्त्रीपर्व २४.२७ में गांधारी विलाप करते हुए कहती है कि अब केवल शकुन्त ही शकुनि की चारों ओर से उपासना करते हैं ( शकुन्ता: शकुनिं कृष्ण समन्तात् पर्युपासते ) । महाभारत शान्ति पर्व १७९.२८ में निर्देश है कि सब कामों व कर्मों का छेदन करके बुद्धि व इन्द्रियग्राम को पिंजरे में शकुन्तों की भांति रखे ( परिच्छिद्यैव कामानां सर्वेषां चैव कर्मणाम् । मूलं बुद्धीन्द्रिय ग्रामं शकुन्तानिव पञ्जरे ) । महाभारत वनपर्व १८९.२ में उल्लेख है कि इन्द्रजित् के बाणों से बंधित होकर राम व लक्ष्मण पिंजरे में बंद शकुन्तों की भांति शोभा पा रहे थे । भागवत पुराण ३.३१.९ में गर्भ की मास अनुसार अवस्थाओं के वर्णन के संदर्भ में उल्लेख है कि छठे मास में गर्भ अपने अङ्गों से इस प्रकार चेष्टा करता है जैसे पिंजरे में बद्ध शकुन्त । तब उसे दैवयोग से सौ जन्मों के कर्म की स्मृति उत्पन्न होती है जिससे उसे शान्ति नहीं मिलती । फिर सातवें मास में बोध उत्पन्न होता है । ऋग्वेद २.४२ व २.४३ सूक्तों का देवता कपिञ्जल रूपी इन्द्र है । कपिञ्जल का अर्थ होगा जो कपि का जरण कर सके । जड पदार्थ में चेतना उत्पन्न करने को, कम्प उत्पन्न करने को कपि कहते हैं । लगता है कि कपिञ्जल से तात्पर्य इस कपि का नियन्त्रण करना है । इन सूक्तों में शकुनि के सर्व रूप में भद्र व विश्व रूप में पुण्य वाक् बोलने की, सभी दिशाओं में भद्र वाक् बोलने की कामना की गई है । ऋग्वेद २.४२.३ में शकुन्त शब्द एक वचन में और २.४३.१ में बहुवचन में प्रकट हुआ है । इसके अतिरिक्त, वैदिक साहित्य में शकुन्त और शकुन्तिका, यह पुल्लिंग व स्त्रीलिङ्ग रूप भी प्रकट हुए हैं । वाजसनेयी माध्यन्दिन संहिता २३.२२ में अश्वमेध के संदर्भ में २ मन्त्रों का उल्लेख है । इन मन्त्रों का विनियोग अश्वमेध में अध्वर्यु नामक ऋत्विज द्वारा परिवृक्ता नामक रानी के साथ मिथुन के लिए होता है ( शतपथ ब्राह्मण १३.५.२.४) । अध्वर्यु कहता है कि यकासकौ शकुन्तिकाहलगिति वञ्चति । आहन्ति गभे पसो निगल्गलीति धारका ।। कुमारी/रानी कहती है कि यकोऽसकौ शकुन्तक ऽआहलगिति वञ्चति । विवक्षतऽइव ते मुखमध्वर्यो मा वस्त्वमभि भाषथा: । इन मन्त्रों की आंशिक व्याख्या शतपथ ब्राह्मण १३.२.९.६ में प्रस्तुत की गई है जिसके अनुसार विड~ शकुन्तिका है । पैप्पलाद संहिता ४.१९.१ में शकुन्तिका से कामना की गई है कि वह मेरे विष को पी जाए जिससे मैं अमृत हो जाउं । पैप्पलाद संहिता ४.१९.६ व ९.१०.८ में शकुन्तिका का उल्लेख विषपुष्प को दुग्ध पान कराने वाली के रूप में है । पैप्पलाद संहिता १५.१३.८ में ग्राम्य पशुओं, आरण्यक मृगों के पश्चात् शकुन्त पक्षियों का उल्लेख है जिन सभी से पाप से मुक्त कराने की प्रार्थना की गई है । उपर्युक्त उल्लेखों की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि दैनिक जीवन में शकुनों से सभी परिचित हैं । यह झूठ भी हो सकते हैं और सच भी । जैसा कि डा. लक्ष्मीनारायण धूत ने व्याख्या की है, इस प्रकृति का सारा कार्य द्यूत द्वारा, चांस द्वारा संचालित होता है । लेकिन कोई व्यक्ति इस प्रकृति से जितना ऊपर उठेगा, उसके जीवन में द्यूत द्वारा कार्यों का संचालन उतना ही कम होता जाएगा । अतः जब पिंजरे में बद्ध शकुन्त का उल्लेख आता है तो इसका यही अर्थ हो सकता है कि जो मन या जो चेतना सारे ब्रह्माण्ड में गति करने के लिए स्वतन्त्र थी, अब उसकी गति के आयाम को सीमित कर दिया गया है जिससे वह अधिक सही सूचनाएं दे सके, द्यूत की प्रक्रिया न्यूनतम हो सके । भौतिक विज्ञान में अनिश्चितता का सिद्धान्त है जिसके अनुसार दो चर फलनों का गुणनफल एक स्थिर संख्या होती है, यदि वे फलन एक दूसरे पर आधारित हों । इस प्रकार एक तन्त्र के आवेग में परिवर्तन व स्थिति में परिवर्तन का गुणनफúल स्थिर रहता है । यदि स्थिति में परिवर्तन न हो तो आवेग में परिवर्तन अधिक मात्रा में हो सकता है । तन्त्र के रूप में यहां मन या प्राण है । यह उल्लेखनीय है कि वैदिक साहित्य में अध्वर्यु को प्राण, सर्वाधिक विकसित प्राण कहा जाता है । अतः यह अन्वेषणीय है कि शकुन्त मन है या प्राण । और संभावना यही है कि तदनुरूप शकुन्तिका बुद्धि हो सकती है ।
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