पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Shamku - Shtheevana) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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The
story of Dushyanta and Shakuntalaa can be found on several websites, e.g., Shakuntala1,
or Shakuntala2
or Shakuntala3
. Some points in the story which have been left out considering these trivial,
will be illustrated during discussion. In the story, the word Dushyanta can have
two meanings – one who purifies from sins and the other whose mind is
inflicted with sins. Both meanings can be accepted for interpretation of the
story, but sticking to spiritual point of view, the first meaning appears more
appropriate. The two meanings can be justified on the basis of the fact that
first, the impure mind has to be purified. Then only this mind is attracted to
hunting. Hunting here means to hunt the self, to find the self. Until the mind
is satisfied with earthly desires, it can not be tempted for hunting. In the
story, Dushyanta, while hunting, crosses three forests. In the first forest, he
kills the dreaded animals. The second forest is desert, having neither any
animal nor any vegetation. The third forest is beautiful, like the forest of god
– king Indra. This description indicates the ascending path of a pure hunting
mind. When a pure mind starts ascending, it is first confronted with free
running thoughts which are wandering like wild animals and prevent the
mindfulness of an ascetic. Hence it becomes necessary to destroy these thoughts,
this instability of mind. The desert of the second forest indicates that state
in penances when a pure mind gets stable, but still far from the goal. The third
beautiful forest is symbolic of that state of supermind where all doubts and
uncertainties are lost, hence the pure and stable mind named Dushyanta feels
happiness. This is the forest where he is able to see the hermitage of sage
Kanva. Kanva means small, fine. Hence the hermitage of Kanva means the region of
fine life forces. In this region of fine life forces, Dushyanta is not able to
see the hermit Kanva. This means that one may be able to see the fine life
forces as an aggregate, but not individually. This is the region of fine life
forces where Shakuntalaa resides. Shakuntalaa is symbolic of the consciousness
of supermind which resides in the region of fine life forces. There are several
points to assume that :
When
pure, stable mind consciousness named Dushyanta unites with supermental
consciousness named Shakuntalaa, then the individuality develops a particular
type of trait of consciousness which has been called Bharata in the story.
According to vedic literature, Bharata means fire or life force/praana. Both of
these words indicate the consciousness, a consciousness which expands the trait
of filling. The other meaning may be the one which supports, nourishes. At the
level of individuality, this may mean a conglomerate of power , generated out of
the union of mental and supermental faculties, which expands through the whole
body and makes one filled with superior activity. From the point of view of
collectivity, this will expand in the universe. That is why Shakuntalaa in the
story demands from Dushyanta that her son should get the throne.
There are some points worth noting in the story: 1.
The son is brought up at the hermitage of sage Kanva but as he becomes
ripe to be anointed as a prince, the sage insists Shakuntalaa to take her to
King Dushyanta. This indicates that as the ascending of mind is necessary for
attainment of higher consciousness, in the same way, for proper utilization of
higher consciousness it is necessary that it descend at the level of mind. It is
the mind which on one side has the ability to unite with levels of higher
consciousness and on the other side with lower levels like life force and gross
food level. 2.
It has been stated in the story that when Dushyanta departs after meeting
with Shakuntalaa, he promises to call her soon to the capital. Shakuntalaa keeps
waiting without any invitation. Dushyanta forgets. This indicates that if per
chance it happens that the mind comes in contact with higher consciousness and
again returns to it’s original state without imbibing it, then it soon forgets
this experience. But this earlier accomlishment, which leads to it’s contact
with higher consciousness, does not go waste. One day the higher consciousness
itself comes to the mind at the direction of fine consciousness named Kanva and
then all the forgetfulness becomes remembrance. 3.
X 4.
In the beginning of the
story, Dushyanta is introduced as the son of Ilila, but at the end of the story,
he approaches her mother Rathantaryaa accompanied with Shakuntalaa and son
Bharata. Here the initial mother Ilila may be symbolic of instability while the
later name of mother may be symbolic of stability – a state where knowledge,
emotion and action have merged into one entity. This is called the inward motion
of a chariot. शकुन्तला शकुन्तला का अर्थ है जो मन रूपी शकुन्त का लालन करे । दुष्यन्त का अर्थ है जो स्वयं दोषमय है । शकुन्तला का जन्म विश्वामित्र व मेनका के संयोग से हुआ । वह स्वर्गीय है, पवित्र है, उसका पालन जीवात्मा रूपी कण्व मुनि के आश्रम में होता है । दुष्यन्त शकुन्तला को दूषित मन से पाना चाहता है । लेकिन दुर्वासनाओं रूपी दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण भूल जाता है । - फतहसिंह दुष्यन्त व शकुन्तला - राधा गुप्ता महाभारत में आदि पर्व अध्याय ६८ से ७४ तक दुष्यन्त - शकुन्तला की कथा विस्तार से वर्णित है । प्रेम कहानी सी प्रतीत होने वाली यह कथा मानव मन के जिन रहस्यों को अपने आप में छिपाए हुए है, उनका उद्घाटन करना ही इस लेख का उद्देश्य है । सर्वप्रथम हम कहानी को संक्षिप्त रूप में जान लें जिससे रहस्यों को सुलझाने और समझने में सरलता हो सके । कुरुवंशीय राजा दुष्यन्त महान् पराक्रमी तथा समूची पृथ्वी के पालक थे । उनके राज्य में चोरी, डकैती, पाप, रोग अथवा व्याधि का नामोनिशान तक नहीं था । राजा धर्मयुक्त भावना से ही प्रजा का पालन करते थे । एक बार राजा मृगया हेतु सैन्य दल के साथ गहन वन की ओर चले । उन्होंने बहुत से हिंसक पशुओं को बाणादि से घायल कर मौत के घाट उतार दिया । मृगया करते हुए ही राजा एक वन से दूसरे वन को पार करते हुए एक ऐसे वन में पहुंच गए जो इन्द्र के चैत्ररथ वन के समान मनोहारी वृक्षों, फूलों से अत्यन्त सुशोभित था, पक्षियों के कलरव तथा मन्द सुगन्धित पवन वन की शोभा को बढा रहे थे । इसी वन में राजा की दृष्टि एक आश्रम पर पडी जो कश्यप - गोत्रीय महात्मा कण्व का था । राजा ने अपने सैनिकों को बाहर ही रोककर पुरोहित तथा मन्त्री के साथ आश्रम की सीमा में प्रवेश किया । मन्त्रोच्चारण तथा वेदध्वनियों से आश्रम की अतीव शोभा हो रही थी । कण्व के दर्शन की इच्छा से राजा ने अकेले ही आश्रम के भीतर प्रवेश किया परन्तु वहां महात्मा कण्व नहीं थे । पुकारने पर एक अलौकिक रूप सम्पन्न युवती अन्दर से बाहर आई और उसने अतिथि राजा का अर्घ्य, पाद्य आदि से स्वागत सत्कार किया । परस्पर परिचय के प्रसंग में युवती ने स्वयं को कण्व की पुत्री बताते हुए इलिल - पुत्र राजा दुष्यन्त को कण्व के लौटने तक प्रतीक्षा करने के लिए कहा । राजा ने युवती के अलौकिक रूप, यौवन तथा स्वभाव आदि पर अत्यन्त मुग्ध हो उसे क्षत्रिय - कन्या बतलाते हुए उससे उसका वास्तविक परिचय जानना चाहा । युवती ने अपनी उत्पत्ति का सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाते हुए कहा कि एक बार विश्वामित्र को उनकी तपस्या से विरत करने के लिए इन्द्र ने स्वर्ग से मेनका अप्सरा को भेजा । काम तथा वायु आदि की सहायता से मेनका ने विश्वामित्र को तप से विरत तो कर दिया परन्तु विश्वामित्र मेनका पर आसक्त हो गए, जिससे उन्हें एक कन्या उत्पन्न हुई । अपना उद्देश्य पूरा हो जाने से मेनका कन्या को हिमशिखर पर छोडकर स्वर्ग को चली गई । सद्योजात कन्या की शकुन्तों ने अपने पंखों से ढंककर रक्षा की । उसी समय महर्षि कण्व उधर से निकले तथा शकुन्तों की प्रार्थना पर कण्व ने कन्या को आश्रम में लाकर उसका लालन - पालन किया । चूंकि शकुन्तों ने कन्या का लालन किया था, अतः कण्व ने कन्या का नाम शकुन्तला रखा । विश्वामित्र तथा मेनका से उत्पन्न तथा कण्व द्वारा पालित वह कन्या मैं ही हूं । युवती से यह सब वृत्तान्त सुनकर तथा उसके क्षत्रिय - कन्या होने का निश्चय हो जाने पर राजा दुष्यन्त ने शकुन्तला को परस्पर सहमति के आधार पर गान्धर्व विवाह द्वारा अपनी पत्नी बना लिया । शकुन्तला ने राजा के समक्ष एक शर्त रखी कि उन दोनों से उत्पन्न पुत्र ही राज्य का अधिकारी होगा । दुष्यन्त तथा शकुन्तला का एकान्त मिलन हुआ तथा दुष्यन्त शकुन्तला को शीघ्र ही अपने पास बुलाने का आश्वासन देकर अपनी राजधानी में लौट गया । आश्रम वापस लौटने पर कण्व को दुष्यन्त तथा शकुन्तला के परस्पर मिलन का सब समाचार ज्ञात हुआ । उन्होंने दिव्य दृष्टि से देखकर शकुन्तला के गर्भ में अमित बलशाली, चक्रवर्ती पुत्र होने पर प्रसन्नता व्यक्त की । तीन वर्ष व्यतीत होने पर शकुन्तला ने पुत्र को जन्म दिया । पुत्र - जन्म पर इन्द्रादि देवों ने बालक के अमित रूपवान्, बलशाली तथा तेजयुक्त होने की घोषणा की । बालक आश्रम में ही रहकर नित नूतन पराक्रम कर्म करते हुए बडा होने लगा । १२ वर्ष की अवस्था होने पर कण्व ने बालक को युवराज पद पर अभिषिक्त होने के योग्य समझकर उसको समस्त विद्याएं प्रदान की तथा शकुन्तला से पुत्र को लेकर पतिगृह जाने का आग्रह किया । शकुन्तला पिता की आज्ञा मानकर पुत्र को लेकर पतिगृह चली गई । दुष्यन्त के सभाभवन में प्रवेश करके शकुन्तला ने दुष्यन्त से अपने पुत्र को स्वीकार कर उसे पूर्व में की गई शर्त के आधार पर युवराज पद पर आसीन करने की प्रार्थना की परन्तु दुष्यन्त ने सभी सभासदों के समक्ष पुत्र तथा शकुन्तला को अपना पुत्र तथा पत्नी मानने से इन्कार कर दिया । वास्तव में दुष्यन्त गान्धर्व विवाह करने के कारण पत्नी को पहचानते हुए भी सभासदों के समक्ष उसकी सर्वमान्यता चाहता था, इसीलिए उसने जानबूझकर पहले उसे अपना मानने से इन्कार कर दिया, परन्तु देववाणी होने पर उसे तुरन्त स्वीकार कर लिया । शकुन्तला दुष्यन्त की पटरानी बन गई । दुष्यन्त ने कुमार का भरत नाम रखकर उसका युवराज पद पर अभिषेक किया । दुष्यन्त की माता रथन्तर्या को अपार हर्ष प्राप्त हुआ । बाद में पुत्र को राज्य - भार सौंपकर दुष्यन्त कृतकृत्य हो गए । भरत का विख्यात चक्र सब ओर घूमने लगा । वह भूमण्डल का प्रतापी चक्रवर्ती सम्राट हुआ । अब हम कहानी के प्रतीकार्थ पर विचार करें । सबसे पहले दुष्यन्त को लें । दुष्यन्त ( दुष् + अन्त) शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं । पहला अर्थ है - दुष अर्थात् दूषण का अन्त अर्थात् शुद्ध तथा दूसरा अर्थ है दुष( दूषण ) है अन्तर में जिसके - वह, अर्थात् अशुद्ध । दोनों अर्थ विपरीत होते हुए भी दुष्यन्त - शकुन्तला की प्रस्तुत कहानी में हम दुष्यन्त के उपर्युक्त दोनों अर्थों में से किसी भी अर्थ को ग्रहण कर सकते हैं । परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से देखने पर प्रथम अर्थ ही अधिक युक्तिसंगत सिद्ध होता है क्योंकि अशुद्ध मन को पहले शुद्ध होना पडता है , तभी वह मृगयासक्त अर्थात् स्व का अन्वेषी हो पाता है । जब तक मन अशुद्ध अर्थात् भोगासक्त है - तब तक मृगयासक्त नहीं हो पाता । दुष्यन्त इलिल का पुत्र कहा गया है । इलिल ( इल~ +इल~ ) का अर्थ है - गति करना । भागवत पुराण में उसे ऐति - पुत्र कहा गया है । एति का भी अर्थ है - गमन करना, आगमन । अतः दुष्यन्त गति गुण वाले ऐसे मनश्चैतन्य अथवा मन का प्रतिनिधित्व करता है जिसके दूषण का अन्त हो गया है । दुष्यन्त रूपी यह शुद्ध मन जिस शरीर - नगरी पर राज्य करता है, उसमें पाप, चोरी, डकैती का भय नहीं रहता । एक दिन यही मन मृगयासक्त( स्वान्वेषी ) होकर एक वन से दूसरे वन को पार करता हुआ एक ऐसे वन में पहुंच जाता है जो इन्द्र के चैत्ररथ वन के समान सुन्दर है । पहले वन में वह हिंसक पशुओं का वध करता है तथा दूसरे वन की भूमि ऊसर कही गई है - वहां न तो कोई हिंसक पशु है तथा न ही किसी प्रकार की कोई वनस्पति आदि । यह वर्णन आरोहणशील(मृगयासक्त) शुद्ध मन के साधना - पथ को इंगित करता है । जब शुद्ध मन आरोहणशील होता है, तब उसका सामना सबसे पहले उन स्वेच्छाचारी विचारों से होता है जो वन्य पशुओं के समान निर्भय घूमते हुए साधक के मन को स्थिर नहीं होने देते । यह अस्थिरता आरोहणशील मन के लिए बहुत बडी बाधा होती है । अतः साधक मन के लिए इस अस्थिरता का नाश करना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है । दूसरे वन की ऊसर भूमि साधना पथ की उस स्थिति की ओर संकेत करती है जब शुद्ध मन स्थिर भी हो जाता है परन्तु अभी लक्ष्य से दूर ही होता है । तीसरा सुन्दर वन उस विज्ञानमय कोश को इंगित करता है जहां पहुंचकर सारे द्वन्द्व समाप्त हो जाते हैं, अतः शुद्ध तथा स्थिर मन रूपी दुष्यन्त अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव करता है । इस वन में दुष्यन्त को कण्व ऋषि के आश्रम के दर्शन होते हैं । कण्व शब्द कण~ धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है - छोटा या सूक्ष्म तथा ऋषि का अर्थ है - प्राण । अतः कण्व ऋषि के आश्रम का अभिप्राय है - सूक्ष्म प्राणों का क्षेत्र । सूक्ष्म प्राणों के इस क्षेत्र में दुष्यन्त को कण्व ऋषि के दर्शन नहीं होते । इसका अभिप्राय यही है कि सूक्ष्म प्राणों के समष्टि रूप को तो देखा जा सकता है, परन्तु उसका व्यष्टि रूप 'कण्व' दिखलाई नहीं पडता । सूक्ष्म प्राणों के इसी क्षेत्र में शकुन्तला निवास करती है । शकुन्तला विज्ञानमय कोश अर्थात् सूक्ष्म प्राणों के क्षेत्र में रहने वाली अतिमानसिक चेतना शक्ति का प्रतीक है । ऐसा मानने के कईं कारण हैं - १- वह विश्वामित्र तथा मेनका की कन्या है । विश्वामित्र का अर्थ है - ऐसा चैतन्य जो विश्व का मित्र है । सामान्य स्थिति में हमारा चैतन्य 'मैं', 'मेरे' के स्वार्थ भाव तक ही सीमित रहता है, परन्तु जब चैतन्य इस 'मैं,' 'मेरे' के भाव से ऊपर उठकर समग्र विश्व से ही मैत्री स्थापित कर लेता है - तब विश्वामित्र बन जाता है । यह विश्वामित्र चैतन्य सर्वोच्च चैतन्य है, परन्तु जब तक यह अवरोहण नहीं करता, अर्थात् जब तक विश्वामित्र चैतन्य अपने से निचले कोश में अवतरित नहीं होता, तब तक विश्व - हित सम्पादित नहीं कर सकता । अतः इस विश्वामित्र चैतन्य को उच्चतम आनन्दमय कोश से निचले विज्ञानमय कोश में लाना अत्यन्त आवश्यक है । जो शक्ति ईश्वरीय ( इन्द्र) प्रेरणा से यह कार्य सम्पादित करती है, उसे मेनका अप्सरा कहा गया है । अप्सरा ( अप् +सृ) का अर्थ है - ऊंचाई से निचाई की ओर सरण अर्थात् गति करने वाली शक्ति । चूंकि मेनका स्वर्गस्थ भाव( विश्वामित्र चैतन्य) को लेकर विज्ञानमय कोश में उतरती है, अतः वह स्वर्ग की अप्सरा कहलाती है । इसी तथ्य को कहानी में विश्वामित्र के तपोरत होने तथा इन्द्र - प्रेषित मेनका अप्सरा द्वारा विश्वामित्र को तप से विरत करने के रूप में व्यक्त किया गया है । मेनका अप्सरा द्वारा लाई गई विश्वामित्र चेतना ही विज्ञानमय कोश में आकर नूतन चेतना के रूप में रूपान्तरित हो जाती है । अतः यहां एक नया नाम धारण कर लेती है । चूंकि विज्ञानमय कोश मनोमय कोश के मानसिक क्षेत्र से अत्यन्त परे सूक्ष्म चेतना( कण्व आश्रम) का क्षेत्र है, अतः इसमें रहने वाली चेतना भी मानसिक चेतना से अत्यन्त परे अतिमानसिक चेतना कही जा सकती है । विश्वामित्र चैतन्य तथा मेनका अप्सरा का सम्मिलित प्रयास इस नूतन चेतना को जन्म देता है, इसीलिए कहानी में इसे विश्वामित्र व मेनका की कन्या कहा गया है । २- मेनका अप्सरा कन्या को हिमशिखर पर छोडकर चली जाती है । चूंकि मेनका अप्सरा का कार्य किसी भी उच्च भाव को अभिव्यक्ति देना मात्र है, अतः अपना कार्य - विश्वामित्र चैतन्य को अतिमानसिक चेतना के रूप में व्यक्त करके मेनका का पुनः अपने निवास स्थान स्वर्ग में चले जाना तर्कसंगत ही है । 'हिमशिखर' ( हिम+शिखर) शब्द में हिम शब्द श्वेतता का तथा शिखर शब्द उच्चता का द्योतक है, जो विज्ञानमय कोश को ही इंगित करता है । ३- हिमशिखर पर मेनका द्वारा छोडी गई सद्योजात कन्या की रक्षा शकुन्तों द्वारा अपने पक्षों से ढंककर की जाती है । शकुन्त ( शक् + उन्त) शब्द सामर्थ्य अर्थ वाली शक् धातु से बना है । उच्च चैतन्य का जब निचले स्तर पर अवतरण होता है, तब नई - नई अवतरित हुई चेतना की रक्षा के लिए अनेक प्रकार की शक्तियां प्रकट होती हैं । ये शक्तियां शकुन्तों( पक्षियों) के समान उडती हुई सी प्रकट होती हैं, अतः शकुन्त कहलाती हैं ( 'पुराणों में वैदिक संदर्भ' नामक पुस्तक पर आधारित ) । विश्वामित्र तथा मेनका के मिलन से उत्पन्न हुई अतिमानसिक चेतना रूपी कन्या की रक्षा सर्वप्रथम यही शकुन्त शक्तियां करती हैं, अतः कण्व ऋषि द्वारा कन्या का नाम 'शकुन्तला'( शकुन्तै: लाल्यते) रखना सर्वथा सार्थक है । ४- अतिमानसिक चेतना शक्ति रूपी शकुन्तला कण्व ऋषि के आश्रम में पलती - बढती है । कण्व का आश्रम सूक्ष्म प्राणों( चेतना) का क्षेत्र है । अतिमानसिक सूक्ष्म चेतना रूपी शकुन्तला से दुष्यन्त रूपी मन का संयोग केवल तभी घटित होता है जब वह मन ( दुष्यन्त) आरोहण करता हुआ अर्थात् साधना के अनेक स्तरों को पार करता हुआ स्थूल से सूक्ष्मतर होकर कण्व आश्रम रूपी सूक्ष्म चेतना के क्षेत्र में प्रवेश करता है । दुष्यन्त व शकुन्तला का संयोग होने पर एक कुमार का जन्म होता है - जो बडा होने पर 'भरत' कहलाता है । यह भरत क्या है ? वास्तव में शुद्ध, स्थिर मनश्चैतन्य( दुष्यन्त) तथा अतिमानसिक चेतना शक्ति( शकुन्तला) का जब मिलन होता है, तब व्यक्तित्व में एक विशिष्ट चैतन्य गुण प्रकट होता है जिसे कहानी में भरत कहा गया है । वैदिक संदर्भों के आधार पर भरत का अर्थ है - अग्नि या प्राण । ये दोनों शब्द - अग्नि तथा प्राण 'चैतन्य' को ही इंगित करते हैं । अतः 'भरत' का अर्थ है - भरं तनोति अर्थात् वह चैतन्य जो भर( विशिष्ट प्रकार की सम्पत्ति का संग्रह अथवा समुच्चय ) का विस्तार करता है । अथवा भृ = भरति व्युत्पति के अनुसार जो भरण - पोषण करता है - वह भरत है । व्यष्टि की दृष्टि से इसका तात्पर्य यह है कि मानसिक तथा अतिमानसिक शक्तियों के मिलन से जो शक्ति समुच्चय बनता है - उस शक्ति समुच्चय का सम्पूर्ण शरीर में विस्तार करके भरत नामक चैतन्य व्यक्तित्व को अत्यन्त तेजस्वी, ओजस्वी तथा स्फूर्तवान् बना देता है तथा समष्टि दृष्टि से यह भरत नामक चैतन्य उस शक्ति समुच्चय का जगत् हित में विस्तार करने लगता है । अतः अतिमानसिक चेतना( शकुन्तला) के साथ मानसिक चेतना( दुष्यन्त) का मिलन इस बात का निश्चित प्रमाण है कि व्यष्टि तथा समष्टि दोनों स्तरों पर शक्ति समुच्चय का विस्तार अवश्य होगा । इसीलिए कहानी में शकुन्तला दुष्यन्त से कहती है कि मेरा मिलन यदि चाहते हो तो एक शर्त माननी होगी कि हमारे मिलन से उत्पन्न पुत्र ही राज्य पर अधिष्ठित होगा । कहानी में कुछ अति महत्त्वपूर्ण तथ्य बहुत सुन्दरता से पिरो दिए गए हैं । उन पर विचार करना भी उपादेय होगा । १- कुमार का जन्म तथा पालन - पोषण कण्व ऋषि के आश्रम में ही होता है परन्तु जैसे ही कुमार युवराज पद पर आरूढ होने योग्य हो जाता है, वैसे ही कण्व शकुन्तला से पुत्र को साथ लेकर दुष्यन्त के पास चले जाने का आग्रह करते हैं । यहां यह तथ्य इंगित किया गया है कि जिस प्रकार उच्चतर चैतन्य की उपलब्धि के लिए मन का आरोहणशील होना आवश्यक है, उसी प्रकार उच्चतर चेतना का भी सम्यक् उपयोग होने के लिए उसका मन के धरातल पर उतरना आवश्यक है । 'मन' ही एकमात्र वह साधन है जो एक ओर तो विज्ञानमय, आनन्दमय प्रभृति उच्चतर कोशों से जुडने की सामर्थ्य रखता है तथा दूसरी ओर प्राणमय तथा अन्नमय कोशों से भी जुडकर उच्चतर चेतना का सर्वत्र विस्तार करके व्यष्टि तथा समष्टि हित का साधक हो जाता है । २- कहानी में कहा गया है कि शकुन्तला से मिलकर दुष्यन्त जब विदा लेता है, तब शकुन्तला को आश्वासन देता है कि वह राजधानी में पहुंचकर शीघ्र ही उसे अपने पास बुला लेगा । शकुन्तला प्रतीक्षा करती रहती है, परन्तु दुष्यन्त की ओर से कोई बुलावा नहीं आता । राजधानी में पहुंचकर दुष्यन्त शकुन्तला को भूल ही जाता है । यह कथन इस तथ्य का संकेत देता है कि यदि मन एक बार उच्चतर चेतना को प्राप्त करके उसे ग्रहण किए बिना ही पुनः अपने पूर्व स्थान पर लौट जाता है, तो उसे जल्दी ही उस उच्चतर अनुभूति की विस्मृति हो जाती है । परन्तु पूर्व में की हुई साधना - जिसके सहारे उच्चतर चेतना से उसका मिलन हुआ था - व्यर्थ नहीं जाती । एक न एक दिन वह उच्चतर चेतना( शकुन्तला ) जब सूक्ष्म चैतन्य रूपी कण्व के निर्देश पर जगत् हित साधने के लिए स्वयं ही उस मन के पास आती है, तब मन का सारा विस्मरण स्मरण बन जाता है और यह स्मरण ही व्यक्तित्व विकास की कुंजी है । ३ - शकुन्तला पुत्र को लेकर जब दुष्यन्त के पास पहुंचती है, तो दुष्यन्त शकुन्तला को पहचानते हुए भी न पहचानने का बहाना करते हुए उसे स्वीकार करने से इन्कार कर देता है । परन्तु देववाणी होने पर तुरन्त स्वीकार कर लेता है । इस देववाणी के होने का अर्थ है - दिव्यता के स्वर की अभिव्यक्ति । व्यक्तित्व से दिव्यता का प्रकट होना ही एकमात्र निश्चित प्रमाण है भीतरी उच्चता का । दुष्यन्त रूपी हमारा मन कितना भी कहे कि वह शकुन्तला रूपी उच्चतर चेतना तथा भरत रूपी भरण गुण से संयुक्त है, परन्तु जब तक हमारे व्यक्तित्व से ही दिव्यता का प्रस्फुटन नहीं होगा - तब तक भला कौन विश्वास करेगा । ४ - कहानी के प्रारम्भ में दुष्यन्त का परिचय इलिल - पुत्र के रूप में हुआ है परन्तु कहानी के अन्त में दुष्यन्त शकुन्तला तथा पुत्र को लेकर माता रथन्तर्या के पास पहुंचता है । रथन्तर( रथ +अन्तर ) शब्द व्यक्तित्व के अन्तर( अन्त:प्रदेश) से सम्बन्ध रखता है । इस शरीर रूपी रथ का अन्त: जिस दिन इच्छा या भाव, ज्ञान तथा क्रिया का समन्वित रूप धारण कर लेता है - उसी दिन रथन्तर बन जाता है । दुष्यन्त रूपी मन प्रारम्भिक अवस्था में गतिवान् है, उसमें स्थिरता का अभाव है - इसीलिए इलिल का पुत्र कहा गया है परन्तु वही मन बाद में उच्चतर चेतना( शकुन्तला, भरत) आदि से संयुक्त होकर रथन्तर्या का पुत्र हो जाता है । उपर्युक्त वर्णन के आधार पर दुष्यन्त - शकुन्तला की इस कहानी में मुख्य संदेश यह प्रेषित किया गया है कि मनुष्य को व्यक्तित्व विकास के लिए अपना सारा ध्यान चैतन्य के आरोहण अर्थात् ऊंचाई की तरफú उठनेv के लिए केन्द्रित करना चाहिए । आरोहण पर्याप्त प्रयत्न अथवा पुरुषार्थ की मांग करता है । तत्पश्चात् अवरोहण अर्थात् ऊंचाई से नीचे उतरते हुए व्यष्टि तथा समष्टि हित साधन की प्रक्रिया सूक्ष्म चैतन्य की प्रेरणा से स्वयं सम्पन्न होने लगती है । उसमें किसी विशेष प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती । शकुन्तला को दुष्यन्त से मिलन के तीन वर्ष पश्चात् पुत्र की प्राप्ति हुई । इस संदर्भ में 'तीन वर्ष' से क्या तात्पर्य है, यह अन्वेषणीय है । |