पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Shamku - Shtheevana) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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बक – कुलीरक – रोहिणीशकट (मित्रभेद कथा 7) अस्य कथायाः आधारं पुराणेषु उपलब्धं अयं कथनं अस्ति यत् यदा कालक्रमेण शनि ग्रहः रोहिणी-चन्द्रमसः शकटं भिनत्ति, तदा द्वादशवर्षीयं अनावृष्टिः, दुर्भिक्षं जायते। अयं सार्वत्रिक रूपेण प्रसिद्धमस्ति यत् चन्द्रमसः सर्वाधिकं प्रेमः रोहिण्यामुपरि अस्ति। चन्द्रमसः रोहिण्या सह व्यवहारं वैद्युत गत्या भवति, रोहिणी चन्द्रमसः स्वागतं चुम्बनेन करोति इत्यादि। अत्र रोहिण्याः किमर्थं भवितुं शक्यते। रोहिणी अर्थात् सा प्रकृति या स्वस्य ऋणात्मकतायाः गुणं विहाय धनात्मकतायाः गुणं स्वीकरोति, या ऊर्ध्वारोहणं कर्तुं शक्नोति। सोमयागे सोमधारकं शकटं उत्तरवेदीमध्ये स्थापयन्ति। शकटोपरि शोधितः सोमघटः स्थापितं भवति। इतः पूर्वं शोधनरहितं क्रीतसोमं वस्त्रेण आबध्य, शकटोपरि आरोपणं कृत्वा उत्तरवेदी पर्यन्तं आनयन्ति। अस्मिन् शकटे बलीवर्दानां स्थाने यज्ञस्य ऋत्विजाः शकटवहनं कुर्वन्ति। सोमयागस्य उत्तरवेदेः एव तत् गुणमस्ति यः रोहिण्याम् अस्ति। अतः यदा शकटः उत्तरवेदी मध्ये स्थापितं भवति, तदा सोमस्य एवं रोहिण्याः निकटतमं सम्बन्धं भवति। आध्यात्मिक रूपेण, अयं देहमेव शकटम् भवति। शनिना शकटस्य भग्नस्य अर्थं भवितुं शक्यते यत् देहस्य अन्तरे कोपि व्यापारः विद्युतस्य गत्या न घटिष्यति। स्थूल देहस्य सर्वे व्यापाराः विद्युत गति अपेक्षया अत्यन्त मंदगत्या घटन्ति। विचाराः एव विद्युद्गत्या अथवा तस्मादपि द्रुतगत्या घटन्ति। प्रेमस्य गतिः द्रुततममेव भवति। अतः यदा पंचतन्त्रस्य कथा कथयति यत् रोहिणी – चन्द्रमसः शकटं शनिना भिन्नं भविष्यति, अस्य कथनस्य अयं अर्थं प्रतीयते यत् चेतनामध्ये प्रेम तत्वस्य मात्रा न्यूनी भविष्यति। भागवत पुराणे प्रेमस्य चतुर्विभागाः सन्ति – प्रेम, मैत्री, कृपा, उपेक्षा – ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च। प्रेम मैत्री कृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः।। अतः यदा चेतना मध्ये प्रेमतत्वस्य मात्रा न्यूनी भविष्यति, तदा अन्य त्रयाणां तत्वानां मात्रायाम् वृद्धिः भविष्यति। मैत्री, कृपा, द्वेष। एषां वृद्धिः भविष्यति। द्वेषस्य कोपि ओषधिः नास्ति। आधुनिक विज्ञान अनुसारेण, प्रकृत्यां यः अनुपयोगितमः ऊर्जा अस्ति, अध्यात्मे स द्वेषः अस्ति। संक्षेपरूपेण, यदा ग्रन्थाः कथयन्ति यत् शनिना शकटस्य भंगकाले अनावृष्टिः भविष्यति, अस्य प्रत्यक्ष रूपमस्ति यत् प्रेम तत्वस्य न्यूनता भविष्यति। अतः दैनिक जीवने अस्माकं कर्तव्यं भवति यत् येन प्रकारेण स्थूलदेहेपि मंद व्यापाराणां गतिषु वृद्धिं भवितुं शक्यमस्ति, स जीवनप्रणाली ग्राह्यः। उदाहरण रूपेण, पादतले यदि कंटकः लगति, तस्य संवेदना मस्तिष्कं यावत् प्रयन्तुं प्रभूतं कालं लगति। किन्तु यदि शरीरस्य उपरि भागे कंटकं लगति, तस्याः सूचना त्वरित गत्या मस्तिष्कं यावत् प्रयाति। अतः सर्वदा प्रयत्नं करणीयमस्ति केन प्रकारेण पादानां शूद्रत्वं अपनेतुं शक्नुमः। अथ पंचतन्त्रस्य कथायां बकः एवं कुलीरम् अस्ति। बकः अर्थात् बकवादः। ये केपि विचाराः अस्माकं मस्तिष्के आविर्भवन्ति, न तेषां किमपि अर्थः। ते विचाराः केवलाः द्वेषात्मकाः एव भवन्ति। यदा प्रेम तत्त्वस्य साम्राज्यं भवति, तदा ते विचाराः शकुनाः, भविष्यस्य सूचकाः भविष्यन्ति। अथ कुलीरम्। अयं कथामध्ये रहस्यतमम् शब्दमस्ति। ऋग्वेदे 10.85 उल्लेखमस्ति यत् यदा उषा रथमध्ये आसीना भूत्वा स्वपतेः गृहं गच्छति, तदा कुरीरं छन्दः औपशं भवितुमर्हति। कुरीरस्य एकं अर्थं कुररी शब्दस्य साहाय्येन गृह्णीयः। कुररी पक्षिणः उत्क्रोशस्य तुलना रावणेन हरणकाले सीतायाः उत्क्रोशेन कुर्वन्ति। वधू अपि यदा श्वसुरस्य गृहं गच्छति, तदा कुररी इव उत्क्रोशं करोति। आधुनिक विज्ञाने केचित् रसायनाः चीलेट्स इति नामधेयानि सन्ति। तेषां अनुवादः कुलीरम् अस्ति। अयं प्रतीयते यत् चीलेट्स परमाण्वानां मध्ये दृढं आकर्षणं भवति। तेन कारणेन एषां संज्ञा कुलीरं अस्ति। शब्दकल्पद्रुम अनुसारेण यत्र कुलस्य विस्तारं अस्ति, तत् कुलीरं भवति। प्रेममध्ये अपि कुलस्य विस्तारं भवति। आकर्षणमपि दृढम् भवति। यदा अस्माकं जीवनमध्ये कोपि दुःखः जायते, तदा वयमपि उत्क्रोशं कुर्वामः। शकटस्य गुणेषु केन प्रकारेण उत्कर्षं करणीयः, अस्य संदर्भे लक्ष्मीनारायण संहिता अनुसारेण देहोपरि देवानां न्यासः करणीयः, शकटः भक्तिशकटं करणीयः। पंचतन्त्रस्य कथायां रोहिणी शकट सम्बन्धे बक – कुलीरक कथायाः निर्माणस्य किमावश्यकता भवति। सोमयागे शकटस्य गत्या उत्पना वाचः किं गुणमस्ति, अयं महत्त्वपूर्णमस्ति। शकटस्य चक्राः यत्र धुरस्य स्पर्शनं कुर्वन्ति, तत्र यजमानपत्नी घृतं ददाति, यतः घर्षणेन आसुरी वाक् न उत्पन्ना भवतु। शकटस्य दक्षिणा अच्छावाक् ऋत्विजं दातुं लक्ष्मीनारायण संहितायां 3.35.116 उल्लेखमस्ति। अच्छावाक् अर्थात् उच्च गुणा वाक्, शकुनगर्भा वाक्। पुराणकथासु यदा शकटः उच्चगुण पूर्णा भवति, तदा संदेशवाहकाः न बकाः, अपितु हंसाः भवन्ति।
29-101 अयं चित्रः माघकृष्ण अमावास्यातः माघशुक्ल त्रयोदशी , विक्रमसंवत् 2071, गार्गेयपुरम्, कर्नूल मध्ये अनुष्ठितस्य ज्योति अप्तोर्याम सोमयागस्य श्री राजशेखर शर्मा महोदयस्य संग्रहात् साभार गृहीतमस्ति।
30जनवरी-50 अयं चित्रः माघकृष्ण अमावास्यातः माघशुक्ल त्रयोदशी , विक्रमसंवत् 2071, गार्गेयपुरम्, कर्नूल मध्ये अनुष्ठितस्य ज्योति अप्तोर्याम सोमयागस्य श्री राजशेखर शर्मा महोदयस्य संग्रहात् साभार गृहीतमस्ति।
एतैः सर्वैर् अभिज्ञानैर् अभिज्ञाय सुदुःखिता
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पुनः प्राप्याश्रमं रामो विना सीतां ददर्श ह ।।
सामिषं कुररं दृष्ट्वा वध्यमानं निरामिषैः ॥ कुम्बकुरीराध्यूहान- सोमयज्ञेषु प्रकृतिभूतज्योतिष्टोमातिरात्रप्रकरणे सोमप्रथमसंस्थायामग्निष्टोमे तद्विकृतिषु चैकाहीनसत्रेषु दीक्षायां प्रतिप्रस्थाता तूष्णीं पत्नीशिरसि कुम्बकुरीरमध्यूहतीति। इदं कुम्बकुरीराध्यूहनमित्युच्यते।
(१,३.२१म्)
न तत्र गच्छेद् यत्र चक्षुषा परापश्येत् (6,138।3अ) क्लीब क्लीबं त्वाकरं वध्रे वध्रिं त्वाकरम् अरसारसं त्वाकरम् | (6,138।3च्) कुरीरम् अस्य शीर्षणि कुम्बं चाधिनिदध्मसि ||3||
द्यौर्भूमिः
कोश आसीद्यदयात्सूर्या पतिम् ॥७॥
इस कथा का आधार पुराणों में उपलब्ध यह कथन है कि जब कालक्रम से शन ग्रह रोहिणी – चन्द्रमा की शकट का भेदन करता है, तब द्वादशवर्षीय अनावृष्टि होती है, दुर्भिक्ष पडता है। यह सार्वत्रिक रूप से प्रसिद्ध है कि चन्द्रमा अपनी 27 पत्नियों में से रोहिणी को सबसे अधिक प्रेम करता है। चन्द्रमा का रोहिणी के साथ व्यवहार विद्युत की गति से होता है, रोहिणी चन्द्रमा का स्वागत चुम्बन द्वारा करती है इत्यादि। यहां रोहिणी का क्या अर्थ हो सकता है। रोहिणी अर्थात् वह प्रकृति जो अपने ऋणात्मकता के गुण को त्याग कर धनात्मकता का गुण स्वीकार कर लेती है, या ऊर्ध्वारोहण करने में सक्षम हो जाती है। सोमयाग में सोमधारण करने वाली शकट को उत्तरवेदी में स्थापित करते हैं। उस शकट के ऊपर शोधित सोम का कलश रखा रहता है। इससे पूर्व, अशुद्ध क्रीत सोम को वस्त्र में बांध कर शकट पर रखकर उत्तरवेदी तक लाते हैं। इस शकट में बैलों के स्थान पर यज्ञ के ऋत्विज शकट का वहन करते हैं। सोमयाग की उत्तरवेदी में ही वह गुण है जो रोहिणी में है। अतः जब शकट को उत्तरवेदी में स्थापित करते हैं, तब सोम और रोहिणी का निकटतम सम्बन्ध होता है। आध्यात्मिक रूप से यह देह ही शकट है। शनि द्वारा शकट को भग्न करने का अर्थ यह हो सकता है कि देह के अन्दर अब कोई भी घटना विद्युत की गति से नहीं घटेगी। स्थूल देह के सारे व्यापार विद्युत की गति की अपेक्षा अत्यन्त मंद गति से घटते हैं। केवल विचार ही विद्युतगति अथा उससे भी द्रुततर गति से घटते हैं। प्रेम की गति द्रुततम होती है। अतः जब पंचतन्त्र की कथा कहती है कि रोहिणी – चन्द्रमा की शकट शनि के कारण भिन्न हो जाएगी, इस कथन का यह अर्थ प्रतीत होता है कि चेतना में प्रेम तत्त्व की मात्रा न्यून हो जाएगी। भागवत पुराण में प्रेम के चार विभाग किए गए हैं – ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च। प्रेम मैत्री कृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः।। अतः जब चेतना में प्रेम तत्त्व की मात्रा न्यून हो जाएगी, तब अन्य त्रय तत्त्वों की मात्रा में वृद्धि हो जाएगी। मैत्री, कृपा, द्वेष। इनमें वृद्धि होगी। द्वेष की कोई भी ओषधि नहीं है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार प्रकृति में जो अनुपयोगी ऊर्जा है, अध्यात्म में वह द्वेष है। संक्षेप में, यदा शास्त्र कहते हैं कि शनि द्वारा शकट भंग करने पर अनावृष्टि होगी, उसका प्रत्यक्ष रूप यही है कि प्रेम तत्त्व की न्यूनता हो जाएगी। अतः दैनिक जीवन में हमारा यह कर्तव्य है कि स्थूल देह के मंद गति के व्यापारों में जिस प्रकार से भी गति में वृद्धि हो सकती हो, वह जीवन प्रणाली अपनाई जाए। उदाहरण के रूप में, यदि पादतल में कांटा लगता है, तो उसकी संवेदना मस्तिष्क तक पहुंचने में पर्याप्त समय लगता है। किन्तु यदि शरीर के उपरि भाग पर कांटा लगता है, तो उसकी सूचना तवरित गति से मस्तिष्क तक पहुंच जाती है। अतः सर्वदा यह प्रयत्न होना चाहिए कि किस प्रकार से पादों के शूद्रत्व को दूर करने में हम सक्षम हों। अब पंचतन्त्र कथा में बक – कुलीर। बक अर्थात् बकवाद। हमारे मस्तिष्क में जो भी विचार प्रकट होते हैं, उनका कोई भी अर्थ नहीं है। वे विचार केवल द्वेष रूप ही होते हैं। जब प्रेम तत्त्व का साम्राज्य होता है, तब ये विचार शकुन बनने लगेंगे। अब कुलीर। कथा में यह रहस्यतम शब्द है। ऋग्वेद 10.85.8 में उल्लेख है कि जब उषा रथ में बैठकर अपने पति के घर जाती है, तब कुरीर छन्द औपश बनता है या बन सकता है। कुरीर का एक अर्थ कुररी शब्द की सहायता से समझा जा सकता है। कुररी पक्षी के उत्क्रोश की तुलना रावण द्वारा सीता के हरण के समय सीता के उत्क्रोश से करते हैं। वधू भी जब श्वसुर के घर जाती है, तब कुररी की भांति उत्क्रोश करती है। आधुनिक विज्ञान में कुछ रसायनों की संज्ञा चीलेट है। उनका अनुवाद कुलीर किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि चीलेट परमाणुओं के बीच दृढ आकर्षण होता है। इस कारण से उनकी कुलीर संज्ञा है। शब्दकल्पद्रुम के अनुसार, जहां कुल का विस्तार होता है, वह कुलीर है। प्रेम में भी कुल का विस्तार होता है। आकर्षण भी दृढ होता है। जब हमारे जीवन में कोई दुःख उत्पन्न होता है, तब हम भी उत्क्रोश करते हैं। पंचतन्त्र की कथा में रोहिणी शकट सम्बन्ध में बक – कुलीर कथा की रचना की क्या आवश्यकता है। सोमयाग में शकट की गति से उत्पन्न वाक् की गुणवत्ता क्या है, यह महत्त्वपूर्ण है। यजमान पत्नी शकट के चक्र जहां धुरे का स्पर्श करते हैं, वहां घृत लगाती है जिससे घर्षण के कारण आसुरी वाक् उत्पन्न न हो। शकट की दक्षिणा अच्छावाक् ऋत्विज को दी जाती है, ऐसा लक्ष्मीनारायण संहिता 3.35.116 में उल्लेख है। अच्छावाक् अर्थात् उच्च गुणों वाली वाक्, शकुनगर्भा वाक्। पुराणकथाओं में जब शकट उत्कृष्ट गुणों से पूर्ण होती है, तब संदेशवाहक बक नहीं, अपितु हंस होते हैं। प्रथम लेखन - माघ कृष्ण त्रयोदशी, विक्रम संवत् २०७२(६ फरवरी, २०१६ ई.) |