पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Shamku - Shtheevana) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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शरभ टिप्पणी : साहित्य में शरभ की कल्पना एक ऐसे पशु के रूप में की जाती है जो ८ पैरों वाला है । इसके ४ पैर नीचे की ओर तथा ४ पैर ऊपर की ओर हैं । यह सिंह को मारने में समर्थ है (महाभारत ) । वाजसनेयी संहिता/शुक्ल यजुर्वेद १३.५१, तैत्तिरीय संहिता ४.२.१०.४ आदि तथा शतपथ ब्राह्मण आदि में पुरुष, अश्व, गो, अवि तथा अज का उल्लेख आता है जो मेध्य पशु हैं, यज्ञीय पशु हैं । इन पांच पशुओं का जो अमेध्य भाग है, जो शुच् है, उसको पांच आरण्यक पशुओं किम्पुरुष, गौर, गवय, उष्ट्र और शरभ में स्थापित कर दिया गया है (ऐतरेय ब्राह्मण २.८)। अतः यह पांच अमेध्य बन गए हैं । पुराणों में इन पांच का उल्लेख गज, गवाक्ष, गवय, शरभ तथा गन्धमादन नामक पांच वानरों के रूप में किया गया है जो रावण से युद्ध में राम की सहायता करते हैं (वा.रामायण ६.३०.२६ )। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार अज का जो अमेध्य अंश था, वह शरभ बना। अनुमान है कि वैदिक वाङ्मय में सूर्य से पूर्व की अवस्था का नाम अज है, उदय के पश्चात् सूर्य के आविर्भाव का नाम अवि है। अज अवस्था में सूर्य का तेज अव्यक्त स्थिति में रहता है। इसी प्रकार, हमारी देह में श्वास की आक्सीजन द्वारा ऊष्मा जनन की एक प्रक्रिया चल रही है। भोजन के पचन से जो सुरा बनती है, उसका विघटन प्रत्येक कोशिका में आक्सीजन द्वारा जल व कार्बनडाईआक्साईड में होता है। इस अभिक्रिया में किंचित् ऊष्मा का भी जनन होता है जिससे सारा देहव्यापार चलता है। इस सारे देहव्यापार पर प्रतिबन्ध लगाना संभव है, जैसा कि आजकल कैंसर चिकित्सा में कैमोथीरेपी द्वारा किया जाता है। अनुमान है कि जिस देहव्यापार पर प्रतिबन्ध लगाना संभव नहीं है, उसका नाम शरभ (क्षर-भ, क्षर का भरण करने वाला। व्याधियां देह के क्षर भाग का भरण करती हैं।) है। देह में ज्वर उत्पन्न होना इस शरभ का ही रूप है। पुराणों में एक राजा अजापाल का आख्यान आता है(भविष्य ४.७१, स्कन्द ६.९५, ६.१३३) जिसने सब व्याधियों को अजाओं के रूप में एकत्र कर लिया है। जब रावण उससे कर मांगता है तो वह ज्वर को रावण के पास भेज देता है जिससे रावण भयभीत हो जाता है। लेकिन दिव्य आत्मा इस शरभ का भी सम्यक उपयोग करने में समर्थ हो जाती है। वाल्मीकि रामायण में शरभ वानर को पर्जन्य का अंश कहा गया है। पर्जन्य सोम का रूप है जिसके वर्षण से ओषधियां गर्भ धारण करती हैं, अन्न का व अन्नाद्य का जन्म होता है। शरभ का निहितार्थ क्या हो सकता है, इस विषय में प्रत्यक्ष रूप से कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता । जब साहित्य में शरभ को ८ पैरों वाला कहा जाता है तो डा. फतहसिंह की विचारधारा के अनुसार इसका अर्थ यह हो सकता है कि विज्ञानमय और इससे नीचे के तीन कोश - मनोमय, प्राणमय और अन्नमय नीचे के चार पैर हैं । विज्ञानमय, और आनन्दमय(सत्, चित् , आनन्द ) ऊपर के चार पैर हैं । ८ पैरों की दूसरी व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि शरभ के चार पैर अन्नमय कोश से विज्ञानमय कोश तक आरोहण के लिए हैं, जबकि चार पैर विज्ञानमय कोश से अन्नमय कोश तक अवरोहण के लिए हैं । अतः शरभ की गति बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी दोनों ओर है । अथवा दूसरे शब्दों में, शरभ नामक व्यक्तित्व की गति नीचे की ओर भी हो सकती है, ऊपर की ओर भी । शरभ शब्द की निरुक्ति क्षरं भरति के रूप में की जा सकती है - जो क्षर स्तर का भरण करता हो । इसकी पुष्टि ऋग्वेद ८.१००.६ के आधार पर की जा सकती है : 'पारावतं यत्पुरुसंभृतं वस्वपावृणो: शरभाय ऋषिबन्धवे ।।' अर्थात् इन्द्र ने परावत से प्राप्त बहुत धन को शरभ ऋषिबन्धु के लिए उद्घाटित कर दिया । इसका अर्थ यह हुआ कि ऊपर के कोशों से धन को प्राप्त करना है और उससे क्षर स्तर की पुष्टि करनी है । पद्म पुराण ६.१८९ में भगवद् गीता के १५वें अध्याय के माहात्म्य के संदर्भ में एक कथा की रचना की गई है । एक राजा के मन्त्री का नामक सरभ - भेरुण्ड था । मन्त्री ने राजा को मारकर स्वयं राजा बनने की सोची लेकिन इतने में ही उसे विसूचिका(हैजा) हो गई और वह मर गया । मर कर वह एक अश्व बना । कालान्तर में वह अश्व उसी राजा को प्राप्त हुआ । राजा उस अश्व पर आरूढ होकर मृगया के लिए गया हुआ था । वहां उस अश्व पर एक वृक्ष का पत्ता गिरा जिस पर गीता के १५वें अध्याय का आधा श्लोक लिखा हुआ था । इतने मात्र से ही उस अश्व को ज्ञान प्राप्त हो गया और वह मुक्त हो गया । इस कथा को समझने के लिए गीता के १५वें अध्याय की विषयवस्तु को स्पष्ट करना उपयोगी होगा । यह अध्याय एक अश्वत्थ वृक्ष के उल्लेख से आरम्भ होता है जिसका मूल ऊपर की ओर हैं और विस्तार नीचे की ओर । इससे अगले श्लोक में कहा गया है कि जब पाप की स्थिति होती है तो मूल नीचे की ओर होता है और विस्तार ऊपर की ओर । सरभ/शरभ के संदर्भ में यही सबसे महत्त्वपूर्ण है कि उसमें दो प्रकार के अश्वत्थों की भांति दोनों गुण विद्यमान होने चाहिएं । कथा के अनुसार सरभ राजा बनना चाहता है । राजा की पराकाष्ठा सोम बनना है । इसका अर्थ यह हुआ कि सरभ सोम बनकर क्षर स्तर की पुष्टि करना चाहता है । लेकिन कठिनाई यह है कि जैसे ही सरभ यह विचार करता है, उसको विसूचिका घेर लेती है । विसूचिका के संदर्भ में योगवासिष्ठ में सूचिका आख्यान पठनीय है जिसके एक श्लोक में कहा गया है - 'सूचिका सा विषूचिका' । योगवासिष्ठ की सूचिका का मुख बहुत छोटा है । वह अपने भरण के लिए ब्रह्माण्ड से पर्याप्त ऊर्जा का संभरण नहीं कर सकती । यही कठिनाई हम सब की भी है । मनुष्य की स्थूलता का कारण यही है कि उसको अपने अस्तित्व के लिए उससे कहीं अधिक ऊर्जा की आवश्यकता है जितनी वह ब्रह्माण्ड से ग्रहण कर सकता है । सरभ के अश्व बनने से क्या तात्पर्य हो सकता है, यह अन्वेषणीय है । वैदिक साहित्य में जब शरभ को अज का अमेध्य भाग कहा जाता है तो यह समझना आवश्यक है कि अज क्या होता है और उसका अमेध्य भाग क्या हो सकता है । अथर्ववेद शौनक संहिता ९.५.१३ का सार्वत्रिक मन्त्र है - अजो ह अग्नेरजनिष्ट शोकाद् विप्रो विप्रस्य सहसो विपश्चित् । इष्टं पूर्तमभिपूर्तं वषट्कृतं तद् देवा ऋतुशः कल्पयन्तु ।। इसका अर्थ है कि अज की उत्पत्ति अग्नि के शोक से, शुच् से हुई । फिर अन्यत्र उल्लेख आते हैं कि अज के शुच् से शरभ की उत्पत्ति हुई । यहां यह विचारणीय है कि अग्नि का वह शुच्/शोक क्या हो सकता है जिससे अज की उत्पत्ति होती है । अग्नि का सर्वश्रेष्ठ गुण देवों को हवि का वहन करना होता है । इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अज में यह गुण विद्यमान नहीं है । वह केवल पार्थिव स्तर का पोषण कर सकती है, दैवी स्तर का नहीं । वैदिक साहित्य से इसकी पुष्टि भी होती प्रतीत होती है । सोमयाग में पकते हुए घृत में पयः की आहुति द्वारा घर्म की उत्पत्ति करने हेतु दो प्रकार के पयः का उपयोग किया जाता है - गौ पयः का और अज पयः का । गौ पयः का दोहन अध्वर्यु नामक ऋत्विज कांस्य पात्र में करता है जबकि अज पयः का दोहन प्रतिप्रस्थाता नामक ऋत्विज मृत्तिका पात्र में करता है । फिर प्रश्न उठता है कि अज का सर्वश्रेष्ठ गुण कौन सा है जिससे शरभ वंचित है, अथवा अज का शोक कौन सा है ? अथर्ववेद ९.५ सूक्त अज ओदन पकाने का है । इस सूक्त में आरम्भ में अज के स्वर्ग लोक तक आरोहण के उल्लेख हैं और उसके पश्चात् अज पञ्चौदन की कल्पना ६ ऋतुओं के रूप में की गई है । इसी सूक्त में अज पञ्चौदन को अपरिमित यज्ञ कहा गया है । इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि अज में आरोहण और ऋतुओं के रूप में अवरोहण, दोनों गुण विद्यमान हैं । इन्हीं दोनों गुणों की अपेक्षा शरभ के संदर्भ में भी की गई है । फिर अज को अपरिमित यज्ञ कहा गया है । क्या यह इस तथ्य का संकेत हो सकता है कि शरभ परिमित यज्ञ है ? शरभ के चार पैर उसकी विज्ञानमय कोश तक पहुंच को इंगित करते हैं । पांचवां आनन्दमय कोश उसकी पहुंच से बाहर है । आनन्दमय कोश में पहुंच कर ही अपरिमित स्थिति प्राप्त हो सकती है । अतः जब गीता के १५वें अध्याय के माहात्म्य के संदर्भ में अश्वत्थ के उपरि - स्थित मूल की बात की जाती है तो उससे तात्पर्य आनन्दमय कोश हो सकता है । कथा में शरभ मृत्यु के पश्चात् अश्व बनता है । अश्व की गति को भी अपरिमित की सीमा के निकट ही माना जा सकता है । ऊपर शुच् को, शोक को अमेध्य भाग कहा गया है । लेकिन यह तथ्य विवादास्पद है । शुच् की स्थिति शुचि अग्नि में भी परिणत हो सकती है जिसे वीर्य, घर्म, शीर्ष भाग आदि कहा जाता है । यदि अथर्ववेद के मन्त्र अजो ह अग्नेरजनिष्ट शोकात् इत्यादि में शोक को उच्च स्थिति की शुचि माना जाए तो अज का अर्थ भी बदल जाता है और वह अग्नि का सर्वोत्कृष्ट रूप हो जाता है, निकृष्ट रूप नहीं । यह कहा जा सकता है कि शोक क्या हो सकता है, इस पर आगे विचार करने की आवश्यकता है । प्रश्न उठता है कि क्या 'शर' का अर्थ वास्तव में 'क्षर' लिया जा सकता है? इसका उत्तर शर शब्द पर विस्तृत विचार के पश्चात् ही प्राप्त हो सकता है । शरभोपनिषद २७ का कथन है - - - - -ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना । शरा जीवास्तदङ्गेषु भाति नित्यं हरि: स्वयं । ब्रह्मेव शरभ: साक्षान्मोक्षदोऽयं महामुने । यहां जीवों को शर कहा गया है । इसका अर्थ सरलता से क्षर लिया जा सकता है । और शरभ को साक्षात् ब्रह्म कहा गया है । पुराणों में शिव शरभ रूप धारण करके परशुराम आदि के समक्ष प्रकट होते हैं । यह विचारणीय है कि शरभ का यह शिव रूप कौन सा है । जब वाल्मीकि रामायण में शरभ को वानर कहा जाता है तो यह विचारणीय है कि वानर के क्या गुण हो सकते हैं । कर्मकाण्ड में नर/नल को अश्वविद्या और अक्षविद्या से सम्बद्ध किया जाता है । नर अवस्था में द्यूत हो भी सकता है, नहीं भी । इससे आगे वानर(वा - नर, विकल्प से नर, नर हो भी सकता है, नहीं भी ) में क्या गुण होंगे, यह विचारणीय है । हरिवंश पुराण में शरभ और शलभ नामक दो असुर भ्राता शरदास्त्र रखने वाले सोम से युद्ध करते हैं । यह संकेत करता है कि शरभ के अर्थ के लिए शरद शब्द पर भी विचार करना पडेगा । शरभ शब्द के संदर्भ में एक कथा पद्म पुराण में शरभ वैश्य की प्राप्त होती है जो पुत्र प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है । देवल मुनि उसे दिलीप द्वारा गौ की सेवा करने का द्रष्टान्त देकर गौरी की सेवा का निर्देश देते हैं । कालान्तर में शरभ वैश्य यमुना तट पर स्थित इन्द्रप्रस्थ तीर्थ की यात्रा करता है और वहीं अपने प्राण त्याग कर स्वर्ग को जाता है । गौरी को वाक्, सात्त्विक प्रकृति आदि कहा जा सकता है - गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षत् - - - सा बभूव एकपदी द्विपदी चतुष्पदी सहस्राक्षरा परमे व्योमन् । जैसा कि यमुना की टिप्पणी में कहा जा चुका है, यज्ञ की समाप्ति पर यमुना में अवभृथ स्नान करने का निर्देश है । जो कुछ जीव का मेध्य भाग था, उसे यज्ञ द्वारा देवों को अर्पित किया जा चुका है । जो अमेध्य भाग बचा है, उसका प्रक्षालन अवभृथ स्नान द्वारा किया जाना है । अतः यह उचित ही है कि पद्म पुराण में इन्द्रप्रस्थ तीर्थ के माहात्म्य का आरम्भ शरभ से किया गया है । Sharabha Upanishada on internet(in Devanaagaree)
In traditional literature, sharabha is
considered an animal which has 8 legs – four downwards and four upwards. In
vedic literature, it has been mentioned that this animal bears the dirty part of
goat. There is an anecdote in vedic literature that gods first got hold of
sacrificial animal man and put it’s dirty part in eunuch. Subsequently, they
got hold of goat and put it’s dirty part in sharabha. The question is – what
is the dirty part of a goat which gods have put in sharabha? First, it is
important to note that goat itself has been mentioned as bearing the dirty part
of fire. What may be the dirty part of fire? This can be understood on the basis
of the fact that fire is supposed to transport food for gods. One which can not
perform this duty will be a goat. This is supported by evidences about goat in
vedic literature. In rituals, goat is milked in an earthen vessel, while a cow
is milked in a bronze vessel. Thus, a goat nourishes only the earthly part, not
the divine. Then what is the quality of goat which is absent in sharabha, is to
be investigated further.
There is a story in connection with the importance of 15th
chapter of Bhagvad Gita/Geetaa that sarabha was a minister to a king. Sarabh
thought of himself becoming a king after killing the king. But as soon as he
thinks so, he is afflicted with cholera and dies. Subsequently, he is born as a
horse and becomes the carrier of the same king. He gets emancipation by half
verse of 15th chapter of Bhagvad Geetaa. The main point to note in
this story is that the minister wants to become a king. A king in vedic
literature is supposed to be Soma. Soma nourishes the life. But as soon as the
minister thinks so, he dies of cholera. In vedic literature, cholera has been
depicted as a needle whose mouth is too short, the state where one is not able
to grasp the life sustaining energy from the universe. 15th chapter
mentions in the beginning that there are two types of Ashwattha trees – one
whose roots lie upwards and the other whose roots lie downwards. Roots downwards
are due to sins. One can say that one shuld have both types of expansions. But
the secret of the story seems to lie in the fact that sharabha has been stated
to have 4+4 legs. This indicates that it’s highest approach is upto a level of
consciousness which is finite, not infinite. Infinite consciousness can be
achieved only at the highest level of consciousness, which is absent in the
mythological animal sharabha. This highest level has been called the upward root
of Ashvattha in Geetaa.
As stated above, sharabha has born out of dirty part of goat. It is
important to note here that the same word seems to have been used to denote the
pious and dirty parts in vedic literature. The pious part forms the head of
consciousness. Therefore, it is difficult to judge which side is being indicated
in the mantra of Atharva veda when it talks of birth of goat from the
pious/dirty part of fire.
First published : 12th December, 2007( Maaargasheersha shukla 3, Vikrami samvat 2064)
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